अहमदाबाद: गुजरात हाई कोर्ट ने जब मंगलवार को दुकानों में मुर्गा काटने पर रोक लगाने के लिए एक जनहित याचिका को स्वीकार किया, तो वह 102वीं जनहित याचिका थी जो अदालत को 2022 में प्राप्त हुई थी। यह 2011 में जनहित याचिका के प्रारूप (format) तय होने के बाद से सार्वजनिक मामलों की सबसे कम संख्या थी। 2021 में हाई कोर्ट को 153 जनहित याचिकाएं मिली थीं और एक साल पहले यह संख्या 200 से ऊपर थी।
वास्तव में हाई कोर्ट ने पिछले दशक में दायर जनहित याचिकाओं की संख्या में धीमी, लेकिन स्थिर गिरावट देखी है। बता दें कि वर्ष 2013 में सबसे अधिक 350 जनहित याचिकाएं थीं।
हाई कोर्ट ने 2011 में जनहित याचिकाओं के लिए एक विशेष प्रारूप पेश किया। तब सार्वजनिक कारणों से दायर कई मुकदमों को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि याचिकाओं को जनहित याचिका के उचित निर्धारित प्रारूप में दायर किया जाना चाहिए। सूत्रों ने कहा कि कई याचिकाकर्ता अपनी याचिकाओं में सुधार करने के लिए उपस्थित नहीं हुए और उस वर्ष केवल 195 जनहित याचिकाएं प्रारूप के अनुसार दायर की गईं। अगले साल यह संख्या जल्द ही बढ़कर 276 और 2013 में 350 हो गई।
वकीलों का मानना है कि जनहित के ठोस आधार पर दायर नहीं की गई जनहित याचिकाओं पर विचार करने के लिए जजों की रुचि नहीं देखते हुए भी लोग कोर्ट तक नहीं पहुंचते होंगे। वकीलों का कहना है कि एक और कारण यह हो सकता है कि जनहित में कई मुकदमे हरियाली और पर्यावरण से संबंधित थे, जिन्हें लेकर लोग अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) या हाई कोर्ट की सिंगल बेंच के पास जाते हैं। जनहित याचिकाओं की संख्या में मामूली गिरावट का यह भी एक बड़ा कारण है।
इस मसले पर वकील आनंद याग्निक ने कहा, “न्यायिक सक्रियता (Judicial activism) जनहित याचिका की नींव है। यदि न्यायपालिका जनहित याचिकाओं को प्रोत्साहित देना बंद कर देती है, तो उत्साह खत्म होना स्वाभाविक ही है। यह 2014 के बाद से घट रहा है।” गौरतलब है कि याग्निक ने अपने सीनियर वकील गिरीश पटेल द्वारा वंचितों के विभिन्न अधिकारों की रक्षा के लिए नए प्रारूप में जनहित याचिका दायर करना जारी रखा है। उन्होंने 2011 और 2014 के बीच जनहित याचिकाओं की सुनवाई में वृद्धि के लिए बेंच के नजरिये को जिम्मेदार ठहराया।
वकील केआर कोष्टी भी जनहित याचिकाएं दायर करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि जनहित के नाम पर दायर मुकदमों के खिलाफ जजों द्वारा अपनाए गए सख्त रुख के कारण भी कई लोग दूर ही रहते हैं।
उनका यह भी मानना है कि न्यायपालिका के समक्ष कम संख्या में मुद्दों को उठाए जाने के पीछे समाज में घटती सक्रियता भी एक कारण है। जनहित याचिकाओं की कम संख्या के अलावा, वकील यह भी बताते हैं कि उनमें से कई पर सुनवाई नहीं हो रही है। वे कई वर्षों से पेंडिंग हैं। उन्होंने कहा कि मुकदमेबाजी का खर्च भी मायने रखता है। उनके ग्राहक दस्तावेजों के अनुवाद कार्य के बाद खर्च करने के इच्छुक नहीं होते हैं। जबकि अधिकांश जनहित याचिकाएं स्थानीय भाषा में होती हैं।
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