गुजरात सरकार ने 15 अगस्त को उन 11 दोषियों को रिहा कर दिया, जिन्हें 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। गुजरात सरकार द्वारा क्षमा वाले उनके आवेदन को मंजूरी देने के बाद दोषी गोधरा उप-जेल से बाहर निकल गए।
21 जनवरी, 2008 को मुंबई में एक विशेष केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद 11 लोगों को सामूहिक बलात्कार और बिलकिस बानो के परिवार के सात सदस्यों की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। मारे गए लोगों में से एक की उम्र तीन वर्ष थी। बॉम्बे हाई कोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा, दोषियों ने 15 साल से अधिक जेल की सजा भी काट ली, तब जाकर उनमें से एक राधेश्याम शाह ने समय से पहले रिहाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
मई 2022 में शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार को क्षमा के सवाल पर गौर करने का निर्देश दिया, क्योंकि अपराध उसी राज्य में हुआ था। ऐसे में नीतियों के अनुसार, क्षमा पर विचार भी मुकदमे की सुनवाई वाले राज्य में होनी चाहिए थी। द हिंदू के अनुसार, 1992 की यह क्षमा नीति गुजरात हाई कोर्ट के 2012 के एक आदेश में उद्धृत की गई थी। इसमें उन दोषियों की शीघ्र रिहाई का अनुमान था, जिन्होंने 18.12.1978 को और उसके बाद 14 वर्षों की जेल की सजा काट ली है।
दोषी ठहराए गए शाह ने अपनी याचिका के समय 1 अप्रैल 2022 तक 15 साल और 4 महीने की जेल की सजा काट चुका था। हालांकि गुजरात सरकार ने शीर्ष अदालत को बताया कि इस मामले में उपयुक्त प्राधिकारी महाराष्ट्र होगा। इसलिए कि सुनवाई वहीं संपन्न हुई। इस पर शीर्ष अदालत ने कहा कि चूंकि अपराध गुजरात में किया गया था, इसलिए क्षमा नीति वहीं की लागू होगी।
न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य सरकार के लिए 9 जुलाई 1992 को गुजरात की क्षमा नीति के अनुसार उसकी रिहाई पर विचार करने के लिए आरोपी के आवेदन को अनुमति दे दी। यह मानते हुए कि शाह और अन्य आरोपियों की सजा के समय यह नीति प्रभावी थी। , अदालत ने देखा, “हरियाणा राज्य बनाम जगदीश में अदालत द्वारा यह तय किया गया है कि समय से पहले रिहाई के आवेदन पर उस नीति के आधार पर विचार करना होगा, जो दोषसिद्धि की तारीख पर मौजूद थी।”
इस आदेश के बाद पंचमहल कलेक्टर सुजल मायात्रा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। इसके बाद समिति ने सभी 11 दोषियों को रिहा करने का सर्वसम्मत निर्णय लिया। फिर राज्य सरकार ने इस फैसले पर मुहर लगा दी।
चूंकि कानून और व्यवस्था, पुलिस और जेल भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार राज्य के विषय हैं, इसलिए धारा 432 के तहत दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) राज्य सरकारों को सजा माफ करने की शक्ति प्रदान करती है। हालांकि सीआरपीसी की धारा 435 के तहत कैदियों की समयपूर्व रिहाई के लिए केंद्र सरकार की सहमति एक आवश्यक शर्त है। खासकर उन मामलों में जहां अपराध की जांच सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा की गई हो। इसे दिल्ली हाई कोर्ट ने 2021 के फैसले में भी बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि सीआरपीसी की धारा 435 के तहत क्षमा पर आगे बढ़ने से पहले केंद्र सरकार की सहमति अनिवार्य है।
इस साल की शुरुआत में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ या आजादी के 75 साल के जश्न के हिस्से के रूप में तैयार की गई एक विशेष नीति के तहत दोषी कैदियों की रिहाई से संबंधित राज्यों को दिशानिर्देश जारी किए थे। उक्त दिशानिर्देशों के अनुसार, 15 अगस्त 2022, 26 जनवरी 2023 (गणतंत्र दिवस) और 15 अगस्त 2023 को कैदियों को विशेष छूट दी जानी थी। लेकिन इन दिशानिर्देशों में आजीवन कारावास की सजा पाने वाले और बलात्कार के दोषियों को समय से पहले रिहा करने की बात नहीं है।
कानूनी विशेषज्ञों ने बताया है कि कैसे परस्पर विरोधी क्षमा नीतियां कई कठिन प्रश्न उठा देती हैं। द वायर से बात करते हुए गुजरात हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील आनंद याज्ञनिक ने कहा कि क्षमा नीति निर्भया कांड के बाद के जमाने में सामने आए नए आपराधिक न्यायशास्त्र के साथ असंगत है। उन्होंने कहा कि भारत के संघीय और एकात्मक ढांचे के तहत कानून और व्यवस्था राज्य के विषय हैं और यह राज्य सरकारों को अपनी क्षमा नीतियां बनाने का अधिकार देता है।
याज्ञनिक ने बताया, “लेकिन कुछ समय के लिए यह मान लेते हैं कि कानून और व्यवस्था राज्य के विषय हैं। फिर भी, राज्य और केंद्र सरकार दोनों की नीतियों को निर्भया कांड के बाद के जमाने में संशोधित किया जाना चाहिए था। विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ इस तरह के जघन्य अपराधों पर न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिशों को देखते हुए। ”
इसके अलावा, बिलकिस बानो की वकील शोभा गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 2005 के एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि आजीवन कारावास का मतलब “आखिरी सांस तक” जेल है। उन्होंने कहा, “इसके अलावा क्षमा की दो श्रेणियां हैं। जघन्य अपराधों के संबंध में समय पूर्व रिहाई अधिकार का मामला नहीं है। दूसरी बात यह है कि अपराध, अपराध की प्रकृति आदि जैसे कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ” गुप्ता ने यह भी बताया कि उन्हें 1992 के नोटिस की कॉपी नहीं मिली है।
स्वामी श्रद्धानंद बनाम कर्नाटक राज्य के 2008 के फैसले में निर्धारित दिशा-निर्देशों की ओर इशारा करते हुए बानो की वकील ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने तब स्पष्ट रूप से कहा था कि अपराध की प्रकृति को देखा जाना चाहिए। पीड़ितों पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखना चाहिए। उन्होंने कहा, “इस मामले में पीड़ित की चिंताओं और सुरक्षा ध्यान देने वाले कारकों में से एक हैं। छूट अभियुक्त द्वारा अर्जित की जाने वाली उपकार है। प्रश्न यह है कि क्या इसके लिए पीड़िता एक ऐसी शख्स नहीं है जिसे बुलाया जाए और नोटिस देकर पूछा जाए? जब शीर्ष अदालत ने खुद बिलकिस को मुआवजा देने के अपने आदेश में यह नोट किया है कि वह और उनके पति सुरक्षा के लिए दर-दर भटक रहे हैं, तो इससे पता चलता है कि वे कितने असुरक्षित हैं।
वरिष्ठ वकील मिहिर देसाई ने भी गुजरात सरकार और केंद्र सरकार की क्षमा वाली नीतियों के बीच विरोधाभासों पर जोर देते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 435 के तहत, “उन्हें केंद्र सरकार से परामर्श करना होगा। हम नहीं जानते कि क्या यह किया गया था। लेकिन, ऐसा होना चाहिए था।” उन्होंने कहा कि यदि परामर्श किया जाता है, तो केंद्र सरकार को सहमति नहीं देनी चाहिए, “क्योंकि उनकी नीति बलात्कारियों को क्षमा देने की अनुमति नहीं देती है। किसी भी घटना में क्षमा के सभी मामलों में पीड़ितों के परिवारों के विचार लेना महत्वपूर्ण है।”
राज्य की नीति में बदलाव पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर देती हुई न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश ने कहा कि हालांकि उन्होंने गुजरात नीति में पाया कि यह गंभीर प्रकृति के कई अपराधों में क्षमा को रोकती है, लेकिन दुष्कर्म के मामले इनमें नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वह दुष्कर्म को “बहुत ही गंभीर अपराध” मानती है।
उन्होंने कहा, “अब जब यह चूक सामने आ गई है, तो शायद गुजरात सरकार इसे भी शामिल करने के लिए याचिका दायर कर सकती है।”
वरिष्ठ वकील नित्या रामकृष्णन ने कहा कि कार्यपालिका को दी गई समय से पहले रिहाई की शक्ति “मानव या सामाजिक न्याय के तत्व को सुनिश्चित करने के लिए थी, जो कानून या न्यायिक प्रक्रिया से बच सकती है।”
उन्होंने कहा कि इसके बावजूद, “हम देखते हैं कि राज्य सरकारें नियमित रूप से समय से पहले रिहाई से इनकार कर देती हैं, यहां तक कि बिना सोचे-समझे किए गए अपराध में, या जहां अपराध पहली बार किया हो या एक ही पीड़ित होता है। गैंगरेप और 7 हत्याओं के मामले में बिल्किस के दोषियों की इतनी मुस्तैदी से रिहाई- यानी कई पूर्व नियोजित अपराध और वह भी सांप्रदायिक दंगों के दौरान- इसलिए लोगों की अंतरात्मा को झकझोर देती है।”
रामकृष्णन ने उल्लेख किया कि सभी 11 दोषियों को मुक्त करने में सवाल यह था, “इस मामले में सामाजिक न्याय या मानवीय न्याय क्या था? कटु सत्य यह है कि लोग दशकों से विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में या मौत के मुहाने पर हैं। यही कारण है कि यह हालिया रिहाई चौंकाने वाली और जगा देने वाली है।”
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