किशोरी आमोणकर का अलौकिक संगीत बहुचर्चित है। यहाँ प्रस्तुत है उनके व्यक्तित्व के भीतर छिपी स्त्री की एक नायाब झलक।
गायनसरस्वती किशोरी आमोणकर, जिन्हें शिष्य “ताई” के नाम से सम्बोधित करते थे, उनसे मेरी पहली मुलाक़ात अगस्त १९८५ में हुई थी जब मैं केवल १६ साल का था। उनके सानिध्य में बैठे यूँ लग रहा था मानो किसी मंदिर में कोई हलवाई की दुकान हो – उनके माँ-तुल्य प्रेम की मिठास, उनके सुरों की पवित्रता और उनकी तालीम का कठोर शिष्टाचार। तब भी उनके सिद्धांतो की दृढ़ता उनके बोलने से झलकती थी। हिंदुस्तानी कंठसंगीत की मलिका ने महिला कलाकारों को उन दिनों दिए जाने वाले मेहनताने के बारे में मुझे कहा: “ये लोग (आयोजक) हमें ५,००० रूपल्ली देते थे! वो मुझे पूरे २५,००० रुपए देते हैं, जयांग!”
ताई के सबसे कम-उम्र शागिर्दों में से एक मैं भी था, और दूसरे कई संगीत प्रेमीयों की तरह उन दिनों उनकी मीराबाई के भजन की बहुचर्चित अल्बम “म्हारो प्रणाम” पर पगलाया हुआ था। (मीराबाई और ताई के व्यक्तित्व में एक समानता ज़रूर थी: दोनो ने पैबस्त रूढ़िवाद को चुनौती देकर अपना एक स्वतंत्र मार्ग चुना था।) मेरे स्कूल की एक शिक्षिका – श्रीमती सावित्री बाबूलकर – ताई के बचपन की सहेली थी। मैंने उनको ताई के पास मुझे ले जाने के लिए राज़ी किया। इसी तरह गुरु और शिष्य के बीच शुरू हुआ एक लम्बा और गहरा सम्बंध, जो ताई के चले जाने तक बरकरार रहा।
ताई से वह पहली मुलाक़ात अब तक दिल-ओ-दिमाग़ पर यूँ छायी है जैसे कल ही की बात हो। उनकी छोटी सी काया में लिप्त एक विशाल और बहु-आयामी व्यक्तित्व, धीमी आवाज़ में लिप्त सटीक शब्दों से बोलना, और पैनी नज़र वाली आँखें जो एक सतेज बुद्धिमता की परिचायक थीं। उनके बारे में कितनी कही-सुनी बातें सुनी थी: उनका प्रतिभावान व्यक्तित्व, गहरी भावनाओं को उजागर करने वाली उनके गायन की अनन्य क्षमता, उनका तेज़-तर्रार मिज़ाज, बे-अदब श्रोतागण के साथ उनकी नाराज़गी, और कोताही बरतने वाले आयोजकों के साथ उनकी बेसब्री। लेकिन हर दिग्गज के व्यवहार में जो दृष्टिगोचर है, बहुधा उसके पीछे गहरा रहस्य छिपा रहता है – ख़ास कर ऐसी कलाकार जिन्हें पद्मभूषण और पद्मविभूशण से अलंकृत किया गया हो और गायनसरस्वती की पदवी दी गयी हो।
ताई का आम रवैया दर-असल एक तरह का रक्षा कवच था, जिसकी वजह से वे लोगों की ग़लत-फ़हमी का अक्सर शिकार बन जाती थीं। शायद यही कवच उनको संगीतज्ञों, आयोजकों और रेकोर्ड कम्पनी के अफ़सरों से भरे संगीत के व्यावसायिक पुरुष-प्रधान जगत में निर्वाह करने की शक्ति देता होगा। १९५० के दशक में जब ताई ने रंगमंच पर पदार्पण किया, तब तक हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत आम जनता तक पहुँच चुका था। इसका श्रेय जाना चाहिए एक ओर माइक्रफ़ोन को, जिसके आविष्कार ने संगीत को राज दरबार से सभागृह तक पहुँचा दिया, और दूसरी ओर आकाशवाणी और ग्रामोफ़ोन को, जिनकी वजह से संगीत रईसों के कोठों से निकल कर घर-घर तक पहुँचा। शास्त्रीय गायन, जो एक ज़माने में पेशेवर तवायफ़ों का काम माना जाता था, अब सुसंस्कृत महिलाओं के लिए भी एक आजीविका का साधन बन गया। फिर भी महिला कलाकारों को हीनदृष्टि से देखने की वृत्ति समाप्त नहीं हुई थी।
अपनी तरुणावस्था में ताई अपनी माता और गुरु गानतपस्विनी मोगुबाई कुरडीकर के साथ कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए प्रवास करती। इन यात्राओं के दौरान अमीर संगीत रसिकों के द्वारा अपनी माँ के साथ किए गए दुर्व्यवहार की वे साक्षी बनी। रेल की तीसरी श्रेणी में लकड़े की सख़्त सीटों पर रात भर का सफ़र तय करना, सेठ लोगों के बंगले से सटे गोदामों में कड़ाके की ठंड में फ़र्श पर सोना – इस तरह की कई अपमानजनक और कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। ताई ने तभी प्रण ले लिया के वे इस तरह की बदसलूकी कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी। उनकी पोती और शिष्या तेजश्री बताती है: “अपने साथ तो क्या, किसी भी कलाकार के साथ अनुचित व्यवहार देख कर वे आग-बबूला हो जाती थीं।“ उचित व्यवहार के मामले में वे बहुत ही ज़िम्मेदार थीं, लेकिन अपनी निजी ज़िंदगी वे दुनिया की नुक़्ताचीनी से परे ही रखती थीं। वे हमेशा कहती के एक सरल सा अंजलिबद्ध प्रणाम बहुत ही प्रबल संकेत है, जो केवल विनम्रता का ही नहीं, लेकिन एक स्पष्ट लक्ष्मणरेखा का भी सूचक है।
ताई ने महिला कलाकारों की आगामी पीढ़ी के लिए कई मानदंड स्थापित किए, जैसे संगीत की सभाओं के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक लेना, आयोजकों और श्रोतागण से सम्मानजनक व्यवहार की अपेक्षा रखना, गले की फ़िज़ूल करामात देखने के आदी हो चुके सुनने वालों को अभिजात रागसंगीत की मौलिक रसपूर्णता का आस्वाद कराना। उनकी दृढ़ मान्यता थी के कलाकार को अपनी कला का मूल्य अच्छी तरह से समझना चाहिए, क्योंके यह बरसों की कठोर तपस्या और साधना का फल है।आज हिंदुस्तानी संगीत में महिला कलाकारों की बहुलता ताई के अथक प्रयासों की आभारी है।
स्त्री प्रायः बहुमुखी कार्यक्षमता की धनी होती है, लेकिन ताई तो सही माइनों में हरफ़न-मौला थीं। उनके लिए पूर्णता की खोज संगीत तक ही सीमित नहीं थी। अपनी गृहस्थी को बख़ूबी निभाते हुए उन्होंने दो सुपुत्रों को बड़ा किया, अपने पति और वयोवृद्ध माता के स्वास्थ्य की देख-रेख की, और अपने स्वजन-स्नेही के दुःख में शामिल होने के लिए तत्पर रही। ये सब संभालते हुए भी अपने सहवासी शिष्यों का पालन-पोषण करना, बिना किसी एजेंट के स्वयं आयोजकों के साथ निपटना, और कार्यक्रम, शिष्यों की तालीम और अपने रियाज़ का पूरा ख़्याल रखना शायद ही किसी एक व्यक्ति के बस की बात हो। जिन्हें ताई के समागम का सौभाग्य मिला, वे उनकी हाथ की स्वादिष्ट रसोई या उनकी बनाई हुई दिवाली की मनमोहक रंगोली के साक्षी रह चुके हैं। तेजश्री कहती है: “ताई अपने समय का सार्थक निवेश करना अच्छी तरह जानती थीं। एक दिग्गज कलाकार एक ज़िम्मेदार गृहिणी कैसे हो सकती है इसका ताई से अच्छा उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिले।“
संगीत के विषय में उनकी अनूठी सोच रससिद्धांत के गहरे अभ्यास और अनुसंधान से उभरी हुई थी, जो कई बार रूढ़िवादी आलोचकों की संकीर्ण टीकाओं का निशाना बन जाती थी। शास्त्र के नियम और अनुशासन का पालन करते हुए भी परंपरा के बंधनो से ऊपर उठकर उन्होंने श्रोताओं, संगीतज्ञों और संगीत के छात्रों को कई अलौकिक स्वरदृश्य दिखाए। अपनी विलक्षण बुधिमता से प्रवाहित विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उनको अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू, मराठी और मातृभाषा कोंकणी पर प्रभुत्व प्राप्त था। ताई उन गिनी-चुनी गायिकाओं में से थी जिन्हें शास्त्रीय और सुगम संगीत की दोनो शैलीयों पर समान आधिपत्य था। उनके गाए हए ग़ज़लों, भजनों और ठुमरी-दादरा में शास्त्रीय गायन कभी उस तरह हावी नहीं था, जिस तरह उनके समकालीन कई दिग्गज शास्त्रीय गायक-गायिकाओं में दिखाई देता था।
सोमवार ३ अप्रैल २०१७ की शाम, दिल्ली में एक अविस्मरणीय संगीत सभा के ठीक दस दिन बाद और अपने ८६वे जन्मदिवस के ठीक एक सप्ताह पहले ताई ने इस फ़ानी दुनिया से इजाज़त लेने का फ़ैसला किया। उनका प्रस्थान भी उनके जीवन और संगीत की शैली में था: अप्रत्याशित, बिलकुल अपनी मर्ज़ी से, पूरी २१ बन्दूकों की सलामी के साथ।
हाँग काँग निवासी जयांग झवेरी किशोरी आमोणकर के शिष्य हैं, और व्यवसाय से मैनज्मेंट कन्सल्टंट हैं। वे हिंदुस्तानी संगीत के शिक्षक हैं और भारतीय संगीत का प्रचार करने वाली एक सांस्कृतिक संस्था के अध्यक्ष भी हैं।
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Story’s Lending picture: Gaayanasaraswati Kishori Amonkar photo by Zarir Khariwala
हांग कांग स्थित जयांग झवेरी व्यवसाय से प्रबंध और तकनीकी सलाहकार है, और इसके अतिरिक्त वे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रचारक भी हैं। उन्होंने संगीत की तालीम १६ वर्ष की आयु से गायनसरस्वती किशोरी आमोणकर से प्राप्त की, और अपनी गुरु के विचारों के प्रचार के लिए वे अक्सर महाविद्यालयों में वर्कशॉप आदि संचालित करते हैं। वे ‘In Harmony Arts & Culture’ नामक संस्था के अध्यक्ष हैं, जो दक्षिण एशिया के पारम्परिक संगीत का प्रचार हांग कांग के युवा वर्ग में करती है। उनके नेतृत्व में इस संस्था ने कई सफल कार्यक्रमों का आयोजन किया है जहाँ शुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत के अलावा पाश्चात्य ऑर्केस्ट्रा का भी संगम प्रस्तुत किया गया है। यह संस्था भारतीय ललित कला में कार्यरत महिलाओं को समर्पित ‘कल्याणी’ नामक एक वार्षिक उत्सव का भी आयोजन करती है, जो विश्व में एक मात्र ऐसा उत्सव है।
जयांग ने लंदन बिजनेस स्कूल से MBA प्राप्त किया है और वे ६ भाषाएँ बोल सकते हैं।