19 अगस्त को, गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य के धर्मांतरण विरोधी कानून की धारा 5 पर रोक लगा दी।
26 अगस्त को, गुजरात के गृह मंत्री प्रदीपसिंह जडेजा ने घोषणा की कि धारा 5 ही संशोधित नए कानून का ‘आधार’ है। वह सही थे।
गुजरात धर्म स्वतंत्रता संशोधन अधिनियम 2021 की धारा 5 दरअसल किसी के लिए भी यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे का धर्म परिवर्तित करने से पहले जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) से अनुमति ले। जो जांच करने के लिए एक महीने तक का समय ले सकता है और फिर अनुमति दे भी सकता है या मना भी कर सकता है। इसके तहत, धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को भी ऐसा करने के 10 दिनों के भीतर डीएम को सूचित करना होगा।
गुजरात सरकार ने इस साल अप्रैल में अपने मौजूदा धर्मांतरण विरोधी कानून में केवल एक उद्देश्य के साथ संशोधन किया: हिंदू लड़कियों की इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद मुस्लिम लड़कों से शादी करने की बढ़ती घटना को रोकना, जिसे हिंदुत्ववादी “लव जिहाद” कहते हैं। इस शब्द का उल्लेख कानून के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में भी किया गया है।
अब तक हिंदुत्ववादी समूह के पास इस तरह की शादियों को रोकने का एकमात्र तरीका बाहुबल था। जब भी उन्हें इसके बारे में पता चला, वे इसे आजमाते। लेकिन जब 2017 में कई राज्यों में भाजपा की सरकारें बन गईं, तब इस तरह की शादियों को रोकने के लिए पुख्ता कानून को रक्षाकवच बनाने को कहा गया। केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त अनुकूल राज्यपालों की ओर इन कानूनों को तत्काल स्वीकृति मिलती चली गई।
लेकिन ऐसे कानूनों के प्रभावी होने के लिए दो अनिवार्य कारण प्रमुख हैं:
- सबसे पहले, अधिकारियों को ऐसे विवाहों के बारे में पूर्व सूचना होनी चाहिए;
- दूसरे, इन अधिकारियों के पास उन्हें रोकने की शक्ति होनी चाहिए। इसलिए गुजरात में कानून की धारा 5 रखी गई है।
पिछले साल से यूपी, एमपी और उससे पहले उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बनाए गए कानूनों में भी समान धाराएं देखी जा सकती हैं।
इस महत्वपूर्ण खंड को शामिल करते हुए इन सरकारों ने जानबूझकर एक महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी की है: अधिकारियों को अग्रिम नोटिस देने के इस प्रावधान को लगभग एक दशक पहले हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट द्वारा संविधान के अधिकार के रूप में रद्द कर दिया गया था। इसे रद्द करने वाले न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता तरक्की पाकर बाद में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए।
2012 में न्यायमूर्ति गुप्ता ने 2006 के हिमाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम में इस प्रावधान को निजता के मौलिक अधिकार और धर्म की स्वतंत्रता का उल्लंघन पाया। एक व्यक्ति को न केवल अंतःकरण का अधिकार, विश्वास का अधिकार, अपना विश्वास बदलने का अधिकार है, बल्कि अपनी आस्थाओं को गुप्त रखने का भी अधिकार है। एक इंसान को अधिकारियों को यह बताने के लिए क्यों कहा जाना चाहिए कि वह अपनी आस्था बदल रहा है? अदालत ने पूछा, जिला मजिस्ट्रेट को अग्रिम नोटिस देने के लिए राज्य को कन्वर्टी को निर्देश देने का क्या अधिकार है?” अदालत ने यह भी महसूस किया कि इस जानकारी को सार्वजनिक करना धर्म परिवर्तन कराने वाले के लिए खतरनाक हो सकता है।
इसके बावजूद, पिछले साल भाजपा के नेतृत्व वाली हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने 2006 के कानून को बदल दिया, जिसमें यह प्रावधान शामिल था।
यहां तक कि जहां कोई धर्मांतरण नहीं हुआ है, जैसा कि विशेष विवाह अधिनियम 1954 (एसएमए) में, गोपनीयता और सुरक्षा की समान चिंताओं के कारण अदालतों को उन प्रावधानों के खिलाफ फैसला सुनाना पड़ा है जो यह सार्वजनिक करने के लिए बाध्य करता है कि जोड़ा शादी करने की योजना बना रहा है।
अंतर-धार्मिक विवाह करने के इच्छुक जोड़ों के लिए गोपनीयता महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्हें मजबूत माता-पिता और सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ता है। विशेष विवाह अधिनियम ऐसे जोड़ों के लिए है, जिसमें विवाह एक नागरिक समारोह के रूप में किया जाता है, जिसमें किसी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन अधिनियम के तहत न केवल एक महीने का नोटिस आवश्यक है, बल्कि विवाह अधिकारी को अपने कार्यालय में एक प्रमुख स्थान पर इसे प्रदर्शित करना भी आवश्यक है, ताकि देखा जा सके कि कोई शादी पर आपत्ति तो नहीं करना चाहता है।
दिल्ली में, इस तरह के नोटिस भावी जोड़े के माता-पिता को भेजे जाते थे, जब तक कि दिल्ली हाई कोर्ट ने 2009 में इस प्रथा के खिलाफ फैसला नहीं सुना दिया।
हिंदुत्व के रक्षक इस तरह के नोटिस पर नजर रखते हैं और शादी को विफल करने की कोशिश करते हैं, जैसा कि हाल ही में मुंबई में भी हुआ था, जो प्रेमियों के गुमनामी में सुरक्षित रहने के लिए चर्चित है। ऐसा ही एक नोटिस पढ़ने के बाद चार अजनबी एक हिंदू परिवार के एक पॉश कॉलोनी वाले घर में घुस गए, ताकि माता-पिता अपनी बेटी को मुस्लिम से शादी करने की अनुमति न दें। पिता, जो तब तक सहायक थे, ने ट्रैक बदल दिया। हालांकि, लड़की ने पुलिस से शिकायत की, जिसने चारों को चेतावनी देकर छोड़ दिया।
दिलचस्प बात यह है कि इस साल जनवरी में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि एसएमए के तहत आपत्तियां आमंत्रित करने वाला ऐसा नोटिस प्रकाशित करना अब अनिवार्य नहीं है। युगल तय कर सकता है कि इसे प्रकाशित किया जाना चाहिए या नहीं।
अब प्रावधानों ने खुद को ही चुनौती दी है। पिछले साल दिल्ली निवासी निदा रहमान, जिन्होंने माता-पिता की अस्वीकृति के बावजूद एसएमए के तहत अपने सहपाठी मोहन लाल से शादी की, ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। कहा कि इन प्रावधानों को जीवन, स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना जाए। उम्मीद के मुताबिक ही केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में इस धारा का बचाव किया है। बता दें कि यह प्रावधान ही मुख्य कारण है कि संभावित जोड़े एसएमए के तहत शादी का विकल्प नहीं चुनते हैं। यदि कोई अपने माता-पिता को सूचित करता है तो 30-दिन की नोटिस अवधि के दौरान अपने गृहनगर में रहना जोखिम भरा होता है; भागना उतना ही जोखिम भरा है, क्योंकि लड़की के माता-पिता पुरुष के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। ऐसे में उनमें से एक को चुपचाप दूसरे के धर्म में परिवर्तित होना आसान लगता है।
लेकिन नए ‘लव-जिहाद’ कानून ऐसे धर्मांतरण को निजी रखना असंभव बना देता है।
‘लव जिहाद’ का सिद्धांत महिलाओं को मूर्ख प्राणी के रूप में देखता है, जिन्हें आसानी से गुमराह किया जाता है, जिन्हें ‘संरक्षित’ देने की जरूरत होती है। महिलाओं को स्वायत्त नागरिक के रूप में नहीं, बल्कि समुदाय से संबंधित के रूप में देखा जाता है। इस सिद्धांत में गोपनीयता की अवधारणा के लिए कोई स्थान नहीं है।
हाई कोर्ट के स्टे के खिलाफ गुजरात सरकार अब सुप्रीम कोर्ट जाएगी। क्या सुप्रीम कोर्ट निजता के अधिकार को बरकरार रखेगा?