योगेश जांजामेरा उस कारखाने के फर्श पर अपना बिस्तर बिछाते हैं, जहां वह काम करते और रहते हैं। लगभग दो मिलियन भारतीयों में योगेश भी एक फैक्टरी में हीरे की पॉलिशिंग करते हैं, जो यूक्रेन युद्ध से बुरी तरह प्रभावित है। 35-40 लोगों के लिए एकमात्र शौचालय से आती हवा में रहने से दरअसल गुजरात में ऐसे वर्कशॉप में काम करने वालों को फेफड़ों की बीमारी, धुंधलाती नजर और अन्य बीमारियों से ग्रस्त कर देती है।
लेकिन योगेश और उनके जैसे अन्य लोगों की चिंताएं दूसरी हैं। यह चिंता दूर यूरोप में है। वजह है युद्ध के कारण रूस पर लगा प्रतिबंध, जो भारत के “खुरदरे” रत्नों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता और एक लंबे समय से रणनीतिक सहयोगी रहा है। 44 वर्षीय योगेश ने बताया, “पर्याप्त हीरे नहीं हैं। इससे काम भी पर्याप्त नहीं है।” वह कहते हैं, “युद्ध समाप्त होना चाहिए। हर किसी की आजीविका युद्ध समाप्त होने पर निर्भर करती है।”
वह कहते हैं कि उनका 20,000 रुपये (260 डॉलर) का मासिक वेतन पहले से ही 20-30 प्रतिशत कम है। फिर भी वह भाग्यशाली हैं, क्योंकि इस दौरान सूरत में 30,000 से 50,000 हीरा श्रमिकों ने नौकरी खो दी है।
खराब समय
मूल रूप से तापी नदी के मुहाने पर बंदरगाह शहर के रूप में स्थापित सूरत ने 1960 और 70 के दशक में “भारत के डायमंड सिटी” के रूप में ख्याति अर्जित की। अब, दुनिया के लगभग 90 प्रतिशत हीरे को पश्चिमी गुजरात के इस औद्योगिक शहर और अन्य जगहों पर काटा और पॉलिश किया जाता है।
सूरत के भीड़-भाड़ वाले महिधरपुरा बाजार में व्यापारी खुलेआम लाखों डॉलर के हीरों का खुले बाजार में व्यापार करते हैं। कीमती रत्नों को कागज में लपेटकर ले जाते हैं।
चिराग जेम्स के सीईओ चिराग पटेल ने कहा, “अगर यह सूरत से नहीं जाता है, तो हीरा हीरा नहीं है।”
अलरोसा जैसे रूसी खनन दिग्गज पारंपरिक रूप से भारत के कच्चे हीरे के एक तिहाई से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण आपूर्ति बंद हो गई है।
चिराग जेम्स के लिए रूस और भी महत्वपूर्ण था। “कच्चे” 900 पत्थरों में से आधे को रत्न बनाकर चमकाने का काम उनकी फैक्टरी में ही होती है। इसे वह कहीं भी 150 से 150,000 डॉलर तक में बेचते हैं।
अत्याधुनिक स्कैनिंग और लेजर-कटिंग मशीनों का उपयोग करते हुए उनकी फैक्टरी सबसे बेहतर है। इसमें एयर-कंडीशनिंग और एग्जॉस्ट सिस्टम श्रमिकों को खतरनाक धूल से बचाते हैं।
लेकिन पश्चिमी प्रतिबंधों के मार्च में स्विफ्ट जैसे अंतर्राष्ट्रीय भुगतान नेटवर्क से रूस को अलग करने के बाद के महीनों में आपूर्ति घटकर दसवें हिस्से पर आ गई है। ऐसे में 32 वर्षीय पटेल इस कमी की भरपाई दक्षिण अफ्रीका और घाना से करने की कोशिश कर रहे हैं।
टिफ़नी की मांग
पटेल का कहना है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जून-से-सितंबर शादी का मौसम हीरा निर्यातकों के लिए एक महत्वपूर्ण अवधि है। जेम एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के आंकड़ों से पता चलता है कि मार्च में भारत के 24 अरब डॉलर के कटे और पॉलिश किए गए हीरे के निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 40 प्रतिशत से अधिक था।
लेकिन व्यापारियों का कहना है कि हाल के महीनों में अमेरिका और यूरोप से मांग में भी गिरावट आई है। इसलिए कि सिग्नेट, टिफनी एंड कंपनी, चोपार्ड और पेंडोरा जैसी कंपनियों ने रूस से हीरे खरीदने से इनकार कर दिया है।
इसका खामियाजा दीपक प्रजापति जैसे श्रमिकों को भुगतना पड़ा है। मई में उन्होंने वह नौकरी खो दी, जिससे छह लोगों का परिवार चलाने के लिए वह प्रतिमाह 320 डॉलर कमाते थे।
37 वर्षीय ने प्रजापति ने कहा, “मैंने कंपनी को पूछा कि मैं कब काम फिर से शुरू कर सकता हूं, लेकिन उन्होंने कहा कि उनके पास मेरे लिए कोई काम ही नहीं है।” उन्होंने कहा, “सूरत में साठ प्रतिशत नौकरियां हीरों पर चलती हैं। सूरत में हीरा सबसे बड़ा उद्योग है। मुझे हीरे के अलावा और कोई काम नहीं आता।” उनकी छंटनी महामारी के कारण लगे लॉकडाउन का परिणाम है। प्रजापति ने कहा, “हमें छह से आठ महीने तक कोई वेतन नहीं मिला। हमें जीवित रहने के लिए हर तरफ से पैसे उधार लेने पड़े और अभी भी उन ऋणों का भुगतान कर रहे हैं।”
गुजरात डायमंड वर्कर्स यूनियन ने गुजरात के मुख्यमंत्री से नौकरी गंवाने वाले श्रमिकों के लिए 10 बिलियन रुपये (128 मिलियन डॉलर) का राहत पैकेज देने के लिए कहा है।
यूनियन के उपाध्यक्ष भावेश टांक ने कहा, “हमने उनसे कहा कि अगर आने वाले दिनों में हालात नहीं सुधरे तो हमारे श्रमिक आत्महत्या करने को मजबूर होंगे।” वह कहते हैं, “सूरत ने पूरी दुनिया के लिए हीरे की सफाई की है, लेकिन अब हमारे ही हीरा मजदूर साफ हो रहे हैं। हम केवल भगवान से युद्ध समाप्त होने की प्रार्थना कर रहे हैं। यदि युद्ध समाप्त नहीं होता है, तो हम नहीं जानते कि हालात किस हद तक और खराब हो जाएंगे।”