जो लोग महामारी से निपटने की दिशा में सरकार की अक्षमता पर उनके सवाल को केवल सरकार को बदनाम करने की एक कोशिश कहकर नकार रहे हैं, असल में वे ट्रोल और पाखंडी हैं, जो उनके काम से परिचित नहीं हैं, जिसमें हाथरस गिरोह पर उसकी निराशा और हाथरस सामूहिक दुष्कर्म, दलितों की पीट-पीट कर हुई हत्या, मुंबई की आरे कॉलोनी में पेड़ों की कटाई समेत कई अन्य परेशान करने वाली घटनाओं पर उसकी क्रांतिकारी काव्य अभिव्यक्ति शामिल हैं।
गुजराती भारत पर राज करते हैं। इसे पसंद करें या नापसंद, पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह, अरबपति मुकेश अंबानी से लेकर गौतम अडानी तक, सभी गुजराती हैं।
लेकिन आज सौराष्ट्र के एक अपरिचित शहर की एक शालीन गृहिणी राष्ट्र की भावनाओं की सामूहिक आवाज बनकर सामने आ रही है।
काठियावाड़ के अमरेली शहर की रहने वाली शर्मीली, अपने में सिमटी रहने वाली और अंतर्मुखी गृहिणी और कभी-कभी कविताएं लिखने वाली पारुल खक्कर ने अपनी क्रांतिकारी रचना ‘शव वाहिनी गंगा’ से देश की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है। लेकिन यह पहली बार नहीं है। उस पर ध्यान अब दिया गया है, यह अलग बात है, लेकिन हाथरस सामूहिक दुष्कर्म, दलित लिंचिंग और विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के मामलों में व्यवस्था पर उनके क्रूर काव्यात्मक हमले इससे भी ज्यादा धारदार रहे हैं। वाइब्स ऑफ इंडिया (वीओआई) पर इनकी झलक मिल सकती है। अब पारुल ने फिर से कलम से कागज पर लिख दिया है, ‘मेरे पास तुम्हारे सवालों के हजार जवाब हैं, लेकिन कोई जवाब नहीं दिया जाएगा।’ यह वह एक आत्मविश्वास, एक दृढ़ विश्वास और मुखरता के साथ लिखती है, जो उसके संकोची स्वभाव के विपरीत है। वीओआई कह सकता है कि पारुल खक्कर चुप हो गई हैं, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हें धमकाया गया है (अब तक 32000 से अधिक गालियां, सामूहिक दुष्कर्म और मौत की धमकी के साथ)। पारुल का मानना है कि उनकी कविताएं ही उनका व्यक्तित्व हैं। और उनकी कविता उनके व्यक्तिगत जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल को लॉक कर दिया है, ट्रोल करने वाले उपद्रवियों से बचने का यह एक बुद्धिमान तरीका है, लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए भी किया है, क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसकी रचनात्मकता इन ट्रोल से प्रभावित हो।पारुल खक्कर किसी के दबाव में नहीं आने वाली हैं। बल्कि, अपने विरोधियों से बेपरवाह होकर, वह न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और गुजरात में भी ‘सिस्टम’, शासन और सत्ता के दुरुपयोग को लेकर आवाज उठा रही हैं।
नदी में कोविड-19 प्रभावितों के तैरते शवों की तस्वीरों से उपजी ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता के बाद कथित राष्ट्रवादियों की कुख्यात ट्रोल सेना उन पर लगातार हमला कर रही है और उन पर अपने देश की प्रतिष्ठा को बर्बाद करने वाली ‘साहित्यिक नक्सल’ का लेबल चस्पा कर दिया गया है, लेकिन खक्कर पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। जिस समाज में वह रहती है, वहां होने वाली किसी भी गलत बात के लिए आवाज उठाना उनका धर्म है और यह दृढ़ संकल्प के साथ इस धर्म का निर्वहन कर रही हैं। ‘शव वाहिनी गंगा’ को देश की आवाज बन गई है और 14 से अधिक भाषाओं में अनुवादित हुई है. जिन परिवारों के पास अंत्येष्टि के लिए संसाधन नहीं थे, उन परिवारों द्वारा मृतकों को गंगा में तैरता छोड़ देने की व्यथा को लिखने से बहुत पहले, खक्कर ने हाथरस बलात्कार पीडि़ता के दर्द को आवाज दी थी। यह भी उत्तर प्रदेश का ही मामला था। परिवार की भावनाओं को समझे बिना पीडि़ता का शरीर जल्दबाजी में पुलिस द्वारा आधी रात को जबरदस्ती जला दिया गया था। टेलीविजन पर विचलित करने वाले दृश्यों और रिपोर्टों को देखकर उन्होंने पुलिस, राजनेताओं, सरकार और समाज से अपनी कविता में सवाल किया। इस कविता को उन्होंने कोई शीर्षक नहीं दिया था। उनका कहना था, ‘कुछ दर्द सभी शीर्षक एक साथ रख देने पर भी व्यक्त नहीं होते।’
गुजराती में लिखी कविता का हिंदी भाव :
ताकत का गलत इस्तेमाल करो, कानून को इशारों पर नचाओ
लाश जलाओ
कपड़े फाड़ो, लाश को नोचो, फिर लाश को ढंक दो
लाश जलाओ
अपने भाषणों से देश को भ्रमित करो और करोड़ो वादे करो
ओह, खिलाड़ी, लाश जलाओ
इससे पहले कि गांव जले, तत्काल सच छुपाकर
लाश जलाओ
अगर कुछ लोग जागेंगे और सच को जानेंगे
तो कई और लोग बातें घुमाकर सबको सुला देंगे
लाश जलाओ
आज से हर मनीषा का नाम निर्भया कर दो
लाश जलाओ
लेकिन ‘शव वाहिनी गंगा’ से खक्कर की कविता कुछ लोगों के लिए असहनीय हो गई। उनके कुछ संरक्षक ही शत्रु बन गए और उनकी कविता को रद्दी के टुकड़े कहकर खारिज करने की कोशिश करने लगे। यह कविता वायरल होने के कुछ ही घंटों के भीतर दुष्कर्म और मौत की धमकियों के लिए कुख्यात भाजपा आईटी सेल की ओर से 32,000 से अधिक भद्दी टिप्पणियों की बाढ़ के बाद, खक्कर को अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पारुल खक्कर मौके से भाग गई हैं। 2015 में कैंसर के कारण दम तोड़ देने वाले उनके पिता रसिकभाई करिया के अंतिम शब्द थे, ‘कभी लिखना मत छोड़ो और स्वयं को मत बदलो।’ यही शब्द उनके मार्गदर्शक बन गए हैं। उनके पिता की सलाह थी कि तुम जो लिखोगी, उसी से एक दिन प्रसिद्धी मिलेगी, इसे कभी मत छोडऩा। वह पिता के अंतिम संस्कार में शामिल हुईं और अपने भाई के साथ पिता की चिता को अग्नि दी। उनके समाज के नियमों के अनुसार महिलाएं श्मशान घाट नहीं जाती हैं।
लेकिन नियमों को तोड़ते हुए, पारुल भले ही एक सामान्य गुजराती गृहणी की तरह रहती हैं, लेकिन प्रेशर कुकर की सीटी और फुल्कों के बचने के बीच, कविता अपना रास्ता बना लेती है। वह कहती हैं, ‘मैं बता नहीं सकती कि कविता मेरे लिए क्या है। यह मेरा मौन समर्थन है, मेरी सांत्वना है। यह एकमात्र माध्यम है जिससे मैं अपनी भावनाओं, अपने दर्द, अपना सब कुछ व्यक्त कर सकती हूं।’
जो लोग महामारी से निपटने की दिशा में सरकार की अक्षमता पर उनके सवाल को केवल सरकार को बदनाम करने की एक कोशिश कहकर नकार रहे हैं, असल में वे उनके काम से परिचित नहीं हैं। हाथरस दुष्कर्म पीडि़ता की दुर्दशा के अलावा, उन्होंने तब भी अपनी कलम चलाई थी, जब महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार ने अपनी मेट्रो-रेल परियोजना के लिए संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान से सटे मुंबई उपनगर – आरे कॉलोनी में पेड़ों को निर्दयता से काटने का प्रस्ताव रखा था।
उसका हिंदी रूपांतरण कुछ ऐसा है :
एक ही रात में सारा जंगल वीरान हो गया।
आओ गाते हैं मर्सिया
राजा, तुम्हारे सिपाहियों ने उसे मार डाला
आओ गाते हैं मर्सिया
जब मध्य प्रदेश के गुना में एक दलित दंपति ने आत्महत्या कर ली थी, तब तो खक्कर ने कविता के जरिये उनके रोते हुए बच्चों का दर्द व्यक्त किया था, जिसमें पुलिस, सरकार और ठेकेदार की आलोचना की गई थी। इसके बाद, लॉकडाउन के पहले चरण में मजदूरों के रिवर्स माइग्रेशन के दौरान, उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर मृत पड़ी अपनी मां को जगाने की कोशिश कर रहे एक शिशु की माॢमक दुर्दशा पर लिखा।इसी तरह, टीवी पर तस्वीरें देखने से पहले सुबह अखबार पढऩे की उनकी आदत ने ही उनका ध्यान गंगा में तैरती हुई लाशों की खबरों की ओर खींचा और उनके भीतर के भक्त वैष्णव के मन से व्यथा में कविता बन गई।
नतीजा यह हुआ कि गुजरात साहित्य अकादमी, जिसने कुछ समय पहले खक्कर को राज्य की अगली सबसे बड़ी कवियित्री कहा था, उसने रातों-रात उन्हेंं साहित्यिक नक्सली घोषित कर दिया। उनकी आधिकारिक पत्रिका ने कड़े शब्दों में उनकी बुराई की। दूसरी ओर, हजार लेखकों के समूह गुजराती लेखक मंडल ने खक्कर के साथ खड़े होने का विकल्प चुना है। उन्होंने रेखांकित किया है कि लोकतंत्र में कोई व्यक्ति अपने भावों को प्रदर्शित करने के लिए स्वतंत्र है। लेखक मंडल की प्रेसिडेंट और अपने समय की क्रांतिकारी मनीषी जानी कहती हैं, ‘यही लोकतंत्र है।’ मनीषी ने नव निर्माण आंदोलन का नेतृत्व किया था, जो आपातकाल से पहले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए किया गया एक क्रांतिकारी आंदोलन था और तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को पद छोडऩा पड़ा था। जय प्रकाश नारायण इन आंदोलनजीवियों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बिना शर्त समर्थन दिया था और आंदोलन का मार्गदर्शन किया था। कई युवा नेताओं के विपरीत, जो राजनीति में पूर्णकालिक रूप से सक्रिय हो गए, मनीषी ने सामाजिक न्याय पर विशेष ध्यान देते हुए एक लेखक और डॉक्यमेंटरी मेकर के रूप में अपनी रचनात्मकता को आगे बढ़ाने का फैसला किया।
हालांकि, समय बदल गया है। नए भारत में आलोचना खतरनाक और कभी-कभी जानलेवा भी साबित होती है। सरकार की किसी भी आलोचना को राजद्रोह माना जा सकता है। एक भाजपा नेता ने गुजरात सरकार को बहुत कमजोर माना है, क्योंकि वह खक्कर को उनके शब्दों के लिए जेल भेजने में विफल रही है। उन्होंने वीओआई से जोर देकर कहा कि ‘वह एक राष्ट्र विरोधी है।’ शुक्र है कि विजय रूपाणी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को ऐसा नहीं लगता।
इस बीच, खक्कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनंद ले रही हैं। एक भाजपा विधायक ने कहा, ‘यह यूपी, बिहार या राजस्थान होता, तो अब तक उनकी हत्या हो गई होती।’ वास्तव में, वाइब्स ऑफ इंडिया बताना चाहता है कि पारुल खक्कर उन्हें कहे गए अपशब्दों से दुखी हैं, लेकिन इस बात से खुश भी हैं कि वह सुरक्षित हैं। ‘क्योंकि यह गुजरात है।’
उनकी हालिया रचना ‘ तुम नहीं बोलोगे’ भारत के अधिकांश हिस्सों में प्रचलित सत्तावादी दृष्टिकोण पर आधारित है। यह उस निराशाजनक समय को दर्शाता है, जिससे हम गुजर रहे हैं। इस कविता का अनुवाद विख्यात बहुभाषी लेखक और कवि सलिल त्रिपाठी ने भारतीय सांस्कृतिक मंच के लिए किया है।
इसके बोल हैं :
तुम नहीं बोलोगे
दर्द असहनीय होगा, लेकिन तुम नहीं बोलोगे;
तुम्हारा दिल चीखेगा भी तो तुम नहीं बोलोगे
वे तुम्हें अपनी जीभ काटने और उसे नजर से दूर रखने के लिए बाध्य करेंगे
और भी बहुत से लोग आपकी जय-जयकार करेंगे, लेकिन तुम नहीं बोलोगे
इतिहास की उन मोटी किताबों को खोलें और प्रतिबिंबित करें:
जो बोलते हैं, उन्हेंं गोली मार दी गई, इसलिए तुम नहीं बोलोगे
हो सकता है कि कई बार बोलने से आपको खुशी मिले,
लेकिन न बोलने में ही समझदारी है, इसलिए तुम नहीं बोलोगे
आपके वंशजों के पुराने नियम कहते हैं: मौन कितना सुनहरा है
मशाल-धारकों ने कहा है, और आप नहीं बोलेंगे
एक नहीं, कुछ नहीं, बल्कि लाखों और आपके साथ खड़े होंगे
हालांकि, उनकी हालत याद रखें; तुम नहीं बोलोगे
जो लोग सुन नहीं सकते हैं, सच की बात करते हैं
और तुम्हें दोहराने के लिए कहते हैं; फिर भी तुम नहीं बोलोगे
लेकिन पारुल लिखती रहेंगी।
उनकी एक और रचना :
बंगले की नींव दरक गई है। आप कब तक इस पर प्लास्टर करते रहेंगे? सरकार, अच्छे दिखने वाले बंगले को मरम्मत की जरूरत है..
उसकी दरारों को छिपाना बंद करो, उसकी ढहती इमारत को ढकना बंद करो..
सच को स्वीकार करो,
बंगले को मरम्मत की जरूरत है
(गुजराती से अनुवादित)
मैंने हार नहीं मानी
लेकिन मैं तुम्हें जवाब नहीं दूंगी
इन जख्मों पर मरहम नहीं लगाऊंगी, इन्हें उभरने दूंगी,
मैं रुकूंगी लेकिन मैं किसी को जवाब नहीं दूंगी।
उत्तर न देना अपने आप में एक उत्तर है
मेरे पास आपके सवालों के हजार जवाब हैं
लेकिन कोई जवाब नहीं दिया जाएगा।
समय आपके सवालों का जवाब देगा।
अगर हम एक को मारते हैं, तो हमारे पीछे 10 और रावण होंगे,
मेरे पास तलवार है
लेकिन मैं किसी को जवाब नहीं दूंगी।
लेकिन हां, पारुल खक्कर लिखती रहेंगी