केरल हाई कोर्ट ने कहा है कि कि तलाक कानून, 1869 की धारा-10ए (Section 10 A) के तहत आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर करने के लिए एक वर्ष या उससे अधिक का समय देना मौलिक अधिकारों (fundamental rights) का उल्लंघन (violates) करता है। इसलिए असंवैधानिक (unconstitutional) है।
जस्टिस ए. मोहम्मद मुस्ताक और शोभा अन्नम्मा एपेन की बेंच ने शुक्रवार को कहा कि केंद्र सरकार को वैवाहिक विवादों में पति-पत्नी के सामान्य कल्याण (common welfare) को बढ़ावा देने के लिए “भारत में समान विवाह संहिता” (uniform marriage code) पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी एक युवा ईसाई जोड़े की याचिका पर सुनवाई के दौरान की। याचिका में फैमिली कोर्ट द्वारा तलाक के लिए उनकी साझी याचिका दर्ज करने से इनकार करने को चुनौती दी गई थी। उनकी शादी इसी साल 30 जनवरी को ईसाई रीति-रिवाज से हुई थी। लेकिन इस जोड़े ने तलाक लेने का फैसला किया और 31 मई को तलाक कानून, 1869 की धारा-10ए के तहत एर्नाकुलम के फैमिली कोर्ट में साझी याचिका दायर की।
लेकिन फैमिली कोर्ट रजिस्ट्री ने धारा-10ए के तहत शादी के एक साल के भीतर साझी याचिका दायर करने पर प्रतिबंध को देखते हुए उनकी याचिका को नंबर देने से इनकार कर दिया। फैमिली कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका को खारिज कर दिया कि शादी के बाद एक साल तक दोनों का अलग-अलग रहना जरूरी शर्त है। तभी कानून के तहत याचिका दायर हो सकती है।
इसके बाद इस जोड़ ने नागरिक प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure) की धारा 151 के तहत हाई कोर्ट का रुख किया। अदालत ने संध्या राजू और लीला आर को इसकी सहायता के लिए न्याय मित्र (amici curiae) नियुक्त किया।
दंपति ने यह घोषित करने के लिए एक अन्य याचिका भी दायर की कि कानून की धारा010ए (1) के तहत निर्धारित एक वर्ष की प्रतीक्षा अवधि असंवैधानिक है। याचिकाओं की विस्तार से जांच करने के बाद हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट को यह भी निर्देश दिया कि वह आपसी सहमति से तलाक की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत याचिका को दो सप्ताह के भीतर निपटाए।
एक साल की शादी की अवधि समाप्त होने से पहले पति-पत्नी को आपसी सहमति से अलग होने का अधिकार है या नहीं, इसकी जांच करने के बाद अदालत ने कहा कि आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर करने के उद्देश्य से एक साल या उससे अधिक की अवधि का प्रावधान धारा 10A के तहत सहमति “मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसलिए यह असंवैधानिक है।”
कोर्ट ने कहा कि तलाक के कानून को विवाद के बजाय पक्षकारों (parties) पर ध्यान देना चाहिए। कोर्ट ने कहा, “वैवाहिक विवादों में कानून को पार्टियों को कोर्ट की सहायता से मतभेदों को हल करने में सहायता करनी चाहिए। यदि कोई समाधान संभव नहीं है, तो कानून को कोर्ट को यह तय करने की अनुमति देनी चाहिए कि पार्टियों के लिए सबसे अच्छा क्या है। तलाक की मांग करने की प्रक्रिया के नाम पर उनके बीच कड़वाहट को बढ़ाना नहीं देना चाहिए। हम मानते हैं कि धारा 10ए के तहत निर्धारित एक वर्ष की अलगाव की न्यूनतम अवधि का निर्धारण मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और इसलिए इसे रद्द करें।”
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