प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार, 14 दिसंबर को समान नागरिक संहिता (UCC) पर अपना रुख फिर दोहराया और इस मुद्दे पर संविधान सभा के प्रमुख नेताओं डॉ. बी.आर. अंबेडकर और के.एम. मुंशी के विचारों का जिक्र किया।
लोकसभा में “संविधान के 75 वर्षों की गौरवशाली यात्रा” पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा, “संविधान सभा ने UCC पर लंबी और गहरी चर्चा की। उन्होंने फैसला किया कि भविष्य में चुनी हुई सरकार के लिए इसे लागू करना उचित होगा। बाबासाहेब अंबेडकर ने धर्म आधारित व्यक्तिगत कानूनों को समाप्त करने की जोरदार वकालत की थी।”
प्रधानमंत्री ने के.एम. मुंशी का हवाला देते हुए कहा, “मुंशी ने UCC को राष्ट्रीय एकता और आधुनिकीकरण के लिए अनिवार्य बताया था।” उन्होंने कहा कि सरकार संविधान निर्माताओं की भावना को ध्यान में रखते हुए “धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता” लागू करने के लिए पूरी ताकत लगा रही है।
समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि देश में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मामलों को एक समान कानून के तहत लाया जाए। यह मुद्दा संविधान के निर्माण के समय से ही चर्चा में है और आज भी यह एक विवादित विषय बना हुआ है। आइए जानते हैं कि अंबेडकर और मुंशी ने इस पर क्या कहा था और संविधान सभा की बहस में क्या निष्कर्ष निकला।
के.एम. मुंशी के विचार
23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में अनुच्छेद 35 (बाद में अनुच्छेद 44) पर बहस हुई, जिसे “राज्य के नीति निर्देशक तत्व” (DPSP) में शामिल किया जाना था। ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 में कहा गया था: “राज्य भारत के समस्त क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।”
इस बहस के दौरान कई सदस्यों ने UCC को लेकर आपत्ति जताई, विशेषकर धार्मिक समुदायों पर इसके प्रभाव को लेकर। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मोहम्मद इस्माइल साहिब ने कहा कि “ऐसे कानून से असंतोष उत्पन्न होगा और सामाजिक सद्भाव प्रभावित होगा।” इसी तरह, नज़ीरुद्दीन अहमद ने धार्मिक विश्वासों और व्यक्तिगत कानूनों को आपस में जुड़ा हुआ बताया।
इसके जवाब में के.एम. मुंशी ने UCC का पुरजोर समर्थन किया और इसे “अल्पसंख्यकों पर अत्याचार” कहे जाने की आलोचना की। उन्होंने कहा, “आधुनिक मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानून को इतना पवित्र नहीं माना गया है कि समान नागरिक संहिता को रोका जा सके।”
मुंशी ने हिंदू समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव का भी जिक्र किया और कहा कि “यदि उत्तराधिकार और संपत्ति के कानूनों को धर्म का हिस्सा माना जाए, तो कभी भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिल सकते। समान नागरिक संहिता से ही यह संभव है।” उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता से जोड़ा और कहा कि सभी समुदायों को संकीर्ण दृष्टिकोण छोड़कर एकीकृत राष्ट्र की ओर बढ़ना चाहिए। उन्होंने कहा, “धर्म को केवल धार्मिक क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिए और जीवन के अन्य पहलुओं को एक समान और संगठित कानून से नियंत्रित करना चाहिए।”
डॉ. बी.आर. अंबेडकर का रुख
संविधान के निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने भी UCC को DPSP में शामिल करने का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि भारत जैसे विशाल देश में पहले से ही भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता जैसे एक समान कानून लागू हैं।
अंबेडकर ने व्यक्तिगत कानूनों को अपरिवर्तनीय मानने की आलोचना की और कहा कि भारत में शरिया कानून भी हर जगह समान रूप से लागू नहीं था। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में उत्तराधिकार कानूनों के लिए हिंदू कानून का पालन किया जाता था।
उन्होंने आश्वासन दिया कि UCC को तुरंत लागू करने का कोई दबाव नहीं है और कहा, “राज्य केवल कानून बनाने का अधिकार मांग रहा है… सरकार की शक्तियों का उपयोग विभिन्न समुदायों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा।” उन्होंने समाज में असमानताओं को दूर करने के लिए UCC को आवश्यक बताया और कहा कि “हम यह स्वतंत्रता इसलिए प्राप्त कर रहे हैं ताकि हम अपने सामाजिक ढांचे में सुधार कर सकें।”
संविधान सभा में अंततः ड्राफ्ट अनुच्छेद 35 पारित हुआ और इसे अनुच्छेद 44 के रूप में शामिल किया गया। अनुच्छेद 44 में कहा गया है: “राज्य भारत के समस्त क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।”
मामले के विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफा के अनुसार, अनुच्छेद 44 की भाषा अन्य नीति निर्देशक तत्वों से अलग है। जहां अन्य अनुच्छेदों में “राज्य विशेष रूप से अपनी नीति निर्देशित करेगा” जैसे शब्दों का प्रयोग है, वहीं अनुच्छेद 44 में केवल “प्रयास करेगा” कहा गया है, जो राज्य पर अपेक्षाकृत कम दायित्व डालता है।
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