राजनीति वैसे तो एक कल कल बहते नदी के समान होती है। उसमें उतार-चढ़ाव, रुकावटें और कभी कभी ठहराव भी आ जाते है। किंतु आधुनिक राजनीति में समग्रतया “सत्ता” केंद्र में रहती है। और सभी राजनीतिक दांवपेंच भी उसी को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। अब गुजरात का चित्र ही देख लीजिए, पिछले तीन दशकों से गुजरात पर शासन कर रही भाजपा को 2022 में सभी 182 सीटें कब्जे करनी है। क्या यह संभव है? जो काम नरेंद्रभाई मोदी जैसे बेहद लोकप्रिय मुख्यमंत्री होने के बावजूद भाजपा ना कर सकी वह काम नए मुख्यमंत्री और नए मंत्रियों की टीम कैसे कर पाएगी? जानकर आपको आश्चर्य होगा कि इस सवाल का जवाब है हां, यह काम इतना भी मुश्किल नहीं है। खास करके जब भाजपा को जादुई “गांधीनगर पैटर्न” मिल गया हो तब तो बिल्कुल नहीं।
सामान्यतः चुनावी राजनीति में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां अपनी ताकत को आजमाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद समेत अनेक प्रवृत्तियां करती है। विरोधी पार्टी के नेताओं को अपने साथ लाना, कार्यकर्ताओं की पूरी फौज ही अपनी पार्टी में लाना, येन केन प्रकारेण विरोधियों को हराना, यह सब चलता रहता है। अगर भाजपा की बात करें तो वह अपने संगठन की ताकत और सरकार के कामों को मद्देनजर रखकर अपनी चुनावी रणनीति बनाता है। यहां उम्मीदवारों की पसंद भी बहुत महत्वपूर्ण रहती हैं। किंतु इन सब बातों के अलावा एक और महत्व की बात है, मतदाताओं के मानसिक जुकाव को समझना। उदाहरण के तौर पर देखे तो तीन दशकों के शासन के बाद रुपाणी पटेल के सामने सत्ताविरोधी लहर खडी होने की संभावना को भांपकर हाईकमान ने पूरा मंत्रिमंडल बदल दिया। सभी चेहरे, मुख्यमंत्री समेत बिल्कुल नए लाए गए। रात गई सो बात गई। पर सिर्फ ऐसे निर्णयोसे भाजपा को जैकपोट नहीं मिलेगा। हा, गांधीनगर महापालिका के चुनाव में आए हुए चमत्कारिक परिणामों ने उसे एक नया “पैटर्न” या फार्मूला जरूर दे दिया है।
2010 में गांधीनगर को महापालिका घोषित किए जाने के बाद उसका पहला चुनाव 2011 में हुआ। उस समय 33 बैठकों में से कांग्रेस ने 18 और भाजपा ने 15 जीत ली थी। 59% मतदान हुआ था। कांग्रेस ने सत्ता तो हासिल की पर वह लंबे समय तक टिक नहीं पाई। भाजपा ने राजनीतिक उठापटक की और सत्ता मे आ गई। 2016 में फिर से चुनाव आए। भाजपा और कांग्रेस दोनों को 16-16 सीटें मिली। 52% मतदान हुआ। लॉटरी के आधार पर भाजपा के नगरसेवक मेयर बने। उस चुनाव मे भाजपा को 44.7% और कांग्रेस को 46.93% मत मिले थे। इस वर्ष यानी कि 2021 में फिर से महापालिका के चुनाव हुए। नए सीमांकन के बाद बढी हुई 44 बैठकों में से भाजपा को 41, कांग्रेस को 2 और आम आदमी पार्टी को 1 सीट मिली। 56.24% मतदान हुआ।
इन आंकड़ों में से जो सच्चाई सामने आ रही है वह बेहद रोचक है। 2021 के चुनाव में भाजपा को 46.94% मत मिले और उसकी एवरेज बनी रही, किंतु उसकी सीटें 3 गुना बढ़ गई। जबकि कांग्रेस को 28% मत मिले और वह शीर्षासन करके 2 बैठकों पर आ गई। सबसे महत्वपूर्ण बात हुई आम आदमी पार्टी के साथ। उन्हे 21.77% मत मिले और 1 ही सीट। यानी कि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के पंजे की उंगलियां तोड़ दी। गुजराती कहावत “मै भी मरू और तुझे भी विधवा करूं” जैसी स्थिति उसने कांग्रेस के लिए खड़ी कर दी। भाजपा को जहां हर बार कांग्रेस के साथ जोड़-तोड़ करके सत्ता हासिल करनी पड़ती थी वहां उसका काम बेहद आसान हो गया। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच की लड़ाई में कांग्रेस के वोट बट गए। तो यह है भाजपा का “ गांधीनगर पैटर्न”।
भाजपा को अगर गुजरात में अगले साल चुनाव का जैकपोट जीतना है तो उसके राजनीतिक “स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर” के अलावा यह एक मैजिक फार्मूला उसके हाथ लग गया है। आनेवाले समय में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में होने वाली उठापटक पर उसकी नजर रहेगी और जिन नेताओं को वह अपने पाले में ला सकती हैं उन्हें लाने के लिए वह हमेशा तैयार रहेगी।
वैसे यह पढ़ने के बाद सवाल तो जरूर होता है कि यह तो अब ओपन सीक्रेट है, इस बात का भाजपा को पता है क्या वह कांग्रेस और आपको नहीं पता होगी? जवाब है हां, उन्हें भी पता ही है किंतु सबसे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी टीम बता बता कर अपने वोट गंवा रही है। आम आदमी पार्टी को तो वैसे भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, उसे ए टीम कहां जाए या बी टीम, वह अपनी न्यूसेंस वैल्यू पर मुस्ताक है। जो कुछ भी नुकसान हो रहा है वह कांग्रेस का है।
एक और प्रश्न होना स्वाभाविक है कि यह पैटर्न जो गांधीनगर महापालिका में चला क्या वह पूरे राज्य में लागू हो सकता है? क्योंकि हर एक विधानसभा क्षेत्र की अपनी कुछ विशेषताएं होती है। जातिगत और आर्थिक समीकरणों के समेत कई सारी चीजें काम करती है। यह बात तो सही है किंतु इस पूरी रणनीतिक प्रक्रिया में इस पैटर्न की महत्वपूर्ण केंद्रीय भूमिका जरूर हो सकती है।
चलिए कुछ और आंकड़े देखते हैं, पिछले तीन विधानसभा के चुनाव में गुजरात में कांग्रेस और बीजेपी ने अपना एवरेज वोट शेर बना रखा है। हालांकि पिछले चुनाव में तो कांग्रेस का एवरेज बढ़ा था किंतु फिर भी उसे ७७ बैठकों से ही संतुष्ट होना पड़ा था। 2007 में गुजरात विधानसभा के चुनाव में कुल मतदान 59.5 % हुआ था उसमें भाजपा ने 39.93% मतों के साथ ११७ सीटें और कांग्रेस ने 38% मतों के साथ 59 बैठके के प्राप्त की थी।2012में 72% मतदान हुआ था जिसमें से 47.50% मतों के साथ भाजपा ने 115 सीटें और 38.93% मतों के साथ कांग्रेस ने 61 सीटें हासिल की थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में 69% मतदान हुआ था इसमें भाजपा ने 49% मतों के साथ 990बैठके हासिल की थी यानी कि 160बैठके उसने खोई और कांग्रेस ने 41.4 % मत हासिल करके 77 बैठक यानी अगले चुनाव से 16 बैठक ज्यादा प्राप्त की। यहां इस बात को ध्यान में लेना चाहिए कि उन तीनों चुनावो में भाजपा और कांग्रेस के बीच में ही जंग था तीसरा या चौथा कोई खिलाडी नहीं था, अब तीसरा और चौथा खिलाड़ी भी मैदान में है।
अब जरा फिर से ऊपर की गांधीनगर पैटर्न को याद कीजिए। गांधीनगर में कांग्रेस के वोट पर कब्जा करके आम आदमी पार्टी ने जो धमासान मचाया है वैसा ही धमासान अब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और ओवैसी दोनों मचाएंगे, इसके चलते हुए कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा नुकसान हुआ तो समझ लीजिए कि वह सिंगल डिजिट में पहुंच जाएगी। फिलहाल विधानसभा में भाजपा के 111 (उंझा के विधायक की मृत्यु के बाद) कांग्रेस के 65, 1 स्वतंत्र, 2 बीटीपी और 1 एनसीपी के विधायक है।
खैर, यह तो हुई भाजपा की रणनीति की बात पर विरोधपक्ष उसे टक्कर देने के लिए क्या कर सकता है? उनके पास क्या फार्मूला हो सकता है गुजरात में भाजपा के पास से सीटें छीनने के लिए, या उसकी शक्ति को कम करने के लिए। यहां एक ही फार्मूला लागू हो सकता है, आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और ओवैसी इन तीनों को साथ आना पड़ेगा। एक साथ मिलकर भाजपा से लड़ना पड़ेगा, तभी भाजपा विरोधी वोट कंसोलिडेट होगे। क्या यह संभव है? वैसे तो जिस प्रकार से तीनों पार्टियां गुजरात में चुनाव लड़ती है यह संभव नहीं दिखता किंतु राजनीति में कभी कोई बात असंभव नहीं होती। बस, समस्या एक ही है, जिस धीमी रफ्तार से यह तीनों पार्टियां गुजरात में अपनी तैयारी कर रही हैं उसको देखते हुए साबरमती में से कुछ ज्यादा ही पानी बह जाएगा, फिर तो जैसा जिसका नसीब। आपका क्या ख्याल है…..?