दो दशकों से गाँवो की दयनीय स्थिति को पत्रकारत्व के माध्यम से दुनिया के सामने रखने वाले और ग्रामीण जनजीवन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाले शिरीष खरे की किताब ‘एक देश, बारह दुनिया’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक को रिपोर्तज विधा में सात राज्यों से बारह संकटग्रस्त ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को बयान करते हुए लिखा गया है।इस पुस्तक ने सामाजिक कुरीतियों की मुख्य व चर्चित 40 पुस्तकों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज किया है।
इस पुस्तक में शिरीष ने महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र मेलघाट, महादेव बस्ती, कमाठीपुरा, बुडरुक, आष्टी, मस्सा, गुजरात का संगम टेकरी, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बरमान घाट,मदकूद्वीप, अछोटी राजस्थान का ग्रामीण क्षेत्र बायतु, एवं दरभा जैसे अनजाने और अनसुने भारतीय गांवों का दृश्य दिखाया है ।
‘वाइब्ज़ ओफ़ इंडिया’ से अपनी किताब के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा की, “जब गाँवो में चिकित्सकीय सेवाओं के अभाव में खाट को उल्टा करके किसी बीमार व्यक्ति को ऐम्ब्युलन्स समझ कर ले ज़ाया जाता है, तो यह सवाल उठता है की क्या हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था 100 वर्ष पुरानी है या 200 वर्ष पुरानी है?”
‘एक देश बारह दुनिया’ किताब के शीर्षक के पीछे की सोच
शिरीष खरे ने बताया की , “इस किताब में एक देश की 12 ऐसी जगहों को लिया गया है जहाँ की स्थिति अत्यंत दयनीय है, जब हम सामान्यतः इन जगहों को देखते है तो हमें सब एक जैसे नज़र आते है पर भारत के अंदर कई ऐसी जगह है जो संकटग्रस्त है या अदृश्य है, और इन संकटग्रस्त और अदृश्य जगहों पर जब हम जाते है और वहाँ कुछ दिनों तक रुकते है तो हमें वो दुनिया बहुत अलग तरह से नज़र आती है, और फिर दुनिया के अलग रूप नज़र आते है जहाँ एक दुनिया अत्यंत विकसित है और दूसरी दुनिया में विकास नज़र भी नहीं आता, और लगता है यह दुनिया 300-400 वर्ष पुरानी है । इस किताब में भूख जो हर जगह की अलग होती है जिसमें हमने बम्बई की भूख और मेलघाट की भूख का नियोजन किया है और वहाँ की स्थिति को दर्शाया है।
गाँवो में संसाधनो की कमी और शहरों की ओर पलायन एक ज्वलंत समस्या
अधिकतर गाँवो में योजनाओं के नाम पर, बांध के नाम पर या सड़कों के नाम पर गरीब लोगों को अपनी झोपड़ी को छोड़ कर और जगह जाने को कहा जाता है। संसाधनो के अभाव में किसी भी व्यक्ति को पेट की भूख शांत करने के लिए पलायन करना पड़ता है. अपने परिवार से दूर रहना और अनजान शहर में रहना अत्यंत ही कठिन बात है , इसी के साथ कई सारे परिवार भी पलायन करते है तो इससे बच्चों की शिक्षा पर दुष्प्रभाव पड़ता है. मनमोहन सरकार द्वारा नीति बनायी गयी जिसका कुछ वक्त तक देश में अभाव था। परंतु जब से मैंने पत्रकारिता आरम्भ की है तबसे नीति की कार्यशैली उस आधार पर क्रियान्वत नहीं है जैसे उसकी कल्पना की गयी थी। ग्रामीण इलाक़ों को स्वास्थ्य, शिक्षा की पूर्णत्या रूप से सेवाएँ दी जाए तो ही पलायन को रोका जा सकता है ।
ग्रामीण पत्रकारिता एक मुख्य अंग
भारत की आत्मा गाँव में निवास करती है, पर गाँव की अत्यंत संकटमय स्थिति है। मेरे कई वर्षों पहले लिखे लेख अभी भी लोग पढ़ रहे है तो कहीं ना कहीं ज़ेहन में एक सवाल उठता है की इतना कुछ लिखने के बाद भी स्थिति वही बनी हुई है जो अत्यंत पीड़ा देने वाली और हृदय को विचलित करने वाली है ।