गोरखपुर शहरी विधानसभा सीट पर भाजपा और जनसंघ 1967 के बाद से नहीं हारी है, सिवाय 2002 के, जब आदित्यनाथ ने हिंदू महासभा के उम्मीदवार का समर्थन किया था।
भारतीय जनता पार्टी ने शनिवार, 15 जनवरी को उत्तर प्रदेश के लिए अपने उम्मीदवारों की पहली सूची की घोषणा कर दी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर शहरी सीट से चुनाव लड़ेंगे। इस तरह उन अटकलों पर विराम लग गया कि आदित्यनाथ चुनाव लड़ेंगे या नहीं। वैसे यह भी कहा जा रहा था कि इस बार वह अयोध्या से चुनाव लड़ेंगे।
तो आदित्यनाथ ने गोरखपुर को क्यों चुना, इस तथ्य के अलावा कि यह गोरखनाथ मठ के प्रमुख के रूप में उनके लिये घरेलू सीट है?
सबसे सुरक्षित संभावित सीट
गोरखपुर शहरी आम तौर पर भाजपा और विशेष रूप से आदित्यनाथ के लिए सबसे सुरक्षित संभावित सीटों में से एक है। कुछ ही सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का इतना व्यापक दबदबा रहा है। यहां एकमात्र हार 2002 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के हाथों हुई थी, लेकिन वह भी पूरी तरह से हार नहीं है, क्योंकि महासभा के उम्मीदवार डॉ राधा मोहन दास अग्रवाल को आदित्यनाथ ने भाजपा के आधिकारिक उम्मीदवार शिव प्रताप शुक्ला के खिलाफ समर्थन दिया था। आदित्यनाथ तब गोरखपुर से सांसद थे। डॉ अग्रवाल उस कार्यकाल के दौरान ही भाजपा में शामिल हो गए थे।
इसलिए, गोरखपुर में भाजपा को जो एकमात्र हार मिली, वह आदित्यनाथ द्वारा रची गई थी, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्र में उनका किस तरह का दबदबा है।
2017 में भाजपा ने 60,730 मतों या 28 प्रतिशत के महत्वपूर्ण अंतर से सीट जीती थी।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में समीकरण बदलने का प्रयास
आदित्यनाथ के पास यूपी में सीएम के रूप में चुनाव नहीं लड़ने का विकल्प विधान परिषद के रास्ते से आने का भी हो सकता था। सपा और बसपा के सीएम उम्मीदवार अखिलेश यादव और मायावती भी चुनाव नहीं लड़ रही हैं। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि आदित्यनाथ को मैदान में उतारा गया है।
भाजपा का अनुमान है कि गोरखपुर के चुनावी मैदान में आदित्यनाथ की मौजूदगी उसे पूर्वी यूपी में मजबूत बढ़त दिला सकती है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां उसे सपा से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
2017 में पूर्वी यूपी में भाजपा का जीत का अंतर पश्चिम की तुलना में काफी कम था। इसलिए, पार्टी के खिलाफ या सपा के पक्ष में वोटों का छोटा अंतर भी बहुत-सी सीटों पर खतरनाक हो सकता है।
अयोध्या क्यों नहीं?
इसके लिए अलग-अलग व्याख्याएं हैं। पहला यह कि अयोध्या पर कभी विचार नहीं किया गया और यह मीडिया के एक वर्ग द्वारा बनाई गई अफवाह मात्र थी। कुछ लोगों का कहना है कि इसे सीएम के करीबी लोगों ने सिर्फ हवा भांपने के लिए उछाला था।
दूसरा यह कि भाजपा आलाकमान ने ही आदित्यनाथ को गोरखपुर में रखने और उन्हें उस सीट का प्रतिनिधित्व करने का प्रतीकात्मक सम्मान नहीं देने के तहत ऐसा किया, जहां राम मंदिर बन रहा है। बता दें कि आदित्यनाथ खुद को ‘अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की देखरेख कर रहे सीएम’ के रूप में पेश करते रहे हैं। अब राम मंदिर को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘विरासत’ के अहम हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है।
अगर आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ते और सीएम के रूप में दूसरा कार्यकाल प्राप्त करते, तो अयोध्या और राम मंदिर के साथ उनकी पहचान वाराणसी और काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ पीएम मोदी के समान होती। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इसी कारण या पूर्वी यूपी की राजनीतिक गणना को देखते हुए आदित्यनाथ को पूर्वी यूपी में रखा गया।
क्या वह हार सकते हैं?
इसकी संभावना बहुत कम है। हालांकि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि सपा और अन्य विपक्षी दल उस सीट से किसे मैदान में उतारते हैं।
ऐसी अटकलें हैं कि मौजूदा विधायक डॉ राधा मोहन दास अग्रवाल, जो स्थानीय स्तर पर एक सम्मानित डॉक्टर हैं, सपा में शामिल होने के लिए भाजपा छोड़ सकते हैं। खासकर आदित्यनाथ के साथ उनके पहले के मतभेद को देखते हुए। लेकिन अगर ऐसा होता भी है तो आदित्यनाथ को इस सीट पर चुनौती देना काफी मुश्किल होगा।
वैसे यह हो सकता है कि यह सपा को आदित्यनाथ को निशाना बनाने के लिए मुद्दा दे सकता है, यह आरोप लगाकर कि उन्होंने ‘सुपर सेफ’ सीट चुनी, क्योंकि उन्हें कहीं और से हारने का डर था।
वैसे यह विपक्ष को गोरखपुर में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौत जैसी विफलताओं पर लोगों को यादें ताजा करने का मौका भी देगा।