अहमदाबाद: गुजरात सरकार ने शवों (cadavers) से अंग प्रत्यारोपण (organ transplantation) में लोकल लोगों को तरजीह (priority) देने की अपनी नीति का बचाव किया है। उसने कहा है कि मांग की तुलना में दान किए गए अंगों की संख्या बहुत कम है। ऐसे में सरकार को प्राथमिकता देने में नैतिक दुविधा (moral dilemma) का सामना करना पड़ रहा है।
राज्य सरकार को तीन लोगों के शव दान (cadaver donations) से अंगों के प्रत्यारोपण में गुजरात के मूल निवासियों (domiciles of Gujarat) को प्राथमिकता देने वाली अपनी नीति के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जैसे एक महिला के पास कनाडा की नागरिकता (citizenship) है। वह 13 वर्षों से गुजरात में रह रही है और जिसे किडनी प्रत्यारोपण (transplant) की आवश्यकता है। इसी तरह मध्य प्रदेश की एक महिला को लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत है। उधर, पिछले सात साल से अहमदाबाद में आकर बस गए झारखंड के एक व्यक्ति को किडनी का इंतजार है। उन्होंने पहले पंजीकरण (registration) के लिए विचार नहीं किए जाने और फिर गुजरात के मूल निवासी (domicile) को प्राथमिकता दिए जाने के लिए नीति पर सवाल उठाए हैं।
हाई कोर्ट में नीति का बचाव करते हुए सरकारी वकील मनीषा शाह ने कहा, “दरअसल मांग के हिसाब दान किए गए अंगों की संख्या बहुत कम है। इसलिए एक नैतिक दुविधा है। हम किसी भी मरीज को ठुकरा नहीं रहे हैं … शव दान को लेकर हम मूल निवासी (domicile) पर जोर दे रहे हैं। जब संसाधन (resources) सीमित हों तो राज्य सरकार प्राथमिकता तय कर सकती है, वरना उसके अपने लोग कहां जाएंगे? और कोई विकल्प नहीं है।” उन्होंने आगे कहा, “दान किए गए अंगों की कमी के कारण हमेशा एक नैतिक दुविधा रहती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। हर देश पहले अपने नागरिकों के हितों की सेवा करना चाहता है, और हर संभव तरीके से ऐसा करना पसंद करेगा।”
याचिका दायर करने वाले ने तर्क दिया कि व्यावसायीकरण (commercialization) पर अंकुश लगाने के लिए अंग प्रत्यारोपण के लिए कानून बनाया गया है। अंगों की कमी के बीच यदि प्राथमिकता नीति नहीं अपनाई जाती है, तो इससे प्रत्यारोपण पर्यटन (transplant tourism.) को बढ़ावा मिलेगा।
उन्होंने कहा, “यदि अंग प्रत्यारोपण पर्यटन होता है और एक स्थान पर पंजीकरण (registrations) का तांता लग जाता है, तो जो वास्तव में जरूरतमंद हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं, उन्हें कभी मौका नहीं मिलेगा। इसलिए प्राथमिकता और तात्कालिकता की नीति है,” उसने प्रस्तुत किया।
कनाडाई नागरिक के मामले में, जिसे अधिवास (domicile) सर्टिफिकेट के अभाव में पंजीकरण से मना कर दिया गया था, हाई कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि क्या अधिवास (domicile) संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, इन मामलों में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि क्या वह इस आधार पर प्राथमिकता दे सकती है कि मरीज की हालत कितनी गंभीर है।
सरकार ने जवाब दिया कि उसे हर चरण में एक नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ता है, लेकिन उसकी नीति इस सवाल का समाधान करना चाहती है। इसलिए कि इसमें रोगियों की स्थिति को देखते हुए एक तत्काल सूची (urgent list) और एक मानक सूची (standard list) है।
कनाडाई नागरिक की ओर से पेश हुए सीनियर वकील जीएम जोशी ने तर्क दिया कि ऐसा कोई नियम नहीं है, जिसके तहत सरकार उनके मुवक्किल (client) को मूल निवासी का सर्टिफिकेट देने से इनकार कर सकती है। यदि उसे यह सर्टिफिकेट मिलता है, तो वह प्राथमिकता की नीति के तहत आ जाएगी।
झारखंड के मरीज के लिए वकील कुनन नाइक ने सरकार की अलग सूची बनाने की नीति पर सवाल उठाया। हालांकि कानून में इसका कोई प्रावधान नहीं किया गया है। उन्होंने दलील दी कि लोकल और बाहरी लोगों के लिए अलग-अलग सूची राज्य के दिशानिर्देशों की आड़ में तैयार की जाती है। जबकि कानून देश के किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करता है, क्योंकि यहां प्राथमिकता उस तरह से नहीं जोड़ी जा सकती है जैसे कि शिक्षा या खेल में दी जाती है।
दलीलें सुनने के बाद जस्टिस बीरेन वैष्णव ने फैसला सुरक्षित रख लिया।
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