गुजरात हाई कोर्ट ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे उम्रकैद की सजा काट रहे एक व्यक्ति की समय से पहले रिहाई का फैसला 1992 की छूट नीति के तहत करें, न कि 2014 की नीति पर।
रफीक परमार को अहमदाबाद में 1999 में की गई एक हत्या के लिए 2001 में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। अगस्त 2017 में उन्होंने राज्य के गृह विभाग से छूट नीति के तहत समय से पहले रिहाई के लिए अपील की। इसलिए कि तब तक वह 16 साल जेल में बिता चुके थे। उन्हें पता चला कि कुछ हफ्ते पहले सलाहकार समिति की बैठक हुई थी और उनके मामले पर विचार नहीं किया गया। उन्होंने हाई कोर्ट से आग्रह किया कि वह राज्य सरकार को उनके मामले पर विचार करने का निर्देश दे, ताकि उन्हें छूट नीति का लाभ मिल सके।
परमार की याचिका पर पांच साल बाद हाईकोर्ट ने सुनवाई की। उनके वकील पीयूष बसेरी ने 23 अक्टूबर 1992 के सरकारी प्रस्ताव के तहत समय से पहले रिहाई के मामले पर विचार करने के लिए अधिकारियों को निर्देश देने के लिए हाई कोर्ट से आग्रह किया। इस नीति में छूट के लिए केवल एक शर्त थी- कैदी को 14 साल जेल में बिताने चाहिए थे। परमार की सजा 2001 में दी गई थी और 1992 की नीति उनकी सजा के समय लागू थी।
राज्य सरकार ने हाई कोर्ट को बताया कि 1992 की छूट पर नीति को 14 जनवरी 2014 को नई नीति से बदल दिया गया था। नई नीति में छूट का लाभ देने के लिए कुछ अपवादों को परिभाषित किया गया था। यानी 2014 की नीति लागू होने पर परमार का मामला समय से पहले रिहाई के लायक नहीं था। इसलिए कि परमार के नाम पर हत्या के अलावा अन्य अपराध भी दर्ज हैं।
इतना ही नहीं, पैरोल पर जाने के मामले में उन्हें भगोड़ा भी घोषित किया गया था। इसने उन्हें 2014 की नीति के तहत छूट के लिए अयोग्य बना दिया।
मामले की सुनवाई के बाद जस्टिस वीडी नानावती ने कहा कि अब यह एक निश्चित कानूनी स्थिति है कि छूट के उद्देश्य के लिए जो नीति लागू की जाती है, वह वही है जो दोषसिद्धि के समय थी। चूंकि कुछ दिनों में छूट सलाहकार समिति की बैठक होनी है, इसलिए राज्य सरकार की दलील के अनुसारअदालत ने कहा कि परमार के मामले पर 1992 की नीति के तहत चार महीने के भीतर विचार किया जा सकता है।
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