गुजरात के बावला में हक के लिए लड़ती महिला किसान - Vibes Of India

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गुजरात के बावला में हक के लिए लड़ती महिला किसान

| Updated: December 7, 2021 08:23

अहमदाबाद शहर से लगभग 52 किलोमीटर दूर है उस गांव में दो महिलाएं रहती हैं। वैसे वे पारंपरिक रूप से अनपढ़ हैं, लेकिन धोखे से खोई हुई भूमि का मालिकाना हक वापस पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही हैं।

इनमें से एक गीताबेन राठौर (43) कहती हैं, “जमीन मेरे लिए सब कुछ है। इसे हासिल करना मेरा अधिकार है। इसके लिए मैं अपनी आखिरी सांस तक लड़ूंगी।” वह बावला जिले के संकोद गांव की विधवा हैं, जो अपनी 4 एकड़ जमीन के लिए लड़ रही हैं। यह जमीन उन्हें 2000 के दशक की शुरुआत में पति की मृत्यु के बाद उन्हें दी गई थी।

उन्होंने वाइब्स ऑफ इंडिया से कहा, “मैंने 2005 में जमीन बेच दी थी। इसलिए कि बच्चों की देखभाल करने के लिए मेरे पास न पैसे थे, न नौकरी। उस 10 एकड़ के प्लॉट को मेरे पड़ोसी ने 10 लाख रुपये में बेचा। मैंने उसी दलाल से संपर्क किया, जो जमीन खरीदने के लिए एक कारखाने के मालिक का प्रतिनिधित्व कर रहा था। उससे सौदा किया। उसने मुझसे 3 लाख रुपये का वादा किया, लेकिन दिया केवल 1.48 लाख रुपये।” अब उस जमीन की कीमत 40 लाख रुपये है।

गीताबेन जल्द ही न्याय के लिए तालुका पंचायत गईं। वहां उन्हें न्याय मिला। हालांकि दलाल और कारखाने के मालिक ने हाल ही में ढोलका के जिला न्यायालय में अपील कर दी है। इसमें कहा गया है कि गीताबेन ने उस कागजात पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके मुताबिक उसे पैसे का पूरा भुगतान कर दिया गया है। शांत और आत्मविश्वास से भरपूर गीताबेन ने कहा, “मैं अनपढ़ हूं। मैंने यह सोचकर कागज पर हस्ताक्षर किए कि वे अपने शब्दों पर टिके रहेंगे। मुझे नहीं पता था कि वे मुझे धोखा देंगे। जमीन तो वापस मुझे मिल ही जाएगी, चाहे कुछ भी हो। ”

गीताबेन ने 60,000 रुपये में एक वकील की सेवा ले रखी है। इसलिए कि उन्हें हर महीने अदालत का एक बार दौरा करना पड़ता है, जो उनके निवास स्थान से 30 किलोमीटर से अधिक दूर है। चार लोगों के परिवार की मासिक आय 22,000 रुपये है। अब तक गीताबेन वकील को 12,000 रुपये दे चुकी हैं। उन्होंने कहा, “मैं अदालत की हर सुनवाई पर हाजिर रहती हूं।”

भूमि स्वामित्व का मामला महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि गुजरात में गैर-कृषक द्वारा कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती है। पहले केवल राज्य में रहने वाले ही गुजरात में कृषि भूमि में निवेश कर सकते थे, लेकिन 2012 में गुजरात हाई कोर्ट ने एक निर्णय पारित किया, जो देश के किसी भी कृषक को राज्य में ऐसी भूमि खरीदने की अनुमति देता है।

जब तक कोर्ट में मामला चल रहा है, गीताबेन ने खेती के लिए जमीन अन्य भूमिहीन किसानों को दे दी है। बदले में उन्हें वहां होने वाली उपज का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। हालांकि, जमीन का मालिकाना हक खोने की पर वह बेमौसम बारिश के कारण फसल नुकसान के मामले में ऋण, बीमा, प्रौद्योगिकी, बाजार और मुआवजे तक सभी से वंचित हो जाएंगी। संक्षेप में, उन्हें राज्य और केंद्र सरकार से संबंधित सभी लाभों से वंचित कर दिया जाएगा, जिसका एक किसान हकदार होता है।

गीताबेन

अहमदाबाद स्थित वीमेन ग्रुप फॉर विमेन एंड लैंड ओनरशिप (WGWLO) से जुड़े एक एनजीओ के फील्ड ऑफिसर्स द्वारा किए गए अनौपचारिक सर्वेक्षण के अनुसार, सांकोड में लगभग 2,018 लोगों के पास जमीन का मालिकाना हक है। इनमें से केवल 13% भूमि पर विधवाओं का स्वामित्व है। इनमें से अधिकतर विधवाएं दलित समुदायों और अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित हैं।

गुजरात स्थित एनजीओ उत्थान की कार्यकर्ता और संस्थापक नफीसा बरोट ने वीओआई को बताया, “डेटा पुरुष प्रधान है। पुरुष सत्ता साझा करना पसंद नहीं करते हैं और भूमि का मालिक होने से उन्हें किसी भी परिवार में उच्च अधिकार हासिल हो जाता है। “
टूटकर भी मजबूत गीताबेन के घर के पास ही मीना पटेल (35) रहती हैं। विनम्र स्वभाव की विधवा मीना पटेल तीन बच्चों की मां हैं। वह अपनी उम्र से बड़ी दिखती हैं, क्योंकि वर्षों के संघर्ष ने उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भारी असर डाला है। वह कहती हैं, “मैं वर्षों पहले की तुलना में अब मजबूत हूं। जो मेरा अधिकार है, उसे कोई किसी भी तरह से मुझसे लेने की कोशिश तो करके दिखाए।”

हालांकि मजाक में कहा गया उनका यह बयान किसी को भी उन्हें नजरअंदाज करने से पहले दो बार सोचने पर मजबूर कर देगा। वह बताती हैं, “मेरे पति की मृत्यु 13 साल पहले तब हो गई, जब मेरा बेटा पैदा होने वाला था। उसके बाद सारा नरक टूट गया। ससुराल वाले और मृत पति के दो भाइयों ने मुझे घर से निकाल दिया। फिर मैंने उनसे कहा कि पति की जमीन का मेरा हिस्सा मुझे दे दो। मैंने उनसे सीधे-सीधे कहा, मैं यहां भले मर जाऊं, पर घर से नहीं जा रही हूं।”

मीनाबेन

हिंसा शुरू होने पर मीनाबेन को आखिरकार ससुराल छोड़ना ही पड़ा। उन्होंने कहा, “पति के बड़े भाइयों में से एक ने मेरा हाथ तोड़ दिया। मेरे तीन बच्चे थे, इसलिए मैंने एक सौदा किया। मैंने उन्हें बिना खेती वाला प्लॉट दे दिया। फिर अपने और बच्चों के लिए घर बनाने की खातिर एक एकड़ का प्लॉट खरीदा। मैंने उस जमीन के लिए 1.38 लाख रुपये का भुगतान किया, जो माना जाता है कि मेरी ही थी।”

मीनाबेन ने बताया कि उनके ससुराल वालों ने कुल 25 एकड़ का प्लॉट गिरवी रख दिया है। कहा, “जब मैं हाल ही में एक नया खाता खोलने के लिए बैंक गई, तो पता चला कि उन्होंने बैंक से 45 लाख का ऋण लिया हुआ है। अब 45 लाख रुपये मैं कहां से लाऊं।”
उनके पास 4 एकड़ कृषि भूमि है। उन्होंने उसमें से अपनी 2 एकड़ जमीन गिरवी रख दी, और बाकी 2 एकड़ खुद जोतती हैं। वह दिहाड़ी मजदूर के तौर पर भी काम करती हैं। उन्हें एक दिन के काम के लिए 250 रुपये का पारिश्रमिक मिल जाता है। मीनाबेन कहती हैं, “यह घर मैंने अपने हाथों से बनाया है। यह छोटा है, लेकिन यहीं से मैं लड़ती हूं। ”

गुजरात में भूमि स्वामित्व की स्थिति

विभिन्न डेटासेट का उपयोग करते हुए विभिन्न शोध पत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि गुजरात में 7.74 प्रतिशत महिलाओं को आदिवासी क्षेत्रों में कुछ जमीन विरासत में मिली है, जबकि जातिगत गांवों में 4.63 प्रतिशत महिलाओं को विरासत में मिली है। इन शेयरों को औपचारिक रूप से दर्ज नहीं किया गया था। आदिवासी व्यवस्था में अनौपचारिक स्वामित्व अधिक प्रमुख था, जबकि जातिगत गांवों में केवल युवा विधवाओं के पास भूमि का अनौपचारिक स्वामित्व था। (मीरा वेलायुधन, बीना अग्रवाल)।

देशभर में स्थिति

एक आंकड़े पर पहुंचना मुश्किल है, क्योंकि कई एजेंसियां और गैर सरकारी संगठन विभिन्न डेटासेट और सर्वेक्षण पद्धतियों का उपयोग करते हुए वर्षों से औपचारिक और अनौपचारिक सर्वेक्षण कर रहे हैं। लेकिन कुछ प्रमुख अध्ययन, जब साथ रखे जाते हैं, तो एक गंभीर तस्वीर सामने आती है।

2018 में किए गए भारत मानव विकास सर्वेक्षण के अनुसार, देश में लगभग 83 प्रतिशत कृषि भूमि परिवार के पुरुष सदस्यों को विरासत में मिली थी। दो प्रतिशत से भी कम भूमि विरासत में महिलाओं के स्वामित्व में थीं।

2012 में राज्यसभा सदस्य एमएस स्वामीनाथन द्वारा पेश किए गए निजी विधेयक को पढ़कर कृषि में लैंगिक असमानता को और अधिक रेखांकित किया जा सकता है। विधेयक ने ‘कृषि के नारीकरण’ की अवधारणा को छुआ, यह तर्क देते हुए कि गरीब घरों के पुरुष का काम और आय की तलाश में कस्बों और शहरों में जाना तेजी से बढ़ता जा रहा है, और महिलाएं उनकी अनुपस्थिति में खेतों की देखभाल करती हैं।

स्वामीनाथन ने बिल में तर्क दिया, “जबकि महिला किसान बेहद मेहनती हैं और स्थायी कृषि प्रथाओं से भी परिचित हैं, वे कई बाधाओं से जूझती हैं। जैसे कि भूमि का मालिकाना हक, और ऋण, इनपुट, बीमा, प्रौद्योगिकी और बाजार तक पहुंच। 1995 की शुरुआत में बीजिंग में आयोजित महिलाओं पर चौथे विश्व सम्मेलन ने विकासशील देशों से महिला किसानों की लिंग आधारित जरूरतों पर ध्यान देने का आग्रह किया।”

स्टेट ऑफ लैंड रिपोर्ट 2018 इंडेक्स के अनुसार, भारत की औसत महिलाओं के भूमि अधिकार 12.9 फीसदी थे।

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