कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शनिवार को नामांकन दाखिल करने के साथ शुरू हो गई। इस बीच की घटनाओं ने कई महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं, जिनका असर पार्टी के नेतृत्व पर पड़ेगा।
इस चुनाव में यकीनन गांधी परिवार की ही जीत होगी, क्योंकि पार्टी अभी भी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। वैसे सांकेतिक प्रारंभिक बगावत के तौर पर आंतरिक सुधारों की जरूरत बताते हुए सोनिया गांधी को पत्र (the incipient revolt signalled by the letter the G-23 group sent off to Sonia Gandhi) लिखने वाले समूह यानी G-23 के अब तक कम से कम दो हस्ताक्षरकर्ता (signatories) -कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद पार्टी छोड़ चुके हैं। यह एक संकेत था कि पहले की तरह परिवार का प्रभुत्व कायम नहीं (First Family’s authority was not absolute as in the past) रह गया है। आखिरकार गांधी परिवार ने पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव करा लेने को कहा। साथ ही इस बात पर जोर दिया कि दरबारियों के शोर मचाने के बावजूद उनमें से कोई भी- सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा चुनाव नहीं लड़ेंगे (सोनिया गांधी बेटे, राहुल गांधी द्वारा पद छोड़ने के बाद से केवल अंतरिम अध्यक्ष हैं)। यह गांधी परिवार के हितों की रक्षा के लिए संगठन को दशकों से जकड़न (straitjacket) से मुक्त करने की जरूरत पर मुहर थी।
दूसरा, कांग्रेस की पारंपरिक समझ यह है कि अगला निर्वाचित अध्यक्ष दरअसल कहने भर (proxy office-holder) का होगा। यूपीए के सत्ता में रहने के 10 वर्षों शासन काल को याद करते हुए अनुमान ठीक उसी तरह है, जैसे सोनिया द्वारा “नामित” प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनकी छाया की तरह कार्य किया (हालांकि यह पूरी तरह से सच नहीं है)। फिर भी धारणा यही है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष भी गांधी परिवार के विवेक और खुशी के अनुसार पद धारण और काम (Congress president too shall hold office and work according to the Gandhis’ discretion and pleasure) करेंगे।
तीसरी बात चुनाव से पहले की अस्पष्टता से निकलती है। सोनिया ने स्पष्ट किया कि वह “तटस्थ” हैं यानी किसी की उम्मीदवारी का न तो समर्थन करेंगी और न ही इसमें हस्तक्षेप करेंगी। दरअसल तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर ने अध्यक्ष चुनाव लड़ने की इच्छा के साथ उनसे मुलाकात की थी। सोनिया गांधी ने जी-23 का सदस्य होने के बावजूद उनकी बात सुनी।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अब आधिकारिक उम्मीदवार की तरह हो गए हैं। वैसे इससे पहले सोनिया ने कथित तौर पर उनको तब झटका दे दिया, जब चुनाव पर चर्चा करने के लिए हुई बैठक में उन्होंने चतुराई से इस विषय पर चर्चा की कि जयपुर में उनकी जगह कौन लेगा। उन्हें साफ-साफ कह दिया गया कि यह उनकी समस्या नहीं है। दरअसल गहलोत जिन सचिन पायलट को अपने हिसाब से निपटा चुके थे, उनके लिए राजस्थान की गद्दी नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंत तक राहुल से ही अध्यक्ष बनने की गुहार लगाते रहे।
राहुल गांधी ने अटकलों पर विराम लगाते हुए कहा कि चुनाव में उतरने से मना कर दिया। उन्होंने यह उम्मीद भी कह दिया कि ‘उदयपुर चिंतन शिविर’ में तय हुई ‘एक व्यक्ति, एक पद’ की व्यवस्था पर पूरी तरह अमल किया जाएगा। इसका अर्थ था कि गहलोत को जयपुर का सिंहासन छोड़ना होगा, चाहे जो भी उसका उत्तराधिकारी हो।
बहरहाल, चल रही कहानी जल्द ही एक निष्कर्ष पर पहुंच जाएगी। लेकिन इस राजनीतिक रंगमंच के नायक कौन हैं?
*गांधी परिवार: निश्चित रूप से। इस परिवार के बिना शुरुआत, बीच और अंत की कल्पना करना असंभव है, चाहे वे दखल को कम करना चाहते हों या नहीं। कांग्रेस के कामकाज को “अधिक लोकतांत्रिक और पारदर्शी” बनाने का उनका इरादा होगा, जो इसके ढांचे के ढलवां ढांचे को देखते हुए अभी अवास्तविक (which seems unreal right now given the cast-iron framework of its structures) लगता है। दरअसल हम इस तथ्य के बारे में कभी नहीं जान पाएंगे कि क्या उन्होंने वास्तव में खुद को दूर कर लिया है। इसलिए कि संगठन और कार्यकर्ता जो इसे बनाते हैं- एआईसीसी प्रतिनिधि जो मतदाता बनाते हैं – वे कुल मिलाकर गांधी परिवार और उनके चुने हुए लोगों के ही करीबी हैं।
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा कोई संयोग नहीं थी। यह चुनावों में कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के नेता के रूप में उनकी स्थिति को मजबूत करता है, जो भाजपा द्वारा तैयार किए गए मॉडल की एक धुंधली प्रतिकृति (a faint replica) है। भाजपा में पीएम नरेंद्र मोदी चेहरा हैं जबकि जेपी नड्डा संगठन देखते हैं। हालांकि, भाजपा में विभाजन इतना सीधा भी नहीं है, क्योंकि अमित शाह के माध्यम से मोदी संगठन को भी नियंत्रित करते हैं। इसी तरह, राहुल और एक हद तक प्रियंका गांधी वाड्रा अपने भरोसेमंद महासचिव केसी वेणुगोपाल के माध्यम से संगठन पर नजर रखेंगे। वैसे भी, बिहार के मदन मोहन झा और महाराष्ट्र के बालासाहेब थोराट सहित कई पीसीसी प्रमुख अपने पद के लिए गांधी परिवार के प्रति आभारी हैं। यही कारण है कि हर मौके पर परिवार के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करना चाहते हैं।
*अशोक गहलोत: उन्हें इंदिरा गांधी ने खोजा था, जो संगठनात्मक तंत्र को समझने की उनकी सहज क्षमता से प्रभावित थीं। वह तब से गांधी परिवार के वफादार रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का हर वफादार सबसे पहले एक कट्टर राजनेता है। गहलोत कोई अपवाद नहीं हैं और राजस्थान की किसी भी प्रमुख जाति से संबंधित नहीं होने के बावजूद लंबे समय तक राज्य की गद्दी पर कायम रहे। पायलट के आने से गहलोत का दबदबा गड़बड़ा गया। उनकी तरह पायलट भी अन्य पिछड़े वर्ग से हैं। लेकिन गहलोत के विपरीत पायलट अधिक प्रभावशाली उप-जातियों में से एक गुर्जर का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो काफी निर्वाचन क्षेत्रों में असरदार हैं। क्या गहलोत को अध्यक्ष चुना जाना चाहिए, क्योंकि तब उनके बेटे वैभव का भविष्य अनिश्चित हो सकता है।
*सचिन पायलट: गहलोत सरकार को अस्थिर करने के लिए कथित रूप से तख्तापलट की उनकी कोशिश ने कांग्रेस के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर संदेह पैदा कर दिया है। पार्टी को संदेह था कि उन्हें भाजपा ने उकसाया। गहलोत ने इस प्रयास को विफल कर दिया और “हाईकमान” के साथ करीबी संबंध बनाए। पायलट ने डिप्टी सीएम और पीसीसी प्रमुख के रूप में अपना पद खो दिया और हाशिये पर चले गए। गहलोत का राजस्थान से बाहर निकलना पायलट के लिए उम्मीद की किरण हो सकती है।
*शशि थरूर: बड़े चुनावों के अनुभवी हैं। उन्होंने बान की-मून को भी संयुक्त राष्ट्र के अध्यक्ष पद के लिए चुनौती दी थी और हार गए थे। फिर भी वह अच्छी टक्कर देने के लिए तैयार हैं। वह तिरुवनंतपुरम से तीसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं। हालांकि 2014 का दूसरा चुनाव उनके लिए विशेष रूप से कठिन था, फिर भी वह जीत गए। अपनी शहरी छवि के बावजूद वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के ग्रामीण लोगों के साथ भी अच्छी तरह से संबंध बनाए रखने के लिए जाने जाते हैं। जहां तक कांग्रेस की बात है तो पीएम रहते हुए मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में थरूर को एक जूनियर मंत्री ही बनाया गया। वह कांग्रेस कार्यसमिति या केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य नहीं (Congress Working Committee or the Central Election Committee) हैं। यह बताता है कि वह अभी भी पार्टी की अग्रिम कतार में नहीं हैं। थरूर ने खुद को जी-23 से अलग नहीं किया है। इसलिए, अगर उन्हें पीछे से आकर ऊपरी पायदान तक की छलांग लगाने की उम्मीद है, तो यह आसान नहीं होगा।
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