इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक हज यात्रा मुस्लिमों के विश्वास का केंद्र रहा है। हर मुसलमान मानता है कि उसे अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार जरूर हज यात्रा पर जाना चाहिए। अकेले गुजरात में हर साल 25,000 से अधिक लोग इस पवित्र यात्रा में शामिल होते हैं। बता दें कि, ब्रिटिश शासन 1932 से ही मुसलमानों को सऊदी अरब स्थित मक्का की हज यात्रा के लिए सब्सिडी दी जाती रही थी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2013-14 के लिए 691 करोड़ रुपये, 2012-13 में 836 करोड़ रुपये, 2016 में 408 करोड़ रुपये की हज सब्सिडी दी गई। इसमें एयर इंडिया में रियायती हवाई किराया, आवास, भोजन, चिकित्सा देखभाल और अन्य सुविधाएं भी शामिल हैं।
2018 में ही अल्पसंख्यकों के उत्थान, खासकर लड़कियों की शिक्षा का मार्ग खोलने के लिए 85 साल पुरानी नीति को खत्म कर दिया गया था। यहां तक कि 2012 के कांग्रेस सरकार में सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने हज सब्सिडी को खत्म करने का निर्देश दिया था। इधर केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा हज यात्रा पर सब्सिडी समाप्त करने के तीन साल हो चुके हैं। तब कहा गया था कि सब्सिडी की रकम अल्पसंख्यक लड़कियों की शिक्षा पर खर्च की जाएगी। लेकिन क्या तब के उस ऐतिहासिक फैसले ने अल्पसंख्यक लड़कियों की किस्मत को वाकई खोल दिया है? हमने इसका पता लगाने के लिए मामले के जानकारों से बात की, जिसे आप भी जानिये-
इतिहासकार रिजवान कादरी ने कहा, “पिछले तीन वर्षों में लड़कियों के शैक्षिक सशक्तीकरण और कल्याण के लिए एक भी रुपया नहीं मिला है। इसके विपरीत स्कूल छोड़ने वालों का अनुपात निश्चित रूप से बढ़ा है।”
इस बात की पुष्टि करते हुए छिपा गर्ल्स हाई स्कूल- जहां 35 वर्षों से अल्पसंख्यक लड़कियां पढ़ रही हैं, की प्रिंसिपल अंजुम रिज़वी ने कहा, “10वीं के बाद स्कूलों से 20% लड़कियां और 12वीं के बाद 75% लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। हमारे स्कूल में 1,100 लड़कियां पढ़ती हैं और वे जिस परिवार से आती हैं, उनके पास आर्थिक समस्या है। हमारे स्कूल में हम 700 रुपये प्रति वर्ष लेते हैं, लेकिन यह भी कई परिवारों के लिए बहुत अधिक है। जहां तक सरकारी सहायता की बात है, तो हमें एक पैसा भी नहीं मिला है। हम इन स्कूलों को चलाना चाहते हैं और इसलिए हमें जो भी मदद मिलती है, वह हमारे समुदाय से ही आती है। अल्पसंख्यक स्कूल कठिन समय से गुजर रहे हैं और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं है।”
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM ), गुजरात के प्रवक्ता शमशाद पठान ने कहा, “एक समुदाय के रूप में हम सरकार के फैसले का समर्थन करते हैं, लेकिन यह कदम किसी भी कल्याणकारी कार्य में तब्दील नहीं हुआ, बल्कि हमारे समुदाय को दरकिनार कर दिया गया। सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए दिए गए फंड की कोई जवाबदेही तय नहीं की। यदि कुंभ मेला और अमरनाथ यात्रा के तीर्थयात्रियों की मदद की जाती है, तो हमारी क्यों नहीं? भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और धर्म के आधार पर भेदभाव अनुचित है। शिक्षा पूरे समुदाय को सशक्त बना सकती है और जब हम शिक्षा (विशेषकर लड़कियों की शिक्षा) से चूक जाते हैं तो हम पूरे समुदाय की प्रगति से चूक जाते हैं”।
आंकड़ों के जवाबदेही की कमी
जमालपुर-खड़िया निर्वाचन क्षेत्र के विधायक इमरान खेड़ावाला ने कहा, “अल्पसंख्यक लड़कियों की शिक्षा पर एक रुपया भी खर्च नहीं करके सरकार क्या संदेश देना चाहती है? इस कदम पर मैंने विधानसभा में यह सवाल उठाया था। लेकिन केंद्र सरकार के पास अल्पसंख्यक लड़कियों की शिक्षा पर अब तक खर्च की जाने वाली राशि और इन लड़कियों की शिक्षा के लिए आवंटित कुल राशि का अब तक कोई डेटा ही नहीं है, कोई जवाबदेही नहीं है। सरकार को सिर्फ बात करनी है”। ऊपर से और भी परेशानी बढ़ाने के लिए गुजरात माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक (संशोधन) अधिनियम, 2021 में संशोधन किया गया है, जो अल्पसंख्यक स्कूलों के अपने स्कूलों की निगरानी और संचालन के अधिकार को छीन लेता है।
“जुहापुरा या वटवा जैसे अल्पसंख्यक क्षेत्रों में सरकार के पास कई भू-भाग हैं जो अल्पसंख्यक स्कूलों के निर्माण और अल्पसंख्यक लड़कियों की मदद के लिए रखे गए थे लेकिन आज तक जमीन का प्लॉट जस का तस है। उस पर कोई काम नहीं हुआ है। इन क्षेत्रों के गरीब बच्चों को शिक्षा की जरूरत है, लेकिन उन्हें केवल अपने अधूरे सपनों के प्रतीक के रूप में अनुपयोगी जमीन मिलती है।” खेड़ावाला ने बताया।
लाभ सिर्फ कागज पर
अहमदाबाद में लगभग 25 मुस्लिम अल्पसंख्यक स्कूल हैं लेकिन वे सभी अपने दम पर चल रहे हैं, सामुदायिक समर्थन से सरकार ने उनका बिल्कुल भी समर्थन नहीं किया है। साबिर काबलीवाला, एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) के गुजरात राज्य अध्यक्ष कहते हैं, “यह हज सब्सिडी हो या मुस्लिम अल्पसंख्यक लड़कियों के लिए अन्य लाभार्थी योजनाएं; कागजों पर सरकार के पास कई योजनाएं हैं लेकिन लोगों तक कुछ नहीं पहुंचता है। लोगों को इन योजनाओं के बारे में जानकारी तक नहीं है, इसके अलावा उनकी अधिकांश योजनाओं का क्रियान्वयन भी नहीं हो पाता है।”