नई दिल्लीः संसद की स्थायी समितियों (Parliamentary Committees) में बड़ा बदलाव किया गया है। कांग्रेस से गृह (Home) और आईटी पर संसदीय पैनल की अध्यक्षता ले ली गई है। इतना ही नहीं, लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) को भी किसी पैनल की अध्यक्षता नहीं दी गई है। इसके अलावा स्थायी समितियों की संख्या को भी कम कर दिया गया है। अब 24 के बजाय सिर्फ 22 स्थायी समितियां होंगी। इनमें लोकसभा की 15 और राज्यसभा की 7 समितियां रहेंगी।
बता दें कि मंगलवार को हुए इस बदलाव में समाजवादी पार्टी (SP) को भी किसी भी स्थायी समिति की अध्यक्षता नहीं दी गई है। बदलाव में कांग्रेस के जयराम रमेश को विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर संसदीय स्थायी समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। बदलाव से पहले सिर्फ एक खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की स्थायी समिति की अध्यक्षता करने वाली तृणमूल कांग्रेस से वह भी ले लिया गया है।
जहां तक बीजेपी की बात है तो नई बनी संसदीय समितियों में बिहार से पार्टी के राज्यसभा सांसद विवेक ठाकुर को शिक्षा, महिला, बाल-युवा और खेल संबंधी संसदीय स्थायी समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। लोकसभा सांसद राधा मोहन सिंह को रेलवे की संसदीय स्थायी समिति दी गई है। उत्तर प्रदेश से बीजेपी के राज्यसभा सांसद बृजलाल को गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति का अध्यक्ष बनाया गया है।
संसद की समितियां करती क्या हैं?
विधायी कार्य (Legislative business) तब शुरू होता है जब संसद के किसी भी सदन में बिल पेश किया जाता है। लेकिन कानून बनाने की प्रक्रिया अक्सर जटिल होती है। संसद के पास चर्चा के लिए समय कम रहता है। इसलिए संसदीय समिति बनाई जाती है, जो सांसदों का एक पैनल होता है। इसे सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित किया जाता है या अध्यक्ष द्वारा नामित किया जाता है। समितियां सदन के अध्यक्ष के निर्देशन में काम करती हैं। वह अपनी सिफारिशें सदन या अध्यक्ष को प्रस्तुत करती हैं।
संसदीय समितियों की जड़ ब्रिटिश संसद में है। वे अनुच्छेद (Article )-105 से अधिकार हासिल करती हैं, जो सांसदों के विशेषाधिकारों से संबंधित है। इसी तरह अनुच्छेद 118 है, जो संसद को अपनी प्रक्रिया और व्यवसाय के संचालन को विनियमित करने (regulate its procedure and conduct of business) के लिए नियम बनाने का अधिकार देता है।
संसद की विभिन्न समितियां क्या हैं?
मोटे तौर पर संसदीय समितियों को वित्तीय समितियों, विभागीय रूप से संबंधित (Departmentally Related) स्थायी समितियों, अन्य संसदीय स्थायी समितियों और तदर्थ (Ad hoc) समितियों में रखा जा सकता है।
वित्तीय समितियों में प्राक्कलन (Estimates) समिति, लोक लेखा (Public Accounts) समिति और सार्वजनिक उपक्रम (Public Undertakings) समिति शामिल हैं। इन समितियों का गठन 1950 में किया गया था।
जब शिवराज पाटिल लोकसभा के अध्यक्ष थे, तब बजटीय प्रस्तावों और महत्वपूर्ण सरकारी नीतियों की जांच करने के लिए 1993 में विभागीय रूप से संबंधित स्थायी समितियां अस्तित्व में आईं। इसका उद्देश्य संसदीय जांच को बढ़ाना और सदस्यों को अधिक समय देते हुए महत्वपूर्ण कानूनों की जांच में व्यापक भूमिका देना था। बाद में समितियों की संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से प्रत्येक समिति में 31 सदस्य हैं- 21 लोकसभा से और 10 राज्यसभा से।
तदर्थ (Ad hoc) समितियां एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए बनाई जाती हैं। उन्हें सौंपे गए कार्य को पूरा करने और सदन को रिपोर्ट सौंपने के बाद उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रमुख तदर्थ समितियां दरअसल विधेयकों पर प्रवर और संयुक्त समितियां (Select and Joint Committees on Bills) हैं। रेलवे कन्वेंशन कमेटी, संसद भवन परिसर में खाद्य प्रबंधन (Food Management) और सुरक्षा समिति आदि जैसी समितियां भी तदर्थ समितियों की श्रेणी में आती हैं।
संसद किसी विषय या बिल की विस्तृत जांच के लिए दोनों सदनों के सदस्यों के साथ एक विशेष उद्देश्य के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन भी कर सकती है। साथ ही, दोनों सदनों में से कोई भी अपने सदस्यों के साथ एक प्रवर समिति (Select Committee) भी बना सकती है। जेपीसी और प्रवर समितियों की अध्यक्षता आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के सांसद करते हैं, और रिपोर्ट जमा करने के बाद उन्हें भंग कर दिया जाता है।
संसदीय समितियों में चर्चा/बहस संसद की चर्चाओं से कैसे अलग हैं?
किसी बिल पर बोलने का समय सदन में पार्टी के आकार के अनुसार मिलता है। सांसदों को अक्सर संसद में अपने विचार रखने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है, भले ही वे इस विषय के विशेषज्ञ हों। समितियां छोटे समूह हैं, जिनके समय पर अपेक्षाकृत कम मांग होती है। इन बैठकों में प्रत्येक सांसद को चर्चा में योगदान देने का मौका और समय मिलता है। संसद में एक वर्ष में केवल लगभग 100 बैठकें होती हैं; जबकि समिति की बैठकें संसद के कैलेंडर से अलग होती हैं।
इसके अलावा, क्योंकि चर्चा गोपनीय और बंद कमरे में होती है, इसलिए पार्टी संबद्धता (party affiliations) आमतौर पर सांसदों के मन की बात कहने के रास्ते में नहीं आती है, जो वे संसद में करने में असमर्थ होते हैं, जिनकी कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जाता है। इसे उनके चुनाव क्षेत्रों में देखा भी जाता है। नतीजतन, कई सांसद मानते हैं कि समितियों के अंदर “वास्तविक चर्चा” होती है।
समितियां कई मंत्रालयों के साथ मिलकर काम करती हैं, और अंतर-मंत्रालयी समन्वय (inter-ministerial coordination) की सुविधा देती हैं। जिन विधेयकों को समितियों को भेजा जाता है, वे अक्सर महत्वपूर्ण सुझावों के साथ सदन में लौट आते हैं। समितियां मंत्रालयों/विभागों की अनुदान मांगों (demands for grants) को देखती हैं, उनसे संबंधित विधेयकों की जांच करती हैं, उनकी वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करती हैं। उनकी दीर्घकालिक योजनाओं पर भी विचार करती हैं और संसद को रिपोर्ट करती हैं।
समितियों का गठन कैसे किया जाता है, और उनके अध्यक्ष कैसे चुने जाते हैं?
लोकसभा के लिए विभागीय रूप से संबंधित 16 स्थायी समितियां हैं और राज्यसभा के लिए आठ समितियां हैं। प्रत्येक समिति में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। लोकसभा और राज्यसभा पैनल की अध्यक्षता इन संबंधित सदनों के सदस्य करते हैं।
महत्वपूर्ण लोकसभा पैनलों में से हैं: कृषि; कोयला; रक्षा; विदेशी मामले; वित्त; संचार और सूचना प्रौद्योगिकी (Communications & Information Technology); श्रम; पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस; और रेलवे। महत्वपूर्ण राज्यसभा पैनल में वाणिज्य (Commerce); शिक्षा; स्वास्थ्य और परिवार कल्याण; गृह मंत्रालय; और पर्यावरण शामिल हैं।
प्रत्येक सदन के लिए अन्य स्थायी समितियां भी होती हैं। जैसे कार्य मंत्रणा (Business Advisory) समिति और विशेषाधिकार (Privileges) समिति। प्रत्येक सदन का पीठासीन (Presiding) अधिकारी इन पैनल में सदस्यों को नामित (nominates) करता है। कोई मंत्री वित्तीय समितियों और कुछ विभागीय रूप से संबंधित (Departmentally Related) समितियों के चुनाव या नामांकन के लिए पात्र नहीं (not eligible) है।पीठासीन अधिकारी (Presiding Officers) किसी मामले को संसदीय समिति के पास भेजने के लिए अपने विवेक का उपयोग करते हैं, लेकिन यह आमतौर पर सदन में पार्टियों के नेताओं की सलाह से किया जाता है।
समितियों के प्रमुखों की नियुक्ति भी इसी तरह से की जाती है। परंपरा से मुख्य विपक्षी दल को पीएसी अध्यक्ष का पद मिलता है; जो इस समय कांग्रेस के पास है। पूर्व में कुछ प्रमुख समितियों की अध्यक्षता विपक्षी दलों को मिल चुकी हैं। हालांकि, ताजा बदलाव में यह पैटर्न बदल गया है। पैनल के प्रमुख अपनी बैठकें निर्धारित करते हैं। वे एजेंडा और वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने में स्पष्ट भूमिका निभाते हैं, और समिति के कुशल प्रबंधन के हित में निर्णय ले सकते हैं। अध्यक्ष बैठकों की अध्यक्षता करता है और यह तय कर सकता है कि पैनल के समक्ष किसे बुलाया (summoned before the panel) जाना चाहिए।
संसदीय समिति के समक्ष उपस्थित होने का निमंत्रण कोर्ट के समन (equivalent to a summons from a court) के समान है। यदि कोई नहीं आ सकता है, तो उसे कारण बताना होगा, जिसे पैनल स्वीकार कर सकता है या नहीं भी कर सकता है। हालांकि, अध्यक्ष को गवाह को बुलाने के लिए सदस्यों के बहुमत का समर्थन होना चाहिए।
सांसदों का आमतौर पर संसदीय समितियों में एक वर्ष का कार्यकाल होता है। आमतौर पर विभिन्न दलों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में एक समिति की संरचना कमोबेश समान ही रहती है।
समितियों की सिफारिशें कितनी महत्वपूर्ण हैं?
विभागीय रूप से संबंधित स्थायी समितियों के प्रतिवेदन सिफारिशी प्रकृति (recommendatory in nature) के होते हैं। वे सरकार पर बाध्यकारी नहीं (not binding on the government) हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण होते हैं। अतीत में सरकारों ने समितियों द्वारा दिए गए सुझावों को स्वीकार किया है और सदन में विचार करने के बाद उन्हें बिल में शामिल भी किया है। ये पैनल अपने संबंधित मंत्रालयों में नीतिगत मुद्दों की भी जांच करते हैं और सरकार को सुझाव देते हैं। इस पर सरकार को बताना होता है कि क्या इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है या नहीं। इसके आधार पर समितियां प्रत्येक सिफारिश पर सरकार की कार्रवाई की स्थिति का विवरण देते हुए की गई कार्रवाई रिपोर्ट को रिकार्ड करती हैं।
हालांकि, प्रवर (Select) समितियों और जेपीसी (JPC) के सुझाव- जिनमें बहुमत में सांसद और सत्ताधारी दल के प्रमुख हैं- को अधिक बार स्वीकार किया जाता है।