कांग्रेस के तीन दिवसीय “चिंतन शिविर” ने खुद को पार्टी के भीतर संरचनात्मक सुधारों, प्रभावी संचार प्रबंधन और लोगों से जुड़ने से संबंधित पहलुओं को संबोधित किया हो सकता है, लेकिन राहुल गांधी का यह दावा जमीनी हकीकत से कोसों दूर है कि भाजपा से मुकाबला करने की स्थिति में क्षेत्रीय दल नहीं हैं। दरअसल यह घोषणा भावी पार्टी अध्यक्ष की ओर से आई है, जिनके खाते में हाल के दिनों में जीत की तुलना में चुनावी हार अधिक रही है। राहुल ने शायद ही कांग्रेस को यादगार जीत दिलाई हो। ऐसे में, उनका दावा 2024 में कांग्रेस के भविष्य के लिए क्या संकेत देता है?
सबसे पहले, राहुल का बयान कांग्रेस के मुट्ठीभर वर्तमान सहयोगियों को परेशान कर सकता है और संभावित लोगों को जुड़ने से रोक सकता है। अगर वास्तव में वे ऐसी ही क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जो अभी भी उसके साथ काम करना चाहती हैं। कांग्रेस के वर्तमान सहयोगियों में द्रमुक, शिवसेना, राकांपा, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राजद शामिल हैं। ये तमिलनाडु, महाराष्ट्र और झारखंड में सरकारों में शामिल हैं। इतना ही नहीं, ये क्षेत्रीय पार्टियां यानी डीएमके, शिवसेना-एनसीपी और झामुमो के अलावा बिहार में राजद तक विपक्षी गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में हैं।
एक जूनियर सदस्य के रूप में कांग्रेस को इन राज्यों में अपने मित्र दलों और समर्थकों को आधिकारिक संरक्षण देने के लिए मुश्किल से रखा गया है। यदि कुछ भी हो, तो कांग्रेस राज्यसभा और विधान परिषद (जिन राज्यों में द्विसदनीय विधायिका है) और लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक-दो टिकट तक के लिए द्रमुक, शिवसेना, झामुमो और राजद पर निर्भर रहती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने जिन 53 सीटों पर जीत हासिल की थी, उनमें से केरल और पंजाब को छोड़कर, द्रमुक के नेतृत्व वाले तमिलनाडु गठबंधन ने कांग्रेस की झोली में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राहुल को जाहिर तौर पर इस हकीकत को ध्यान में रखने की जरूरत है।
दूसरे, कांग्रेस को भारत की सबसे पुरानी पार्टी के रूप में एक भाजपा-विरोधी गठबंधन का अगुआ रहना ठीक है, लेकिन क्या पार्टी इतिहास और भव्यता के आधार पर अपनी सर्वोच्चता का दावा कर सकती है, जो कुछ नेताओं की कल्पना में मौजूद है। इसके हालिया चुनावी रिकॉर्ड को देखें। यह स्वतंत्र रूप से केवल दो राज्यों- छत्तीसगढ़ और राजस्थान पर शासन कर रही है। 2018 में मध्य प्रदेश को भाजपा से छीनने के बाद, इसने राज्य को बमुश्किल एक साल में ही वापस भगवा पार्टी के हवाले कर खुद विपक्ष में लौट आई। पार्टी भाग्यशाली होगी यदि वह 2024 की बड़ी लड़ाई से पहले चुनाव में जाने वाले राज्यों में से कोई एक जीत जाती है। साथ ही उसे अपने सहयोगियों को बनाए रखने और नए साथियों को जोड़ने में सफलता मिलती है तो। तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने सार्वजनिक तौर पर बता दिया है कि अगर भाजपा के खिलाफ कोई मोर्चा बन भी जाए तो कांग्रेस केंद्रीय धुरी नहीं होगी। टीएमसी पश्चिम बंगाल में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है और उसने कड़े मुकाबले के बाद 2021 का विधानसभा चुनाव जीता।
राहुल ने भाजपा के खिलाफ विपक्ष की लड़ाई के केंद्र में विचारधारा को रखा और जोर देकर कहा कि कांग्रेस ही एकमात्र इकाई है, जिसके पास भाजपा को सत्ता से हटाने के वाली विचारधारा है। यह सच है कि क्षेत्रीय ताकतों की दुनिया में राजद और समाजवादी पार्टी को छोड़ दें, तो अन्य भाजपा के साथ चुनावी सहयोगी और सरकारों में भागीदार या गुप्त समर्थक के रूप में हैं। इनमें बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाईएस जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी आती हैं। लेकिन यह कहना कि भाजपा के पूर्व और मौजूदा मित्र विचारधारा से विहीन हैं, गलत है।
कांग्रेस को अभी अपने विमर्शों और अभियानों में धर्म के इस्तेमाल को लेकर अपनी आंतरिक दुविधाओं का समाधान करना बाकी है। इसकी उलझन उदयपुर की बैठक में साफ झलक रही थी। वह एक स्पष्ट आर्थिक दृष्टिकोण पेश करने की समस्या से घिरा हुई है। इसलिए कि वहां यह तय नहीं है कि क्या वह पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों का समर्थन करना जारी रखना चाहती है या समाजवाद के एक गूढ़ संस्करण पर लौटना चाहती है, जो बड़े पैमाने पर लोकलुभावनवाद पर आधारित है। फिर राहुल यह कैसे कह सकते हैं कि राज्य की किसी पार्टी के पास भाजपा को चुनौती देने के लिए वैचारिक आधार नहीं है? यदि टीएमसी भाजपा से लड़ने के लिए वैचारिक शस्त्रागार से लैस नहीं थी और अपने विश्व दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में विफल रही, तो वह पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों और उन हिंदुओं का समर्थन पाने में कैसे सफल रही, जिनके लिए भाजपा ममता बनर्जी को अभिशाप कहती थी? इसके अलावा कांग्रेस और वामपंथियों ने भी नए बने भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के साथ मिलकर उनके समर्थन को कमजोर करने के लिए कड़ी मेहनत क्यों की?
भाजपा ने जमीनी सच्चाई को कांग्रेस से ज्यादा चतुराई से पहचाना है। उदाहरण के लिए, यह आम आदमी पार्टी को हिमाचल प्रदेश में एक कठिन प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखने लगी है। खासकर जब आप ने पड़ोसी राज्य पंजाब को जीत लिया। इसलिए वह अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों पर हमला कर रही है। हिमाचल में इसी साल नवंबर में गुजरात के साथ चुनाव होना है। तेलंगाना में भाजपा टीआरएस से मुकाबला करने की रणनीति पर काम कर रही है, क्योंकि कांग्रेस हाशिये पर चली गई है। पश्चिम बंगाल में, जिसे भाजपा टीएमसी के हाथों बुरी तरह से हार गई थी, उसे फिर से हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। संक्षेप में, भाजपा अंततः कांग्रेस को एकमात्र चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए कि क्षेत्रीय पार्टियां उसे अगले आम चुनावों में कड़ी टक्कर देने के लिए तैयार लगती हैं।
लेकिन यह संदेश राहुल गांधी तक नहीं पहुंचा है।
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