- केजरीवाल की झगडीया सभा के बाद 9 -11 मई तक भाजपा के तीन दिवसीय एसटी मोर्चा की कार्यकारणी केवडिया में
- राहुल गाँधी की 10 मई को दाहोद में जनसभा , आदिवासी जन प्रतिनिधियों, नेताओं से खास बैठक
आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने नए सहयोगी बीटीपी के साथ गुजरात स्थापना दिवस पर विशाल आदिवासी जनसभा झगडीया में सम्बोधित करने के साथ ही आदिवासी वोट बैंक पर अपनी दावेदारी जता दी थी ,जबकि अब बारी भाजपा और कांग्रेस की है।
भाजपा संगठन महासचिव बीएल संतोष के गुजरात प्रवास के दौरान आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों से मिले फीडबैक के बाद अचानक 9 मई से तीन दिन का भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चे का तीन दिन का राष्ट्रिय अधिवेशन केवडिया में आयोजित किया जा रहा है , जिसमे देश भर के आदिवासी सांसद विधायक और राष्ट्रीय मोर्चा , प्रदेश संगठन के पदाधिकारी भाग लेंगे , तीन दिन तक अलग अलग सत्र में केंद्र तथा राज्य सरकार की आदिवासियों के कल्याण के लिए चलायी जा रही योजनाओं तथा आदिवासी को भाजपा से जोड़ने पर मंथन किया जायेगा। आरएसएस पहले से ही इन क्षेत्रों में तैनात है। गुजरात में लम्बे समय बाद भाजपा प्रदेश प्रमुख और मुख्यमंत्री दोनों ” संघ परिवार ” से नहीं आते। ऐसे में आरएसएस की सक्रियता बढ़ जाती है।
कार्यक्रम के आयोजक और भाजपा एसटी मोर्चा के प्रमुख हर्षद वसावा के मुताबिक यह आयोजन कई मायनों में खास रहेगा। पहली बार केवडिया में राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा है। वही आदिवासी क्षेत्रों में सबसे शानदार खिलाडी के तौर पर स्थापित कांग्रेस भी अपनी सत्ता का वनवास भी आदिवासी मतों के सहारे ही दूर करना चाहती है।
कांग्रेस के मुख्य वक्त डॉ मनीष दोशी के मुताबिक दाहोद के नवजीवन आर्ट्स -कॉमर्स कालेज के ऐतिहासिक मैदान में 10 मई को सुबह 10 बजे राहुल गाँधी सत्याग्रह सभा को सम्बोधित करेंगे। साथ ही आदिवासी विधायकों के साथ दोपहर 2 बजे खास बैठक करेंगे। साथ ही आदिवासी नेताओ के साथ भी अलग से बैठक कर राहुल गाँधी जमीनी हालात का जायजा लेंगे। कांग्रेस ने इस सभा के लिए एक लाख लोगों को एकत्रित करने का लक्ष्य रखा है। सभी दलों में अचानक एसटी विभाग का वजन बढ़ गया है।
कांग्रेस के मुख्य वक्त डॉ मनीष दोशी कहते हैं भाजपा आदिवासी अधिकार को ख़त्म करने पर तुली है ,जबकि राहुल गाँधी उनके अधिकार को बचाने के लिए सत्याग्रह करने का आ रहे है। प्रधानमंत्री पिछले महीने ही आदिवासी सभा को दाहोद में ही सम्बोधित कर चुके है।
” ना झुकेंगे ” के मोड पर चलने वाली केंद्र सरकार ने आदिवासियों के विरोध को देखते हुए पार- नर्मदा -ताप्ती रिवर लिंक प्रोजेक्ट को पहले ही ठन्डे बस्ते में डाल दिया है।
यह सब कुछ अचानक नहीं हो रहा है , पिछले दो दशक के गुजरात चुनाव पर यदि नजर डालें तो 2002 का चुनाव गुजरात दंगो की तपिश में ,2007 का चुनाव हिंदुत्व ,2012 का हिंदुत्व और विकास जबकि 2017 का चुनाव पाटीदार आंदोलन पर केंद्रित रहा , जबकि 2022 का चुनाव निश्चित और से आदिवासी और दलित पर केंद्रित रहने वाला है। ऐसा इसलिए क्योकि भाजपा को अगर 151 का लक्ष्य हांसिल करना है तो इन सीटों पर उसे कमल खिलाना ही होगा।
खासतौर से आदिवासी आरक्षित सीटों पर, जो हमेशा से उसके लिए मुश्किल का सबब रही है. 1985 में माधव सिंग सोलंकी ने जिस खाम (kham -क्षत्रिय ,हरिजन आदिवासी -मुस्लिम ) के बल पर ऐतिहासिक बहुमत 149 सीट की थी उसका अपराजेय पहलु आदिवासी सीट हैं। 1985 में कांग्रेस ने आदिवासी आरक्षित सभी 26 सीटों पर विजय हांसिल की थी। जबकि 1990 उनमे से 19 सीट खो दी थी। जिसका मूल कारण गरीब उत्थान नीतियों के समर्थक और कुशल संगठक जीणा भाई दरजी को किनारे करना और कांग्रेस के एक बड़े धड़े का चीमन भाई पटेल के साथ जनता दल में जाना शामिल रहा।
गुजरात की आदिवासी राजनीति में लम्बे समय तक एक मात्र आदिवासी मुख्यमंत्री रहे अमर सिंह का सिक्का चलता रहा। खास तौर से दक्षिण और उत्तर गुजरात में।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी की आदिवासी बाहुल्य विस्तार में रथयात्रा , न्याय यात्रा, संघ का समरसता अभियान , और तात्कालिक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वकांक्षी वन बंधू कल्याण योजना ,वनवासी कल्याण आश्रम , एकल विद्यालय , विवेकानद केंद्र ,सेवा भारती , और डांग में विश्व हिन्दू परिषद के ईसाई मिशनरियों के खिलाफ आक्रामक रणनीति ,सबरी महाकुंभ ,के बावजूद कांग्रेस का आदिवासी किला कमजोर जरूर हुआ , हिस्सेदारी भी भगवा कैप की बढ़ी लेकिन कब्ज़ा नहीं हो पाया।
मोदी काल में भी 2012 में 27 आदिवासी आरक्षित क्षेत्रों में कांग्रेस ने 16 सीट यानि 59. 3 प्रतिशत पर जीत हांसिल की थी , जबकि भाजपा को महज को 10 सीटों पर ही जीत मिली थी ,प्रतिशत के लिहाज से सफलता 37 प्रतिशत हो जाती है। जबकि 2014 में राज्य की सभी 26 लोकसभा सीट पर कमल खिला ,जिसमे आदिवासी आरक्षित और आदिवासी बाहुल्य लोकसभा क्षेत्र शामिल थे।
लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव जो की पाटीदार – दलित – ओबीसी आंदोलन के बीच लड़ा गया , में भी भाजपा 27 सीटों में लड़कर महज 9 सीट ही जीत पायी, सफलता का प्रतिशत 37 घटकर 33. 3 हो गया। जबकि कांग्रेस ने 24 सीट पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे जिसमे 15 जीते थे जो 62. 5 प्रतिशत था वही तीन सीट बीटीपी को दी थी जिसमे से 2 सीटों पर बीटीपी सहयोगी दल के तौर पर जीती थी , जिसे जोड़ दिया जाये तो वह और भी बढ़ जाता है।
लेकिन भाजपा के लिए उसका लगातार बढ़ता वोट प्रतिशत है ,2012 में बीजेपी के विजेता प्रत्याशी का वोट प्रतिशत 47. 9 से बढ़कर 2017 में 53. 6 हो गया , जबकि कांग्रेस का 2012 में 51. 5 था जो 2017 में घटकर 50. 4 हो गया। यही नहीं विजेता भाजपा उम्मीदवारों का अंतर 2012 में बढाकर 15134 से बढ़कर हो गया , वही कांग्रेस का 23303 से घटकर 15557 हो गया।
फिर तो कांग्रेस के आश्विन कोतवाल ,जीतू चौधरी , मंगल गावित जैसे कई कांग्रेस के बड़े आदिवासी नाम भाजपा से जुड़ चुके हैं।
10 मई को गुजरात में आदिवासी रैली को संबोधित करेंगे राहुल गांधी