भारत में सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड्स (SGBs) को लेकर जारी बहस के बीच, वित्तीय योजनाकार और सेबी-पंजीकृत शोध विश्लेषक ए.के. मंडहान ने इस योजना की तीखी आलोचना की है। उन्होंने इसे ‘नोटबंदी’ और ‘मेक इन इंडिया’ जैसी “विफलता” करार दिया है।
रविवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर लिखते हुए, मंडहान ने तर्क दिया कि SGBs की त्रुटिपूर्ण संरचना के कारण सरकारी देनदारियों में असाधारण रूप से 930% की वृद्धि हुई है, जो केवल छह वर्षों में बढ़कर मौजूदा सोने की कीमतों के अनुसार ₹1.13 लाख करोड़ तक पहुंच गई है।
मंडहान ने लिखा, “SGBs के खराब डिजाइन के कारण सिर्फ छह वर्षों में सरकारी देनदारियों में 930% की वृद्धि हुई है, जो आज की सोने की कीमतों के अनुसार ₹1.13 लाख करोड़ तक पहुंच चुकी है।”
उन्होंने आगे चेतावनी दी, “और हर बीतते पल के साथ सोने की कीमत बढ़ती रहेगी, जिससे यह और बढ़ेगा। और आप जानते हैं कि सरकारी देनदारियों का बोझ कौन उठाता है…”
बढ़ती देनदारियां: एक गंभीर चिंता
मंडहान के दावे द प्रिंट की हालिया रिपोर्ट से मेल खाते हैं, जिसमें कहा गया था कि SGBs के कारण 2023-24 तक सरकारी देनदारियों में 930% की चौंकाने वाली वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, 2032 तक ये देनदारियां ₹1.12 लाख करोड़ तक पहुंच सकती हैं, जिसका प्रमुख कारण सोने की बढ़ती कीमतें हैं। रिपोर्ट ने इस संकट के लिए आंशिक रूप से SGB योजना की खामियों और आंशिक रूप से सरकार की नीतियों, जैसे कि जुलाई 2022 तक सोने के आयात शुल्क को 15% तक बढ़ाने, को जिम्मेदार ठहराया।
क्या हैं सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड्स?
2015 में लॉन्च की गई इस योजना का उद्देश्य भौतिक सोने में निवेश के बजाय डिजिटल रूप में निवेश को बढ़ावा देना था। इसके तहत निवेशकों को सोने में निवेश करने के साथ-साथ 2.5% वार्षिक ब्याज भी मिलता है। इस योजना का उद्देश्य भारत की आयातित सोने पर निर्भरता को कम करना था, जिससे देश के व्यापार संतुलन पर दबाव कम हो सके। हालांकि, सरकार इन बॉन्ड्स को मौजूदा बाजार दरों पर भुनाने की गारंटी देती है, जिससे सोने की कीमत बढ़ने के साथ-साथ सरकारी वित्तीय देनदारियां भी बढ़ती हैं।
सरकारी वित्त पर बढ़ता बोझ
SGBs की शुरुआत के बाद से सोने की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है। 2015 में लगभग ₹26,000 प्रति 10 ग्राम की कीमत वाले सोने ने 2024 में ₹64,000 का आंकड़ा पार कर लिया है। इस बढ़ोतरी के कारण सरकार की रिडेम्प्शन लागत (भुगतान योग्य राशि) में भी भारी इजाफा हुआ है। चूंकि SGBs को सरकार की संप्रभु गारंटी प्राप्त है, इसलिए इन देनदारियों का बोझ अंततः करदाताओं पर ही पड़ता है।
मंडहान की आलोचना इन चिंताओं को उजागर करती है और वह इसे नोटबंदी और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं के समान बताते हैं, जिनकी विफलता को लेकर पहले भी कई आलोचनाएं हो चुकी हैं।
जारी रहेगा विवाद
जहां कुछ अर्थशास्त्री और बाजार विश्लेषक SGBs को एक सुरक्षित निवेश विकल्प मानते हैं और इसे भौतिक सोने की मांग को नियंत्रित करने का एक प्रभावी तरीका बताते हैं, वहीं कई विशेषज्ञ सरकार की बढ़ती देनदारियों को दीर्घकालिक वित्तीय जोखिम के रूप में देख रहे हैं।
वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताओं के बीच सोने की कीमतों में उतार-चढ़ाव जारी रहने की संभावना है, जिससे SGBs पर बहस फिलहाल थमती नहीं दिख रही।
फिलहाल, जैसा कि मंडहान ने चेतावनी दी है, “हर बीतते पल के साथ सोने की कीमत बढ़ेगी और यह बोझ बढ़ता रहेगा।” अब सवाल यह है कि क्या सरकार इस महत्वाकांक्षी योजना से उत्पन्न वित्तीय दबाव को संभालने के लिए तैयार है?
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