भारतीय गणतंत्र Republic of I ndia के सात दशक बाद भी विकसित गुजरात Developed Gujarat में दलित अत्याचार Dalit atrocities के मामलों में सजा की दर शर्मनाक है। जबकि दलित आरक्षित सीटों पर ढाई दशक से सत्ताधारी भाजपा का बहुमत रहा है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो National Crime Bureau के आकड़ों के मुताबिक 2018 -2021 तक दर्ज में मामलों में सजा की दर महज 3 .O 65 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से काफी कम हैं।
आकड़ों पर नजर दौड़ाये तो वर्ष 2018 में गुजरात में दलित अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत 1426 मामले दर्ज किये जिनमे से केवल 450 मामलों में सुनवाई पूरी हुयी और केवल 14 मामलों में दोष सिद्ध हो पाया। उसके बाद इस संख्या में और गिरावट का दौर जारी है। इस वर्ष अकेले अहमदाबाद में 140 मामले दलित अत्याचार से जुड़े दर्ज किये गए जिनमे 5 हत्या और 8 दुष्कर्म के मामले शामिल हैं।
2019 में 1416 मामलों में केवल 7 मामलों में ही आरोपी दोषी ठहराए गए। जबकि 387 मामलों की सुनवाई पूरी हो पायी। बाकी मामले अदालत में लंबित हैं।
2020 में दोष सिद्ध मामलों की संख्या घटकर 3 रह गयी जबकि दर्ज मामलों की संख्या 1326 है और सुनवाई 68 मामलों में पूरी हुयी। यह साल कोरोना के कारण देश में लगे लॉक डाउन का था ,जब अदालत केवल आवश्यक मामलों की ही लम्बे समय तक सुनवाई कर रही थी।
2021 में 1201 मामले दर्ज हुए जबकि 8 में दोषसिद्ध हो पाया 139 मामलों में अदालत ने अपना फैसला सुनाया। इस तरह चार वर्ष के दौरान 5369 दर्ज मामलों में महज 32 मामलों में ही आरोपियों पर आरोप साबित हुआ जबकि 1044 मामलों में फैसला आया है। 1012 मामलों में आरोपी बरी हो गए।
इन मामलों में हत्या , बलात्कार जैसे गंभीर मामलों का भी समावेश है। आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में गुजरात पुलिस ने बताया है कि बीते दस सालों में अनुसूचित जाति की 814 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है. इसी समयावधि में अनुसूचित जनजाति की 395 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है.
अगर इन आंकड़ों को समझने के नजरिए से देखें तो हर चार दिन में अनुसूचित जाति यानी दलित परिवार की एक महिला के साथ बलात्कार हुआ है जबकि प्रत्येक दस दिन में एक अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी परिवारों की महिला को यह दंश झेलना पड़ा है.अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के सबसे ज़्यादा मामले अहमदाबाद, राजकोट, बनासकांठा, सूरत और भावनगर में मिले.
अहमदाबाद में दस साल के दौरान 152 मामले देखने को मिले जबकि राजकोट में 96 मामले सामने आए हैं. बनासकांठा, सूरत और भावनगर क्रमश: 49, 45 और 36 मामलों के साथ तीसरे, चौथे और पांचवें पायदान पर हैं
2011 में गुजरात में अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के 51 मामले दर्ज हुए थे. 2020 में ऐसे मामलों की संख्या 102 हो गई है.
गुजरात एसटी एससी सूत्रों के मुताबिक गुजरात में 30 गांव में दलितों को सुरक्षा दी गयी ,जिसमे 20 अकेले सौराष्ट्र के हैं।
लेखक और विचारक उर्वीश कोठारी Writer and thinker Urvish Kothari इसे खतरे की घंटी के तौर पर देखते है , कोठरी के मुताबिक ” अगर आकड़ों को गौर से देखे तो हर साल दर्ज मामलों को संख्या कम हो रही है , इसका मतलब यह नहीं है की दलित अत्याचार कम हो रहा है जब आरोप अदालत में साबित नहीं होते तो अत्याचार होने के बावजूद मामला दर्ज कराने की हिम्मत टूट जाती है। ” दलित युवक पर मूंछ रखने की वजह से हमले , घोड़े पर गांव घूमने पर हत्या , शादी में दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर बरातियों पर हमला जैसी घटना अख़बारों में आती रहती हैं।
कोठारी आगे कहते हैं जिन मामलों में सजा मिली हैं उनको अगर नजदीक से देखेंगे तो उनके पीछे कोई एनजीओ या समाज के किसी शक्तिशाली तबके का पीछे सहारा होगा। ज्यादातर मामलों में आरोपी और फरियादी , गवाह सब एक ही जगह के रहने वाले होते हैं ,फैसला आने में जितना समय लगता है उतना असामाजिक और दूसरे दबाव बनते है। कमजोर आर्थिक और शैक्षणिक पहलू इसमें और बाधक बनते है। वह अफ़सोस से कहते हैं पिछले कुछ सालों में मददगार एनजीओ और दूसरे सामाजिक संगठनों की ताकत और सक्रियता कम हुयी है।
गुजरात उच्च न्यायलय के अधिवक्ता ज़मीर शेख Sameer Shaikh, Advocate, Gujarat High Court इसके क़ानूनी पहलुओं को उजागर करते हुए पुलिसिंग पर सवाल खड़े करते हैं। शेख के मुताबिक दलित अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत के तहत दर्ज मामलों की जाँच एसीपी स्तर या उससे ऊपर के अधिकारी करते हैं। पुलिस किसी शिकायत में आरोप पत्र तभी दाखिल करती है जब उसके जाँच में आरोपियों की भूमिका और अपराध सही प्रतीत होते है , वरना जाँच के बाद जाँच अधिकारी क्लोज़र रिपोर्ट लगा सकता है। 97 प्रतिशत मामलों में आरोपी का छूठ जाना जांच पर सवाल उठता है।
गलत तौर से दलित अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज कराने के सवाल पर वह कहते है कुछ मामलों में झूठी शिकायत हो सकती है लेकिन सब मामले झूठे है की बात में कोई दम नहीं है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ अत्याचार निषेध क़ानून नौ सितंबर, 1989 को लाया गया था जिसके नियम 31 मार्च, 1995 को लागू किए गए. इस कानून में 22 तरह के अपराधों के खिलाफ प्रावधान बनाए गए हैं. इन अपराधों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को आर्थिक, लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकार नहीं देने की कोशिश से लेकर शोषण, भेदभाव और उत्पीड़न तक शामिल हैं.
इस कानून की धारा 14 के तहत ऐसे मामलों की जिला अदालतों में तेज़ी से सुनवाई का प्रावधान है. इस दौरान पीड़िता को एफआईआर दर्ज कराने से लेकर चार्जशीट दाखिल करने तक विभिन्न स्तरों में आर्थिक मदद का भी प्रावधान है, लेकिन पीड़िताओं को इस मदद को हासिल करने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी जे एच व्यास कहते है शिकायत अगर झूठ भी तो कोई जांच अधिकारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहता , वह चार्जशीट अदालत में पेश कर देता है। अदालत के फैसले में सवाल नहीं उठते। कई मामलों में आपसी समझौता भी हो जाता है ,उसके कारण कुछ भी हो।