पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आरपीएन सिंह (कुंवर रतनजीत प्रताप नारायण सिंह) के भाजपा में शामिल होने के बाद उत्तर प्रदेश में कुशीनगर जिले के राजनीतिक समीकरण पूरी तरह उलट-पुलट गए हैं.
आरपीएन सिंह के पहले यहां के बड़े नेता और योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा छोड़ सपा में जा चुके हैं. अभी भी जिले के कुछ नेताओं के पाला बदलने की चर्चा हो रही है.
आरपीएन सिंह के भाजपा में आने की चर्चा काफी दिनों से चल रही थी. कांग्रेस में तीन दशक की राजनीतिक यात्रा के बाद भाजपा में उनके यात्रा का ‘नया अध्याय’ किस तरह का होगा, इस पर चर्चा शुरू हो गई है. यह भी चर्चा है कि उनकी पत्रकार पत्नी इस चुनाव में अपनी सियासी पारी की शुरुआत कर सकती हैं.आरपीएन सिंह तीन दशक से कुशीनगर जिले की राजनीति में एक बड़े केंद्र बने हुए थे. सिंह जगदीशगढ़ स्टेट (रियासत) से ताल्लुक रखते हैं. उन्हें राजनीति विरासत में मिली.
उनके पिता कुंवर चंद्र प्रताप नारायण सिंह 1969-74 में कांग्रेस से पडरौना के विधायक बने. वर्ष 1980 में पडरौना से सांसद चुने गए और इंदिरा गांधी सरकार में रक्षा राज्य मंत्री भी बने.
उनके निधन के बाद आरपीएन सिंह राजनीति में आए. दून स्कूल में पढ़ाई के बाद उन्होंने दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़ाई की थी और आगे की पढ़ाई विदेश में करना चाहते थे, लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु के कारण उन्हें वापस पडरौना आना पड़ा.
आरपीएन सिंह वर्ष 1996 में पहली बार पडरौना से विधायक बने. उसके बाद वह 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में भी जीते. इस अवधि में वे यूपी में यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष भी रहे.
वर्ष 2004 का लोकसभा चुनाव वह पडरौना से लड़े, लेकिन सपा से विद्रोह कर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी से चुनाव लड़ रहे बालेश्वर यादव से उन्हें पराजित होना पड़ा.बालेश्वर यादव दो बार 1989 और 2004 में पडरौना लोकसभा से सांसद रह चुके हैं. वे इस समय सपा में हैं और उनके बेटे विजेंद्र पाल यादव वर्ष 2017 का चुनाव कुशीनगर जिले की खड्डा विधानसभा क्षेत्र से लड़े थे, लेकिन हार गए.
आरपीएन सिंह 2009 के लोकसभा चुनाव जीते. इस बार उनका मुकाबला इलाहाबाद से यहां आए तबके बसपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य से हुआ. तब स्वामी प्रसाद मौर्य को पराजय का सामना करना पड़ा था.
सांसद बनने के बाद आरपीएन सिंह केंद्र में मंत्री बने. उन्हें महत्वपूर्ण विभाग मिले. वे भूतल व परिवहन राज्यमंत्री, पेट्रोलियम राज्य मंत्री और फिर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री बने.
सांसद बनने के बाद पडरौना विधानसभा सीट उन्होंने छोड़ दी और वर्ष 2009 में हुए उपचुनाव में उन्होंने अपनी मां मोहिनी देवी को चुनाव मैदान में उतारा. बसपा ने प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य को लड़ने का मौका दिया. बसपा ने मौर्य को जिताने में खूब ताकत लगाई. आरपीएन भी दमदारी से लड़े, लेकिन उनकी मां चुनाव हार गईं.
कांग्रेस हाईकमान के काफी करीबी आरपीएन सिंह को इस हार से तगड़ा झटका लगा, लेकिन हाईकमान का विश्वास उन पर बना रहा.
स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस जीत के बाद कुशीनगर की राजनीति में अपनी जगह मजबूत कर ली. इसके बाद के हुए दो चुनाव भी वह जीते. वर्ष 2012 का चुनाव वह बसपा से जीते. पिछले चुनाव में वह भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा के टिकट पर जीते और योगी सरकार में मंत्री बने.
आरपीएन सिंह की कुशीनगर जिले की राजनीति में पकड़ तब कमजोर होती गई, जब वह 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव भी हार गए. वर्ष 2019 के चुनाव में उन्हें भाजपा प्रत्याशी विजय दूबे ने हरा दिया, जिन्हें 2012 के चुनाव में आरपीएन सिंह ने कांग्रेस में लाकर विधायक बनाया था.
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में आरपीएन सिंह जैसे कद्दावर नेता होने के बावजूद कुशीनगर की सात विधानसभा सीटों में कांग्रेस सिर्फ एक सीट तमकुहीराज ही जीत सकी. तमकुहीराज से अजय कुमार लल्लू दोबारा चुनाव जीते. हालांकि इस जीत में भी अजय कुमार लल्लू के खुद के जुझारू व्यक्तित्व का योगदान था, न कि आरपीएन सिंह का.
इससे पहले के दो विधानसभा चुनावों में भी आरपीएन सिंह कांग्रेस को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं दिला सके थे. वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में पडरौना विधानसभा सीट से वह खुद जीत गए, लेकिन शेष छह सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों की करारी हार हुई थी. वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस सात में से सिर्फ दो सीट पर ही जीत सकी थी.
आरपीएन सिंह कभी कुशीनगर जिले की राजनीति से बाहर अपने को ताकतवर बना नहीं पाए. इसके लिए उन्होंने खुद भी कोई कोशिश नहीं की.
वे कुशीनगर जिले में अपने संसदीय क्षेत्र और उसके दो विधानसभा क्षेत्र-पडरौना और खड्डा तक अपने को सीमित किए रहे. भाजपा में आने के बाद वह अपने को सैंथवार बता रहे हैं, लेकिन इसके पहले उन्होंने जाति की राजनीति को प्रमुखता नहीं दी थी.
उनकी जाति को लेकर अलग-अलग दावे किए जाते रहे हैं. कोई उन्हें सैंथवार, तो कोई कुर्मी बताता रहा है, लेकिन आरपीएन सिंह अपने को क्षत्रिय के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे हैं.
सैंथवार, कुर्मी और पटेल ओबीसी में आते हैं, लेकिन तीनों का राजनीतिक व्यवहार अलग-अलग रहा है. सामाजिक स्थिति में भी सैंथवार अपने को कुर्मी से अलग रखने की कोशिश करता है.
यूपीए की सरकार में केंद्रीय मंत्री बनने के बाद आरपीएन सिंह ने कुशीनगर जिले के लिए दो प्रमुख कार्य किए, जिससे उनकी विकास की राजनीति करने वाले नेता की छवि पुख्ता हुई. उन्होंने कुशीनगर जिले की लगभग सभी सड़कों को ठीक कराया और बड़ी संख्या में रसोई गैस की एजेसिंयां स्थापित कीं.
इसके चलते लोगों को रसोई गैस आसानी से मिलने लगी. गोरखपुर खाद कारखाने सहित बंद खाद कारखानों को पुनजीर्वित करने के यूपीए सरकार के फैसले का श्रेय भी वह खुद को देते हैं. गोरखपुर में 31 अक्टूबर 2021 की प्रियंका गांधी की रैली में भी उन्होंने अपने भाषण में इन तीनों कार्यों को गिनाया और इसका श्रेय कांग्रेस व खुद को दिया.
लेकिन यह भी एक सचाई है कि उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए योगी आदित्यनाथ की सांप्रदायिक राजनीति का कभी खुलकर विरोध नहीं किया. योगी आदित्यनाथ और आरपीएन सिंह के राजनीति में सक्रिय होने का समय लगभग एक है.
इस क्षेत्र में वे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और कांग्रेस ने उन्हें खूब आगे भी किया, लेकिन वे गोरखपुर और आस-पास के जिलों में तो छोड़ दीजिए खुद अपने जिले में योगी आदित्यनाथ व हिंदू युवा वाहिनी की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए आगे नहीं आए.
उन्हें कुशीनगर सहित आस-पास के जन मुद्दों पर भी मुखरता से बोलते हुए या संघर्ष करते हुए देखा-सुना नहीं गया. उनके राजनीति में सक्रिय रहते कुशीनगर जिले की दस चीनी मिलों में से पांच चीनी मिलें बंद हो गईं, ‘गन्ना का कटोरा’ कहा जाने वाले कुशीनगर जिले में गन्ने की खेती बर्बाद होती चली गई लेकिन आरपीएन सिंह कभी इसको लेकर मुखर नहीं हुए.
उनके जिले में करीब 100 मुसहर टोले हैं, जिनमें करीब एक लाख मुसहर रहते हैं. उनकी हालत बहुत खराब है. पिछले दो दशक से 100 से अधिक मुसहरों की भूख और बीमारी से मौतें मीडिया में रिपोर्ट हुईं, लेकिन आरपीएन सिंह सत्ता और विपक्ष में रहते हुए कभी भी मुसहरों के लिए आवाज नहीं बन सके.
वे हमेशा जिले की राजनीति में ‘राजकुमार’ बने रहे. जिले में उनका बहुत कम रहना होता. यदि रहते तो उनका अधिकतम समय महल में बीतता. उनकी सार्वजनिक उपस्थित बहुत कम दिखती. उनकी इस कमजोरी को उनके समर्थक बतौर ताकत प्रचारित करते कि ‘राजा साहब थाने-पुलिस की राजनीति नहीं करते. उनकी राजनीति बड़े मुद्दों पर होती है.’
आरपीएन सिंह के बरक्स अजय कुमार लल्लू ने संघर्ष के बल पर अपने को न सिर्फ कांग्रेस बल्कि जिले व प्रदेश की राजनीति में अपनी पहचान बना ली. कांग्रेस में आने के पहले छात्र व युवा नेता के रूप में उन्होंने गरीबों, नौजवानों के सवालों और क्षेत्रीय मुद्दों पर संघर्ष कर अपनी पहचान बनाई थी.
विधायक बनने के बाद भी उन्होंने अपने संघर्ष को कुंद करने के बजाय और तीखा ही किया और कई बार जेल गए. पुलिस उत्पीड़न, नारायणी नदी से बालू खनन के मुद्दे पर अजय कुमार लल्लू ने जब कुशीनगर जिले में आंदोलन किया और जेल गए तो आरपीएन सिंह न तो आंदोलन में शामिल हुए न अपने विधायक की गिरफ्तारी का विरोध किया.
कांग्रेस संगठन को भी कुशीनगर में मजबूत करने का उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया. कांग्रेस कार्यालय उनके महल में ही चलता रहा. जब आरपीएन सिंह पडरौना में रहते तो कांग्रेस कार्यालय में थोड़ी हलचल दिखती नहीं तो उधर कोई रुख भी नहीं करता.
कांग्रेस में अजय कुमार लल्लू के बढ़ते महत्व व कद से आरपीएन सिंह परेशान थे. अजय कुमार लल्लू 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले जब कांग्रेस में शामिल हुए थे तो आरपीएन सिंह इस बात से बेहद नाराज हुए थे कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना वे कांग्रेस में कैसे शामिल हो गए.
अजय कुमार लल्लू ने लखनऊ में कांग्रेस की सदस्यता ली थी. कांग्रेस में शामिल होने के बाद जब वह आरपीएन सिंह से मिलने ‘जगदीशगढ़ कोठी’ गए तो आरपीएन सिंह ने उनसे मिलना भी गवारा न किया.
यह सही है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में अजय कुमार लल्लू के तमकुहीराज से चुनाव लड़ने का आरपीएन सिंह ने विरोध नहीं किया था, लेकिन उन्होंने उन्हें जिताने में कोई ताकत भी नहीं लगाई. अजय कुमार लल्लू अपने बूते संघर्ष करते हुए जीते.
विधायक बनने के बाद अजय कुमार लल्लू की आरपीएन सिंह से दूरी बनती गई. बड़ी जनसभाओं और बड़े नेताओं के दौरे पर अजय कुमार लल्लू को जान-बूझकर दूर किया जाता.
राहुल गांधी की सितंबर 2016 में कुशीनगर में आयोजित ‘खाट सभा’ में अजय कुमार लल्लू को राहुल गांधी के हस्तक्षेप करने पर बोलने का मौका मिला. संचालन कर रहे आरपीएन सिंह बार-बार लल्लू को अपना भाषण संक्षिप्त करने के लिए टोकते रहे.
चर्चा है कि आरपीएन सिंह ने भाजपा से कुशीनगर जिले की सात में से तीन सीट-पडरौना, खड्डा और हाटा अपने लिए मांगे हैं. कांग्रेस ने पडरौना सीट पर आरपीएन सिंह की ही पसंद मनीष जायसवाल का टिकट घोषित कर दिया था.
कांग्रेस के जिलाध्यक्ष राजकुमार सिंह को खड्डा से टिकट दिए जाने की तैयारी थी, इसलिए उन्हें जिलाध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया गया था. आरपीएन सिंह के भाजपा में शामिल होने के बाद मनीष जायसवाल और राजकुमार सिंह ने भी कांग्रेस छोड़ दी है और आरपीएन सिंह के साथ एकजुटता दिखाई है.
पडरौना, खड्डा और हाटा सीट पिछले चुनाव में भाजपा जीती थी. पडरौना सीट को आरपीएन सिंह की पसंद के प्रत्याशी को देने में भाजपा को कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन खड्डा और हाटा सीट पर उनकी पसंद का प्रत्याशी दिए जाने पर भाजपा नेता बगावत कर सकते हैं.
कुशीनगर जिले में भाजपा की ओर से सफल दावेदारी ब्राह्मण नेता ही करते रहे हैं. वर्तमान में कुशीनगर और खड्डा से ब्राह्मण विधायक हैं. कुशीनगर के सांसद भी ब्राह्मण हैं. यदि आरपीएन सिंह के दबाव में भाजपा इन स्थानों पर दूसरे प्रत्याशी लाती है तो उसे भितरघात का भी सामना करना पड़ सकता.
तमकुहीराज सीट निषाद पार्टी के कोटे में चले जाने से भाजपा नेता पहले से परेशान हैं. आरपीएन सिंह के भाजपा में आने से उन्हें अपना राजनीतिक करिअर संकट में दिख रहा है.
बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में कुशीनगर जिले की सभी सात विधानसभा सीटों पर चुनाव बेहद रोचक हो गया है. कांग्रेस भी अब इस जिले में नए सिरे से ऐसे प्रत्याशियों की तलाश कर रही है, जो भाजपा और खासकर आरपीएन सिंह को चोट दे सकें.
आरपीएन सिंह के जरिये भाजपा स्वामी प्रसाद मौर्य के राजनीतिक प्रभाव को काटने में लगी है तो सपा स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ अपने पार्टी के बड़े नेताओं पूर्व सांसद बालेश्वर यादव, पूर्व मंत्री ब्रह्माशंकर त्रिपाठी, राधेश्याम सिंह के बीच संतुलन बिठाने में लगी है.