आर्यमा घोष और शुभदीप मंडल
संसद के नए भवन की छत पर लगे राष्ट्रीय चिह्न को लेकर बहस छिड़ गई है। क्या नवनिर्मित अशोक स्तंभ में शेर दहाड़ने वाले, मांसल और सारनाथ में स्थित पुराने सिंह के विकृत रूप हैं? या वे एक मजबूत और नए भारत का चेहरा हैं?
भारत में राष्ट्रीय पशु पर यह पहली बहस नहीं है। राष्ट्रीय प्रतीक हमेशा राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहे हैं। 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पर्यटन मंत्री करण सिंह ने राष्ट्रीय पशु को बदल दिया था। तब उन्होंने शेर को बाघ के साथ बदल दिया था। विवाद छिड़ गया। लोकसभा में सरकार ने फैसले के बचाव में बाघ संरक्षण का हवाला दिया। फिर भी क्या यही एकमात्र कारण था? क्या इस फैसले में कुछ अतिरिक्त प्रतीकात्मकता थी? दरअसल इस फैसले से साल भर पहले भारत ने पाकिस्तान को बांटकर एक संप्रभु बांग्लादेश बनाने में मदद की थी। स्वाभाविक रूप से भारत की आत्म-छवि अधिक आश्वस्त और मुखर थी। क्या राष्ट्रीय पशु को बदलने का निर्णय शासन की आभा को नया रूप देने का प्रयास था? (बेशक श्रीमती गांधी की अपनी मुखरता के परिणामस्वरूप 1975 में तब गंभीर राजनीतिक अतिरेक हुआ, जब उन्होंने आपातकाल की घोषणा की।)
हमारे पास राष्ट्रीय पशु के संबंध में छोटा-सा पक्षपातपूर्ण राजनीति का भी इतिहास है। 1949 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने युद्धग्रस्त जापान के बच्चों के लिए ‘इंदिरा’ नामक हाथी का एक बछड़ा भेजा था। साथ में लिखे पत्र में नेहरू ने हाथी को भारत का प्रतीक बताया। यह भारत के बारे में उनके विचार की तरह शांत, लेकिन शक्तिशाली है। बाद के वर्षों में, 1955 तक उन्होंने अमेरिका, तुर्की, जर्मनी, चीन और नीदरलैंड्स को भारत के प्रतीक के तौर पर उपहारस्वरूप हाथियों के बच्चे भेजे। एक स्पष्ट (और प्रीतिकर) कूटनीतिक पैंतरे के अलावा यह भारत के प्रतीक के विचार के रूप में एक राजनीतिक पहल भी थी। विद्वानों का कहना है कि हाथी देश की गुटनिरपेक्ष रणनीति का भी प्रतीक है।
नेहरू की हाथी कूटनीति ने मोटी खाल वाले इस पशु को भारत का राष्ट्रीय पशु बनाने की मांग की। लेकिन भारत के पास पहले से ही राष्ट्रीय पशु था: शेर। गुजरात की कांग्रेस कमेटी द्वारा राजनीतिक रूप से समर्थित गुजरात नेशनल हिस्ट्री सोसाइटी ने इसे हाथी से बदलने के कदम का विरोध किया। उसने जोर देकर कहा कि शेर को ही राष्ट्रीय पशु के रूप में रखा जाए। गुजरात निश्चित रूप से, एकमात्र राज्य था जहां एशियाई शेर मौजूद थे। इस तरह नेहरू सरकार ने 1948 में इसे भारत का राष्ट्रीय पशु बना दिया। क्रिस्टोफ जाफरलॉट बताते हैं कि सरदार पटेल की अध्यक्षता वाली गुजरात की प्रांतीय कांग्रेस समिति का नेतृत्व रूढ़िवादी और नेहरूवादी समाजवाद का आलोचक था। इसके अलावा, गुजराती सांस्कृतिक पहचान के सवाल पर गुजरात की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार का भी समर्थन किया। इसलिए, शेर की रक्षा में “गुजरात के साथ खिलवाड़ न करें” वाली भावना आ गई थी।
1950 के दशक के दौरान, जब केंद्र सरकार की राजनीति पर नेहरू की आभा हावी हो गई, तब केएमएल मुंशी, वीपी मेनन और सरदार पटेल के पुत्र दहयाभाई ने कांग्रेस छोड़ दी। बाद में मोरारजी देसाई भी इंदिरा गांधी के एक प्रमुख विरोधी के रूप में उभरे। कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई। 1971 के आम चुनाव में मोरारजी गुट ने केवल 16 सीटें जीतीं, जिनमें से 11 गुजरात से थीं। श्रीमती गांधी ने देशभर में 352 सीटों के साथ एकतरफा जीत हासिल की। इससे उत्साहित और शायद प्रतिशोधी होकर उन्होंने गुजराती शेर के बदले बाघ को भारत का प्रमुख पशु बना दिया। राजनीतिक रूप से यह कदम महत्वपूर्ण और शानदार था।
2012 में, गुजरात के एक व्यवसायी और झारखंड से राज्यसभा के स्वतंत्र सदस्य परिमल नथवानी ने एशियाई शेर को राष्ट्रीय पशु के रूप में फिर से नामित करने की मांग की। कांग्रेस सत्ता में थी, इसलिए उन्हें कहीं समर्थन नहीं मिला। 2014 में नरेंद्र मोदी- गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री- के प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नथवानी ने अपनी मांग दोहराई। 2015 में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इस विचार का समर्थन किया, लेकिन राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने कहा- नहीं। बोर्ड ने जोर देकर कहा कि भारत में इसकी सापेक्ष सर्वव्यापकता को देखते हुए बाघ ही राष्ट्रीय पशु बना रहेगा। यह 17 राज्यों में पाया जाता है और शेर केवल एक में।
शेर समर्थक खेमे ने यह तर्क देते हुए जोर लगाया कि उनका पसंदीदा जानवर राष्ट्रीय प्रतीक यानी अशोक स्तंभ पर था और यह 1972 से पहले तक राष्ट्रीय पशु भी था। लेकिन गुजरात लॉबी की यह मांग भाजपा के भीतर भी आमराय नहीं बना सकी, जहां इसे बढ़ावा मिलना जरूरी कदम होता। बल्कि वहां इसके लिए एक नए पशु का नाम उछाला गया। 2018 की शुरुआत से कई दक्षिणपंथी संगठनों- यहां तक कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक मौजूदा न्यायाधीश शेखर कुमार यादव द्वारा गाय को भारत का राष्ट्रीय पशु बनाने की मांग की गई है। योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस मांग को और बल मिला।
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में शेर को अपनी ‘मेक इन इंडिया’ परियोजना का शुभंकर बनाया था, लेकिन गुजरात “शेर लॉबी” फिर भी नाखुश है। शेर के लिए यह नया प्रयास वास्तव में एक अल्पकालिक घटना हो सकती है, जो आगामी गुजरात विधानसभा चुनावों की बयानबाजी से जुड़ी है। फिलहाल, बाघ प्रतीकात्मक शीर्ष पर बना हुआ है। क्या एक दिन उसकी दहाड़ शेर की दहाड़ से बदल जाएगी? या गाय का रंभाना हमारी ‘राष्ट्रीय ध्वनि’ बन जाएगी? बहरहाल, बहस से बहरे होने के लिए तैयार हो जाइये।
(आर्यमा घोष जादवपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं। शुभदीप मंडल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में शोधार्थी हैं। दोनों सोसाइटी फॉर रिसर्च अल्टरनेटिव्स से जुड़े हुए हैं)
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