अहमदाबाद — उत्तर गुजरात के डीसा में मंगलवार को एक पटाखा फैक्ट्री और गोदाम में हुए भीषण धमाके ने 21 लोगों की जान ले ली। लेकिन इस दर्दनाक हादसे के साथ एक और कड़वी हकीकत उजागर हुई — बच्चों से कराए जा रहे खतरनाक काम और प्रशासन की आपराधिक लापरवाही।
स्थानीय लोगों और बचाव में बचे श्रमिकों के अनुसार, फैक्ट्री में महज 6 साल के बच्चों से बारूद भरवाने, फ्यूज लगाने और पटाखे असेंबल करने जैसे बेहद खतरनाक और संवेदनशील काम कराए जा रहे थे — वो भी नाममात्र की मज़दूरी पर।
डीसा पुलिस विभाग और मृतकों के परिजनों ने पुष्टि की कि अधिकतर बच्चे गरीब प्रवासी मज़दूरों के थे। इन मज़दूरों को ₹100 से ₹200 प्रतिदिन का वादा किया गया था, लेकिन कई को एक भी रुपया नहीं मिला। हादसे के बाद मंजर इतना भयावह था कि एक मामले में केवल एक बच्चे का कटा हुआ सिर ही बरामद हो सका।
“मेरे तीनों बच्चे नाबालिग थे और इसी पटाखा फैक्ट्री में काम करते थे। अब तीनों मुझसे छिन गए,” — ये कहते हुए मध्य प्रदेश के हरदा जिले से आए मज़दूर भगवान नायक का गला भर आया।
इस फैक्ट्री में अवैध बाल श्रम और अत्यधिक खतरनाक परिस्थितियों के स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद बनासकांठा पुलिस ने अब तक इस संबंध में कोई विशेष धाराएं नहीं जोड़ी हैं। वहीं, प्रशासन यह स्पष्ट नहीं कर पाया कि ऐसी खतरनाक इकाई को चलने की अनुमति कैसे मिली।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस विस्फोट में मारे गए 27 में से 20 मज़दूर वही थे जो फरवरी 2024 में मध्य प्रदेश के हरदा में हुई एक और पटाखा फैक्ट्री ब्लास्ट में बाल-बाल बचे थे, जिसमें 11 लोगों की मौत हुई थी।
पुलिस सूत्रों के मुताबिक, “हरदा विस्फोट के बाद इन्हीं मज़दूरों को डीसा लाया गया और उसी आरोपी फैक्ट्री मालिक, राजेश अग्रवाल, के लिए काम पर लगाया गया। वह फिलहाल फरार है।”
जांच से जुड़े एक पुलिस अधिकारी ने बताया, “इन मज़दूरों से ₹300 से ₹400 प्रतिदिन का वादा किया गया था, लेकिन उन्हें उसी गोदाम में रहने को मजबूर किया गया जिसमें बारूद रखा गया था — और अंत में वहीं उनकी मौत हो गई।”
कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवाणी, जो पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे हैं, ने प्रशासन पर कड़ी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, “यह केवल मज़दूरी की चोरी या बाल श्रम का मामला नहीं है — यह एक संगठित हत्या है, जिसे राज्य की विफलता ने संभव बनाया।”
उन्होंने आगे कहा, “इन मज़दूरों को कम से कम 1,000 रुपए प्रतिदिन की मज़दूरी मिलनी चाहिए थी और सुरक्षित काम का वातावरण सुनिश्चित किया जाना चाहिए था। लेकिन उन्हें ज़िंदा बारूद के ढेर पर बिठा दिया गया। ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए।”
फिलहाल, रेस्क्यू और शवों की पहचान का काम जारी है। उधर सामाजिक कार्यकर्ताओं और मृतकों के परिजन न्यायिक जांच, मुआवज़ा और दोषियों पर कठोर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं।
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