रूस के सैन्य हमलों के बीच यूक्रेन से निकल रहे भारतीयों को पड़ोसी देश पोलैंड का बड़ा सहारा मिल रहा है।लेकिन उस सहारा का आधार आज़ादी के कई दशक पहले गुजरात के जामनगर के महाराज दिग्विजय सिंह ने रख दी थी , द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तबाह हुए पोलैंड के 177 बेसहारा बच्चो को रूस के शरणार्थी कैंप में जामनगर में उनका पालन पोषण किया था , आज पोलैंड यूक्रेन से निकलने वाले भारतीय बच्चों के लिए पलक बिछा रखा है। भारतीय छात्रों को रहने-खाने और अन्य जरूरी सुविधाएं मुहैया करवाई जा रही हैं।
उस वक्त खुद पोलैंड इसी रूस के हमले का शिकार हुआ था। पश्चिमी देश पोलैंड ने उस वक्त की गयी मदद का ऐसा अनुभव किया कि भावविभोर होकर चौराहे, पार्क, स्कूल को उनके नाम पर रखा। तत्कालीन जामनगर रियासत के महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा यूक्रेन के इतिहास के अहम् हिस्से बन गए है । उन्होंने पोलैंड की नई पौध को उस वक्त सींचा जब वो जर्मनी और रूस के हमले में बेसहारा हो गई थी। बात हो रही है युद्ध में अनाथ हुए पोलैंड के करीब 1000 बच्चों की जिन्हें महाराजा दिग्विजय सिंह ने न केवल पनाह दी बल्कि पिता जैसा साया दिया। पोलैंड सरकार ने महाराजा दिग्विजय सिंह को मरणोपरांत अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाजा।
1941 में महाराजा दिग्विजय सिंह ने की मदद
दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वर्ष 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर हमला बोल दिया। जर्मन तानाशाह हिटलर और सोवियत रूस के तानाशाह स्टालिन के बीच गठजोड़ हुआ। जर्मन अटैक के 16 दिन बाद सोवियत सेना ने भी पोलैंड पर धावा बोल दिया। दोनों देशों का पोलैंड पर कब्जा होने तक भीषण तबाही मची। हजारों सैनिक मारे गए और भारी संख्या में बच्चे अनाथ हो गए। वो बच्चे कैंपों में बेहद अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हो गए। दो साल बाद 1941 में रूस ने इन कैंपों को भी खाली करने का फरमान जारी कर दिया। तब ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट की मीटिंग हुई और उन विकल्पों पर विचार किया गया कि कैंपों में रह रहे पोलिश बच्चों के लिए क्या-क्या किया जा सकता है।
दिग्विजय सिंह जडेजा की दरियादिली
ब्रिटिश वॉर कैबिनेट की मीटिंग में नवानगर के राजा दिग्विजिय सिंहजी जडेजा भी शामिल थे।विदित हो आज के गुजरात का जामनगर तब नवानगर के नाम से जाना जाता था। भारत पर तब अंग्रेजों की हुकूमत थी और जामनगर ब्रिटिश रिसायत थी। दिग्विजय सिंह ने कैबिनेट के सामने प्रस्ताव रखा कि वो अनाथ पोलिश बच्चों की देखरेख को उत्सुक हैं और उन्हें नवानगर लाना चाहते हैं। उनका प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी भी मिल गई और ब्रिटिश सरकार ने महाराजा को इंतजाम करने को कह दिया।
ब्रिटिश सरकार, बॉम्बे पोलिश कॉन्स्युलेट, रेड क्रॉस और रूस के अधीन पोलिश फौज के संयुक्त प्रयास से बच्चों को भारत भेजा गया। 1942 में 170 अनाथ बच्चा जामनगर पहुंचा। इस तरह अलग-अलग जत्थों में करीब 1000 असहाय पोलिश बच्चे भारत आए। महाराजा दिग्विजिय सिंहजी ने जामनगर से 25 किलोमीटर दूर बालाचाड़ी गांव में शरण दिया। महाराजा ने बच्चों का ढाढस यह कहकर बंधाया कि अब वो ही उन बच्चों के पिता हैं।
बालाचाड़ी में हर बच्चे को कमरों में अलग-अलग बिस्तर दिया। वहां खाने-पीने, कपड़े और स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ उनके खेलने तक की सुविधा सुनिश्चित की। पोलैंड ने बच्चों के लिए एक फुटबॉल कोच भेजा। वो बच्चे अपनी जड़ों से कटा महसूस नहीं करें, इसलिए एक लाइब्रेरी बनवाई और उनमें पोलिश भाषा की किताबें रखवा दीं। पोलिश त्याहोर भी धूमधाम से मनाए जाते। ये सभी खर्च महाराजा ने खुद उठाया, उन्होंने कभी कोई रकम पोलैंड सरकार से नहीं ली।
महाराजा की महानता नहीं भूला पोलैंड
वर्ष में 1945 में विश्वयुद्ध खत्म होने पर पोलैंड को सोवियत यूनियन में मिला लिया गया। अगले वर्ष पोलैंड की सरकार ने भारत में रह रहे बच्चों की वापसी की सोची। उसने महाराजा दिग्विजिय सिंह से बात की। महाराजा ने पोलिश सरकार से कहा कि आपके बच्चे हमारे पास अमानत हैं, आप जब चाहें ले जाएं। महाराजा ने हामी भरी तो बच्चों की वापसी हो गई।
43 वर्ष बाद सन 1989 में पोलैंड सोवियत संघ से अलग हो गया। स्वतंत्र पोलैंड की सरकार ने राजधानी वॉरसॉ के एक चौक का नाम दिग्विजय सिंह के नाम पर रख दिया। हालांकि, महाराजा का निधन 20 वर्ष पहले 1966 में हो चुका था। फिर 2012 में वॉरसॉ के एक पार्क का नाम दिया गया। अगले वर्ष 2013 में वॉरसॉ में फिर एक चौराहे का नाम ‘गुड महाराजा स्क्वॉयर’ दिया गया।
इतना ही नहीं, महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा को राजधानी के लोकप्रिय बेडनारस्का हाई स्कूल के मानद संरक्षक का दर्जा दिया गया। पोलैंड ने महाराजा को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट भी दिया।
जब बुढ़ापे में बालाचड़ी पहुंचे वो ‘बच्चे’
वर्ष 2013 में पोलैंड से नौ बुजुर्गों का एक जत्था बालाचाड़ी आया। उन सभी के बचपन के पांच साल बालाचाड़ी में बीते थे। वो यहां आकर भावुक हो गए। जिस लाइब्रेरी में कभी वो पढ़ा करते थे, वो आज सैनिक स्कूल में तब्दील हो गया है। यहां उनकी नजर अपनी याद में बने स्तंभ पर पड़ी तो आंसुंओं की धारा छलक पड़ी। भारत में होने वाली क्रिकेट की रणजी ट्रॉफी महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा के पिता महाराजा रणजीत सिंहजी जडेजा के नाम पर ही खेली जाती है। रणजीत सिंहजी प्रफेशनल क्रिकेटर हुआ करते थे। उनके नाम पर अंग्रेजों ने 1934 में रणजी ट्रॉफी क्रिकेट टूर्नामेंट शुरू किया था। यह भारत का सबसे बड़ा घरेलू क्रिकेट टूर्नामेंट है।