किसी भी धर्म के त्यौहार और संस्कृति उसकी पहचान होते हैं। त्यौहार उत्साह,उमंग व खुशियों का ही स्वरूप हैं। लगभग सभी धर्मों के कुछ विशेष त्यौहार या पर्व होते हैं जिन्हें उस धर्म से संबंधित समुदाय के लोग मनाते हैं। ऐसा ही एक पर्व है शीतला सप्तमी जिसे भिन्न भिन्न धर्मों व समुदाय के आधार पर अलग अलग नाम से पुकारा जाता है। जैसे की सिंधी समाज के द्वारा इसे थदिड़ी व सताएं, गुजरात में इसे सीतला सातम व राजस्थान में इसे शीतला सप्तमी व उत्तरी भारत में इसे ‘बसौडा’ कहा जाता है। शीतला शब्द से तात्पर्य है ठंडी, शीतल…। रक्षाबंधन के आठवें दिन इस पर्व को समूचा समुदायों में हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
शीतला सप्तमी का इतिहास
आज से हजारों वर्ष पूर्व ‘मुअनि जो दड़ो’ की खुदाई में मां शीतला देवी की प्रतिमा निकली थी। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं की आराधना में यह पर्व मनाया जाता है। शीतला सप्तमी पर्व को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां भी व्याप्त हैं कहते हैं कि पहले जब समाज में तरह-तरह के अंधविश्वास फैले थे तब प्राकृतिक घटनाओं को दैवीय प्रकोप माना जाता था। जैसे समुद्रीय तूफानों को जल देवता का प्रकोप, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में इंद्र देवता की नाराजगी समझा जाता था। इसी तरह जब किसी को माता(चेचक) निकलती थी तो उसे दैवीय प्रकोप से जोड़ा जाता था, तब देवी को प्रसन्न करने हेतु उसकी स्तुति की जाती थी और शीतला अष्टमी का पर्व मनाकर ठंडा खाना खाया
जाता था।
शीतला सप्तमी में खाए जाने वाले व्यंजन
इस त्यौहार के एक दिन पहले हर परिवार में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे कूपड़ ॻचु कोकी सूखी तली हुई सब्जियां भिंडी, करेला, आलू, रायता, दही-बड़े, मक्खन आदि। मुख्यतः रूप से सिंधी परिवारों में ,लोलो,खटो भत आदि व्यंजन बनाए जाते है।
शीतला सप्तमी के परंपरागत रीति रिवाज
हालांकि प्राचीन समय में इस पर्व के वक़्त भैंसे की बलि दी जाती थी , परंतु वक़्त के साथ हुए परिवर्तन में अब एक दिन पहले ही दूसरे दिन खाया जाने वाला भोजन बनाया जाता है रात को सोने से पूर्व चूल्हे पर जल छिड़क कर हाथ जोड़कर पूजा की जाती है। इस तरह चूल्हा ठंडा किया जाता है।दूसरे दिन पूरा दिन घरों में चूल्हा नहीं जलता है एवं एक दिन पहले बनाया ठंडा खाना ही खाया जाता है। इसके पूजन की भी सभी धर्मों में भिन्न भिन्न विधियों से पूजा की जाती है जिसमें हिन्दू धर्म में सुबह जल्दी उठ कर शीतला देवी की पूजा अर्चना की जाती है व साथ ही साथ कुछ लोग व्रत भी करते है। वहीं दूसरी ओर सिंधी धर्म में परिवार के सभी सदस्य किसी नदी, नहर, कुएं या बावड़ी पर इकट्ठे होते हैं वहां मां शीतला देवी की विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद बड़ों से आशीर्वाद लेकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। बदलते दौर में जहां शहरों में सीमित साधन व सीमित स्थान हो गए हैं। ऐसे में पूजा का स्वरूप भी बदल गया है।अब कुएं,
बावड़ी व नदियां अपना अस्तित्व लगभग खो बैठे हैं। अतएव आजकल घरों में ही पानी के स्रोत जहां पर होते हैं वहां पूजा की जाती है। इस पूजा में घर के छोटे बच्चों को विशेष रूप से शामिल किया जाता है और मां का स्तुति गान कर उनके लिए दुआ मांगी जाती है जिसमें मुख्यत रूप से यह पंक्तियां गाई जाती हैं :-
ठार माता ठार पहिंजे ॿचड़नि
खे ठार
माता अॻे बि ठारियो थई हाणेबि ठार
इसका तात्पर्य यह है कि हे माता ! मेरे बच्चों को शीतलता देना। आपने पहले भी ऐसा किया है आगे भी ऐसा करना…। और साथ ही साथ इस दिन घर के बड़े बुजुर्ग सदस्यों द्वारा घर के सभी छोटे सदस्यों को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है जिसे दिवाली के नेक और ईद के ईदी के समान सिंधी में ‘खर्ची’ कहते हैं।
थदिड़ी व सातम पर्व के दिन बहिन और बेटियों को विशेषकर मायके बुलाकर इस त्यौहार में शामिल किया जाता है। इसके साथ ही उसके ससुराल में भी भाई या छोटे सदस्य द्वारा सभी व्यंजन और फल भेंट स्वरूप भेजे जाते हैं इसे ‘थदिड़ी का ॾिणु’ कहा जाता है।
परंपराएं और आस्था अपनी जगह कायम रहती हैं बस समय-समय पर इसे मनाने का स्वरूप बदल जाता है। यह भी सच है कि त्यौहार मनाने से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं व सामाजिकता भी कायम रहती है। हालांकि आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि चिकनपाक्स के इंजेक्शन /वेरिपेड़ बचपन में ही लग जाते हैं। परंतु दैवीय शक्ति से जुड़ा ‘थदिड़ी पर्व’ हजारों साल बाद भी हिन्दू समाज का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। इसे आज भी पारंपरिक तरीके से मिलजुल कर मनाया जाता है। आस्था के प्रतीक यह त्यौहार समाज में अपनी विशिष्टता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं और आगे भी कराते रहेंगे।