पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मौजूदा दौर में उत्तर प्रदेश ही केंद्र में है। लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस, देश के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य के मुकाबले में फिलहाल विवादों से दूर ही दिख रही है।
कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बदकिस्मती राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर गांधी भाई-बहनों के उदय से पहले की है। 1989 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आखिरी बार सत्ता में थी। तब गुलाम नबी आजाद (वर्तमान में असंतुष्टों के जी-23 समूह के अगुआ) द्वारा राजीव गांधी को मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन करने के लिए ‘गलत सलाह’ दी गई थी। राजीव गांधी उत्तर प्रदेश में वापसी के लिए अधिक समय तक जीवित नहीं रहे। उनके उत्तराधिकारी पीवी नरसिम्हा राव ने, जो अपने लिए वजूद की लड़ाई लड़ रहे थे, 1996 में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया। तब कांग्रेस पुनरुत्थानवादी भाजपा और आक्रामक क्षेत्रीय दलों के खिलाफ एक गंभीर लड़ाई लड़ रही थी।
जब नई दिल्ली में बसपा-कांग्रेस गठबंधन की घोषणा की गई थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष नरसिम्हा राव ने सीट-बंटवारे के बारे में पूछे जाने पर थोड़े सावधान दिखे थे। तब राव और यूपीसीसी प्रमुख जितेंद्र प्रसाद के बगल में बैठे कांशी राम ने समझौते की शर्तों का खुलासा किया था। उन्होंने कहा था कि बसपा 300 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि कांग्रेस के पास यूपी विधानसभा के तत्कालीन 425 सदस्यों में 125 सीटें होंगी। राव ने जहां चुप्पी साध रखी थी, वहीं गठबंधन के प्रमुख शिल्पी प्रसाद ने नजरें फेर ली थीं। 1996 में लोकसभा चुनाव की हार के बाद अनुभवी के करुणाकरण की अध्यक्षता में एआईसीसी का एक पैनल उत्तर प्रदेश के लिए हार का कारण खोजने निकला था। तब देखा गया था कि गोरखपुर, बस्ती, बहराइच और दर्जनों अन्य स्थानों पर जिला स्तर के कार्यालय तो बरकरार थे, लेकिन बाहर लगे कांग्रेस के बोर्ड भाजपा, बसपा और सपा के हो गए थे।
1996-98 के बीच राव और सीताराम केसरी दोनों को फटाफट हटा दिया गया, क्योंकि कांग्रेस नेता के रूप में सोनिया गांधी को लाना था। कांग्रेस परंपराओं के अनुसार नेहरू-गांधी परिवार के एक सदस्य की वापसी के लिए तर्क यूपी, बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में पार्टी की वापसी का दिया गया था, जिसने 200 से अधिक लोकसभा सीटें दी थीं। कांग्रेस प्रमुख के रूप में अपने 21 साल के लंबे कार्यकाल में सोनिया इन चार राज्यों में गठबंधन बनाने के अलावा कुछ नहीं कर सकी हैं।
समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस का 2017 का गठबंधन विनाशकारी था। चुनाव के बाद अखिलेश यादव ने एकतरफा तरीके से नाता तोड़ लिया। दोनों ओर से इसका कोई जवाब नहीं था कि “एक चक्र के दो पहिये” और “गंगा और यमुना के संगम” वालों ने अलगाव के सिलसिले में मिलने के बजाय अलग-अलग तरीकों का विकल्प क्यों चुना।
अखिलेश के पास राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस को छोड़ने के लिए मजबूर करने वाले कारण हो सकते हैं। उनके पिता और समाजवादी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव शुरू से ही गठबंधन के विरोधी थे। शायद अखिलेश खुद को राहुल की तुलना में अधिक विश्वसनीय राष्ट्रीय विकल्प और युवा प्रतीक के रूप में देखते हैं। अपने पिता मुलायम की तरह अखिलेश को राष्ट्रीय क्षितिज पर नेहरू-गांधी परिवार के एक सदस्य के लिए दूसरी भूमिका निभाने में बहुत कम या कोई दिलचस्पी नहीं है।
फिर आईं प्रियंका गांधी। 2019 में प्रियंका गांधी औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल हो गईं और उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए अपने जुनून का एलान भी कर दिया। हालांकि, उन्होंने 2019 का संसदीय चुनाव लड़ने से परहेज किया। उनके 2022 के विधानसभा चुनाव लड़ने के भी कोई संकेत नहीं हैं। मैं यह तर्क देता रहा हूं कि प्रियंका की उत्तर प्रदेश की व्यस्तताओं का संगठनात्मक मजबूरियों की तुलना में चुनावी मैदानों से बहुत कम लेना-देना है। कांग्रेस के हर पांचवें प्रतिनिधि उत्तर प्रदेश से आते हैं, जो कांग्रेस अध्यक्ष, कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों आदि के चुनाव में अपनी बात रखते हैं। सैद्धांतिक रूप से, यदि गांधी परिवार के खिलाफ पार्टी में विद्रोह भड़का (जैसा कि इंदिरा गांधी के खिलाफ 1969 और 1977 में हुआ था), तो मौजूदा नेतृत्व को हटाने में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बंगाल और अन्य बड़े राज्यों की निर्णायक भूमिका होगी। यह पहलू ऐसे समय में पीछे और कम महत्वपूर्ण हो जाता है, जब गांधी परिवार इस समय चुनावों की पूरी प्रक्रिया, पार्टी प्रतिनिधियों के चयन, डीआरओ (जिला रिटर्निंग ऑफिसर), पीआरओ (प्रदेश रिटर्निंग ऑफिसर) आदि की बारीकी से निगरानी और समीक्षा कर रहा है।
विडंबना यह है कि कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश से कई दिग्गज हैं, लेकिन चुनावी मैदान में कुछ ही खड़े हैं। यहां तक कि कांग्रेस जब केंद्रीय चुनाव समिति अपने उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप देने में जुटी है, तब रत्ना कुमारी सिंह, प्रदीप जैन आदित्य, पीएल पुनिया, आरपीएन सिंह, राज बब्बर, श्री प्रकाश जायसवाल, नगमा, अजहरुद्दीन, जफर अली नकवी आदि शॉर्ट-लिस्टेड में से नहीं हैं। एआईसीसी सचिव के रूप में इमरान मसूद के बहुप्रचारित समावेश आखिरकार प्रियंका के लिए ही शर्मसार करने वाला रहा। मसूद समाजवादी पार्टी में तब शामिल हो रहे हैं, जब कांग्रेस को शायद उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।