रघुवीर सहाय ने बहुत पहले लिखा था इस देश में स्वाधीन दिमाग़ से लोग डरते हैं. वह अब नियम है.
‘मैं सोचता हूं अब अध्यापन के बारे में सोचना ही छोड़ दूं. कोई और पेशा देखूं.’,स्वर में निराशा, हताशा थी लेकिन अपनी नियति के प्रति तटस्थता भी. यह फोन मेरे विभाग के पिछले 15 साल के सर्वश्रेष्ठ छात्रों में से एक का था. वे अभी अस्थायी तौर पर एक कॉलेज में अध्यापन कर रहे हैं. जिस क्षेत्र में उनका अध्ययन और शोध है, उसमें उनकी ख़ासी कद्र है. उनकी किताब प्रकाशित और पर्याप्त समादृत है. वे अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में बुलाए जाते हैं और मुझ जैसे अनेक लोगों के लिए उनके अपने शोध के इलाक़े से जुड़े किसी भी जिज्ञासा के शमन के लिए वे ही संदर्भकोश हैं.
मान लीजिए उनका नाम पुनीत है. वे जिस विषय के हैं, उसके स्नातकोत्तर विभाग में अभी अध्यापकों की नियुक्ति हुई है. पुनीत भी इंटरव्यू में शामिल हुए. इंटरव्यू से वे अत्यंत संतुष्ट थे लेकिन जब सफल प्रत्याशियों की सूची निकली तो उसमें उनका नाम न था.
इस पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. विभाग अपने श्रेष्ठतम छात्रों में से एक का चयन नहीं कर पाता है, या करना नहीं चाहता है, यह किसी के लिए हैरानी की बात न थी. बल्कि इससे अलग कुछ होने पर ज़रूर ताज्जुब होता. पुनीत को बुरा लगा लेकिन आश्चर्य नहीं हुआ.
दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में भी नियुक्तियों का दौर चल रहा है. पुनीत हर जगह इंटरव्यू देते हैं. चयन उनका कहीं नहीं होता. जिनका होता है, वे पुनीत की इस असफलता को क्या उनका भाग्य मान लेते हैं? यह क़िस्सा पुनीत जैसे अनेक अभ्यर्थियों का है. एक ही नहीं, लगभग सारे विषयों और विभागों का है.
योग्य अभ्यर्थी का चुनाव न होना अब ऐसा नियम बन गया है कि एक सफल प्रत्याशी को, जो योग्य भी हो, बतलाते हुए झेंप होती है कि नियुक्तियों की इसी खेप में उनका चुनाव भी हुआ है. मानो उन्होंने नियम भंग कर दिया हो. स्नातकोत्तर विभाग हो या कॉलेज, अपवाद मिलते हैं लेकिन वे नियम को सिद्ध करते हैं.
योग्यता या श्रेष्ठता के आधार पर चुनाव अब विश्वविद्यालयों में असंभवप्राय है. ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में. मान लिया गया है कि अगर आपके सरपरस्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी धड़े में नहीं हैं तो आपको चयन के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए. दूसरे रास्ते भी हैं लेकिन वे सब संयोग ही हैं, यानी विशेषज्ञों में किसी की आपमें रुचि, विभागाध्यक्ष या प्राचार्य या कुलपति की आपसे प्रतिबद्धता.
यह सबको नसीब नहीं. कुछ लोग पुनीत जैसे हैं जिनके पास मात्र योग्यता है. वह चयन की शर्त नहीं.
जो वैचारिक या सांगठनिक तौर पर आरएसएस से संबद्ध नहीं रहे हैं, ऐसे अनेक अभ्यर्थियों ने पिछले 7, 8 वर्ष में संघ की शरण ली है. कई अपने मन के विरुद्ध गए हैं क्योंकि अगर चयन चाहिए तो कोई और उपाय नहीं है. कई ऐसे भी हैं जो यह नहीं कर पाते, नहीं कर सकते. वे गीता के अनुसार इंटरव्यू देने का अपना कर्म फल की चिंता किए बग़ैर किए जाते हैं.
यह भी मालूम हुआ कि अब जो अध्यापकी के उम्मीदवार हैं, वे सोशल मीडिया, यानी फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर अपनी गतिविधि के निशान मिटा देते हैं. उनकी कोई टिप्पणी, कोई पोस्ट अगर सरकार या संघ के प्रति आलोचनात्मक हो तो वह बात उनके ख़िलाफ़ सबूत बन जाएगी.
नए लोगों को अपनी वफ़ादारी साबित करने के लिए काफ़ी मेहनत करनी होती है. संघ के प्रचारकों के कार्यक्रम आयोजित करने से लेकर गुरुदक्षिणा एकत्र करने तक. संघ के कार्यालयों में हाज़िरी या उनके नेताओं के आगे पीछे करना भी काम है. इसके बाद भी वे नए रंगरूट हैं और 2014 के बाद भर्ती हुए हैं, यह बात उनके प्रति संदेह पैदा करती है.
अभ्यर्थियों ने बतलाया है कि प्रायः उनका सामना एक ही विशेषज्ञ से हर इंटरव्यू में होता रहा है. वे पूछते हैं कि क्या विशेषज्ञों की कमी है कि एक ही विशेषज्ञ को बार-बार बुलाया जाता है. लेकिन यह बात विशेषज्ञ की विश्वसनीयता से जुड़ी है. कौन है जो दी हुई सूची पर बिना पलक झपकाए दस्तख़त कर सकता है, या उससे भी आगे बढ़कर असुविधाजनक उम्मीदवारों को अपमानित भी कर सकता है.
एक अभ्यर्थी ने बतलाया कि इंटरव्यू में कई बार विशेषज्ञ जान-बूझकर प्रत्याशियों को बेइज्जत करते हैं. वे प्रत्याशी का आत्मविश्वास हिला देने के तरीक़े खोजते हैं. लेकिन जब इंटरव्यू अच्छा होता है तो उसका मतलब यह नहीं है कि उनका चयन हो जाएगा. इंटरव्यू बोर्ड हंसकर शाबाशी देता है कि इंटरव्यू तो आपका अच्छा रहा. लेकिन यह उनका अभ्यर्थी की क़ीमत पर मनोरंजन भी है.
धीरे-धीरे अभ्यर्थी और विशेषज्ञ परिचित हो जाते हैं. दोनों में एक तरह की ढिठाई है: विशेषज्ञ हर जगह योग्य को ख़ारिज करता है, योग्य हर जगह उन्हें अपने ज़िंदा होने की याद दिलाता है. विशेषज्ञ शर्मिंदा नहीं होते क्योंकि उनका काम योग्य की खोज का नहीं है. बल्कि उस पर लानत भेजने का है.
एक के बाद विभागों, कॉलेजों में इसी प्रकार की बहालियां हो रही हैं.उसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि कुलपतियों या प्राचार्यों का चयन भी इसी आधार पर किया जा रहा है. उनसे उम्मीद करना ही मूर्खता है कि वे गुणवत्ता या श्रेष्ठता की खोज करेंगे या उसका सम्मान करेंगे. अगर योग्यता या श्रेष्ठता चयन का आधार हो तो फिर संस्था के प्रमुख न हों.
जो ख़ुद अयोग्य है, वह ख़ुद से कमतर की ही नियुक्ति करेगा. अयोग्य को श्रेष्ठ से भय लगता है, उसके सामने वह असुरक्षित महसूस करता है.
इसलिए पुनीत का चयन अब लगभग असंभव है. श्रेष्ठता अब एक तरह की अयोग्यता है. इस विषय पर एक निजी संस्थान के प्रमुख से बात कर रहा था. उन्होंने पिछले एक साल की उपलब्धि यह बतलाई कि अलग-अलग विषयों में उन्होंने 25 से अधिक अध्यापक चुनकर नियुक्त किए हैं. यह बतलाते हुए उनके चेहरे पर संतोष का भाव था कि वे श्रेष्ठ अध्येताओं को खोजकर बहाल कर पाए हैं.
यह तसल्ली क्या हमारे कुलपतियों को कभी मिल सकती है? या वे किसी और जगह अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करके ही संतुष्ट हैं कि वे उनके इतने लोगों को ‘लगा’ चुके हैं. यह किसी नई जगह ख़ुद उनकी अगली नियुक्ति की अर्हता भी है.
यह अब भारत में मात्र विश्वविद्यालयों का नहीं, लगभग हर क्षेत्र का हाल है. ऐसा क्यों है कि रवीश कुमार को किसी जगह काम नहीं मिल सकता? या क्या कोई भी विश्वविद्यालय प्रताप भानु मेहता को प्रोफ़ेसरी के लिए बुला सकता है?
श्रेष्ठता से यह विरक्ति क्यों? क्योंकि श्रेष्ठता का एक मतलब स्वाधीनता भी है. रघुवीर सहाय ने बहुत पहले लिखा था इस देश में स्वाधीन दिमाग़ से लोग डरते हैं. वह अब नियम है. स्वाधीन मन और मस्तिष्क को संदेह से ज़्यादा दया और कई बार हिक़ारत से देखा जाता है. जो श्रेष्ठ है, वह स्वाधीन हुए बिना श्रेष्ठता बनाए नहीं रख सकता. लेकिन दोनों पर ज़िद का मतलब है अपने लिए भौतिक सुरक्षा खो देना.
कई बार तर्क दिया जाता है कि यह कोई नई बात नहीं. वामपंथियों ने भी यह किया है. आज और पहले में फ़र्क सिर्फ़ यह है कि पहले योग्य या श्रेष्ठ लोगों को भी सरपरस्त मिल जाते थे. अब वह नामुमकिन है.
श्रेष्ठता से घृणा पिछले एक दशक में धीरे-धीरे गहरी होती गई है या की गई है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसका एक उदाहरण है. पहले कुलपति यह कहते थे कि वे अपने संस्थान को जेएनयू जैसा बनाकर दिखलाएंगे, अब वे कहते हैं कि किसी क़ीमत पर उसे जेएनयू नहीं बनने देंगे. और वहां नियुक्तियों के ज़रिये यह निश्चित कर दिया गया है कि श्रेष्ठता का जेएनयू का अभिमान तोड़ दिया जाए.
योग्य, अध्ययनशील, अपने ज्ञान के क्षेत्र के प्रति समर्पित लोगों की जगह ग़ैरअकादमिक प्रतिबद्धताएं रखने वाले जब अध्यापकों की नियुक्ति पुनीत जैसों के साथ अन्याय तो है ही, आगामी कई दशकों के छात्रों के साथ धारावाहिक अन्याय है. अफ़सोस! श्रेष्ठता के अतीत के कारण इन संस्थानों में दाख़िला लेने को व्यग्र युवाओं का इसका क़तई अंदाज़ नहीं कि वे अब किस प्रकार के वर्तमान में प्रवेश कर रहे हैं. वह सिर्फ़ औसतपन का नहीं बल्कि घटियापन का वर्तमान है.
(लेखक अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. उक्त लेख पूर्व में द वायर द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है)