बस्तर के आदिवासी बहुल केशकावली इलाके में एक हैं-भंगाराम देवी। उनका दरबार लगता है। इसमें ‘देवताओं’ (ग्राम देवताओं) के भाग्य का फैसला लिया जाता है। यह वह जगह है, जहां भक्तों के संकट को कम नहीं करने या कोई इच्छा पूरी नहीं करने पर देवताओं को सजा दी जाती (gods are tried and judged for not alleviating the distress of devotees or not fulfilling a wish) है। उनका न्याय किया जाता है। क्षेत्र के लगभग 240 गांवों के आदिवासी अपने परिवार के देवताओं को लेकर वहां आते हैं। खासकर वार्षिक ‘भादो जात्रा’ उत्सव के दौरान। पुजारी भंगाराम देवी के फैसले के बारे में बताते हैं, और अगर किसी भगवान को ‘दंडित’ किया जाना है, तो उन्हें मंदिर के पिछवाड़े में भगा दिया जाता है। वहां सभी तरह के कुलदेवता घने पत्तों में या पेड़ों के सहारे रहते हैं।
बस्तर के आदिवासियों की इस सबसे अनोखी विशेषता को किसी बाहरी व्यक्ति की नजर से आंकना गलत होगा। लेकिन ‘देवताओं की जांच’ (trial of the gods) एक आकर्षक अनुष्ठान (ritual) है। यह इतना मनोरंजक होता है कि आप आदिवासियों के उत्साह में बह जाएं। यहां उनके लिए फैसला भंगाराम देवी का फैसला ही कानून होता (Bhangaram Devi’s verdict is the law) है। यदि किसी देवता को ‘सजा’ दी जाती है, तो उनकी दिव्यता कम हो जाती (their divinity is diminished) है और उन्हें मंदिर के पिछवाड़े में कुलदेवताओं की भीड़ में रखकर भुला दिया जाता है। इस प्राचीन परंपरा को मंदिर में पुजारी भाइयों की पांचवीं या छठी पीढ़ी द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है।
यहां कुलदेवता विभिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे डोली, कुल्हाड़ी, बक्से, ड्रम और यहां तक कि स्ट्रेचर के आकार के भी। वे नक्काशीदार पत्थर या लकड़ी से बने होते हैं, या मिट्टी में तराशे जाते (They are made of carved stone or wood, or sculpted in clay) हैं। कुछ तो भारी निगरानी में बनाए गए हैं, लेकिन अन्य ऐसे दिखते हैं जैसे उन्हें जल्दबाजी में एक बना दिया गया हो। देखने में अच्छे हों या बेढंगे, भंगाराम देवी की नजर में वे सभी समान होते हैं। सजा भुगतने वाले देवताओं के लिए अलग कोना बना है। दरएसल यह उन देवताओं के लिए है, जो ग्रामीणों को काले जादू से बचाने में विफल (It’s for devtas who failed to protect villagers from black magic) रहे।
यह स्थान एक पेड़ के नीचे, देवी काली की प्रतिमा के बगल में है। आश्चर्यजनक रूप से भादो जात्रा उत्सव में महिलाओं को भाग लेने की अनुमति नहीं (women aren’t allowed) है। हालांकि आदिवासी परंपरा महिलाओं को जीवन के अन्य सभी पहलुओं में समान स्थान (although tribal tradition gives women equal space in all other aspects of life) देती है। मुख्य पुजारी बलराम गौर ने बताया, “केशकल और पड़ोसी क्षेत्रों के नौ ‘परगना’ (सभी में 240 गांव) के हजारों आदिवासी पुरुष अगस्त के महीने में कृष्णपक्ष के शनिवार को भंगाराम देवी मंदिर में जुटते हैं।”
उन्होंने कहा, “आदिवासियों के बीच प्राचीन मान्यता है कि जिन देवताओं की वे पूजा कर रहे हैं, उनके प्रदर्शन का न्याय देवी द्वारा निष्पक्ष तरीके से मूल्यांकन किया जाता (the performance of gods they have been worshipping is judged by the Devi in a fair way) है। देवी के फैसले के लिए वे अपने देवताओं को मर्जी से छोड़ देते हैं और नए देवता चुनने के लिए मुहूर्त की प्रतीक्षा करते (wait for an omen to decide the next god) हैं। यह शगुन ज्यादातर सपनों में दिखाई देता है।” एक घेरे में बैठकर पुजारी भाई मंदिर के कामकाज में व्यक्तिगत भूमिका निभाते हैं। एक ‘भगत’ या ‘सिरहा’ पुजारी वह होता है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसका देवी से सीधा संबंध (who is believed to have direct connection with the Devi) है और जिसे लोग अपने ‘देवताओं’ के प्रदर्शन के बारे में बताते हैं।
पुजारी ने समझाया, “यदि कोई गांव प्राकृतिक आपदा, सूखा या बीमारी से प्रभावित है, और उसका देवता राहत देने में विफल रहता है, तो उस देवता को देवी सजा देती (If a village suffers a natural calamity, drought or illness, and its god fails to give respite, the Devi punishes the god) हैं। इसके लिए सवाल-जवाब का एक दौर चलता है। इसमें यह मान लिया जाता है कि ‘देवताओं’ को कुछ नहीं कहना है। यह भी माना जाता है कि एक या एक वर्ष के बाद, जब ये निकाले गए देवता अपने पूर्व भक्तों के सपने में दिखाई देते हैं, तो लोग अलग-अलग रूपों में एक ही भगवान की ‘प्रतिष्ठान’ के लिए देवी के पास वापस जाते (when these banished gods show up in the dreams of their former devotees, the people go back to the Devi for ‘pratishthan’ of the same god in different forms) हैं। साथ ही, इन ‘अनाथ’ गांवों के लिए नए देवताओं को उनकी स्थिति में सुधार करने की शपथ के साथ नियुक्त किया जाता (new gods are appointed for these ‘orphaned’ villages with a vow to improve their condition) है। ” इस तरह देवता के प्रतीक चिन्हों को नया रूप देकर भंगाराम की सहमति के बाद मान्यता दी जाती है।
देवी के इस प्राचीन मंदिर की स्थापना राजा भैरमदेव के शासनकाल में 1700-1800 ईस्वी के दौरान हुई थी। जगदलपुर में सरकारी केपीजी कॉलेज के प्रोफेसर और जनजातीय संस्कृति के विशेषज्ञ (expert on tribal culture) एमअलीएन सैयद ने बताया कि बस्तर के आदिवासी गांव विविधताओं से भरे हैं। वे आम देवताओं की पूजा नहीं करते हैं। उन्होंने कहा, “वे अपने देवता स्वयं बनाते हैं। यह देखा गया है कि भानुप्रतापपुर और केशकल क्षेत्र के आदिवासी अक्सर समाज को अपनी ईमानदारी से सेवा देने वाले लोगों को भगवान का दर्जा देते हैं। उदाहरण के लिए, भंगाराम मंदिर में ‘काना डॉक्टर या डॉ खान’ की भी एक मूर्ति है, जिन्होंने दशकों पहले हैजा और चेचक की महामारी के दौरान ग्रामीणों का इलाज किया था। हालांकि वह डॉक्टर नागपुर का था, लेकिन उसने मरते दम तक आदिवासियों की सेवा की। इसलिए आदिवासी उसकी पूजा करने लगे। ‘काना डॉक्टर’ को भंगाराम देवी के ठिकाने पर रहने का गौरव हासिल है। आप इसे तब तक नोटिस नहीं करेंगे, जब तक खुद नहीं देख लेंगे। काना डॉक्टर का कुलदेवता होना दरअसल विश्वास की अटूट मजबूत छड़ी है। और यह वह छवि है, जो मंदिर से नीचे जाते समय आपके साथ रह जाती है। जी हां, यहां आदिवासी मनुष्यों में देवत्व देखते हैं और अपने लिए स्वयं के देवता बनाते (tribals see divinity in humans and create their own gods) हैं।