आप किसी को सेना से निकाल सकते हैं, लेकिन उसके अंदर से सैन्य भावना को नहीं निकाल सकते। मेरे साथ ऐसा ही हुआ था, जब मैंने भारतीय सेना में दस साल तक सेवा देने के बाद कॉरपोरेट जगत में कदम रखा। यह बहुत पहले 1970 के दशक की बात है। पूर्व सैनिक होने के नाते 1971 के युद्ध का अनुभव मेरी सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धि के रूप में मेरे हृदय में, जीवन में तब भी बसा था, जब मैंने एक कॉर्पोरेट व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बना ली थी।
सैनिक के रूप में गुजारे दिनों, खतरों और आपस के अनकहे बंधनों की पुरानी यादों ने मुझे किताब लिखने वाला लेखक बना दिया। इसने मुझे भारत के सैन्य इतिहास पर शोध और लेखन की एक कठिन यात्रा करा दी, जिसके कारण दो और किताबें और इस शैली में असंख्य ब्लॉग और लेख लिखे। फिर अंत में 2016 में जाकर एक एनजीओ- कलर्स ऑफ ग्लोरी फाउंडेशन (सीओजीएफ)- की स्थापना की। यह संगठन तब से सेना को करियर के रूप में लेने के लिए देश के युवाओं को लगातार प्रेरित करने का काम कर रहा है।
यहां तक कि जब पिछले दिसंबर में जब 1971 की ऐतिहासिक जीत की स्वर्ण जयंती मनाने के मौके पर हुए कार्यक्रमों मैं शामिल हो रहा था, तब तक मैंने उस युद्ध में शामिल भारतीय सेना के दिग्गजों की व्यथा के बारे में नहीं सोचा था। ये उपेक्षित नायक हैं। जो शॉर्ट सर्विस कमीशन ऑफिसर (एसएससीओ) थे और जिन्होंने युद्ध में भाग लिया था, उनमें से अधिकतर अब सत्तर के दशक में हैं। लेकिन अभी तक उन्हें स्थायी नियमित कमीशन (पीआरसी) की पेशकश नहीं की गई है।
अब जब “स्वर्णिम विजय वर्ष” के बहुप्रचारित समारोह खत्म हो चुके हैं, तो देश के राजनीतिक और सैन्य प्रतिष्ठान के लिए यह समय उन भूले-बिसरे दिग्गजों को ईमानदारी से खोजने और उन्हें उचित सम्मान देने का समय हो सकता है। हाल के वर्षों में स्वयं अधिकारियों ने माना है कि इनमें से अधिकांश ‘रिलीज किए गए एसएससीओ’ ने युद्ध के दौरान योगदान दिया। फिर क्यों एक के बाद आई केंद्र सरकारें स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी सैन्य उपलब्धि की परिलक्षित महिमा के आधार पर उनके योगदान को पहचानने में विफल रहीं?
उन्हें पीआरसी की पेशकश करके, या नागरिक जीवन में उनके पुनर्वास के उपायों को अपनाने के जरिये, सेवा में दीर्घकालिक प्रतिधारण के माध्यम से, या वयोवृद्ध पेंशन जैसे मौद्रिक लाभों का प्रावधान नहीं किया गया? दरअसल यह वर्षों से सरकारों द्वारा उन सपूतों के साथ हुए विश्वासघात की बदसूरत कहानी है।
1971 के युद्ध के एसएससीओ
शॉर्ट सर्विस स्ट्रीम के पहले दस पाठ्यक्रमों से सेना में कमीशन प्राप्त अधिकारियों ने 1971 के युद्ध में भाग लिया। उस समय कप्तानों और लेफ्टिनेंटों के पदों पर रहते हुए वे सेना के संचालन में मैदान में उतारे गए कनिष्ठ नेतृत्व का लगभग साठ प्रतिशत थे। सामान्य ज्ञान बताता है कि पीआरसी के लिए उनकी उपयुक्तता का आकलन करने में इन अधिकारियों का परिचालन प्रदर्शन प्रमुख कारक होना चाहिए था। हालांकि, सेना ने इस विवेकपूर्ण दृष्टिकोण को आसानी से नजरअंदाज कर दिया और मुख्य रूप से वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) के आधार पर अधिकारियों का मूल्यांकन करने की पुरातन प्रथा का पालन किया, जो अत्यधिक व्यक्तिपरक और अवैज्ञानिक तरीका है। आखिरकार युद्ध हर दिन नहीं होते हैं, लेकिन जब वे होते हैं तो वे अनाज को भूसी से अलग करने का उत्कृष्ट अवसर प्रस्तुत करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाता है।
युद्ध की तैयारी के दौरान एसएससीओ की महत्वपूर्ण भूमिका को महसूस करते हुए तत्कालीन सरकार ने उनके मनोबल को बढ़ाने के लिए विभिन्न योजनाओं की घोषणा की थी। एसएससीओ के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा सहित, जिसे दो साल की अवधि के बाद मनमाने ढंग से वापस ले लिया गया था, युद्ध के दिग्गजों के लिए कल्याणकारी उपायों के रूप में पेश किया गया था।
नतीजतन संबंधित अधिकारी, जिनके पास युद्ध की तैयारियों में शामिल होने के कारण अपने पुनर्वास के लिए खुद को तैयार करने का समय नहीं था, उन्हें एक अपरिचित नागरिक वातावरण में खुद को बचने के लिए मजबूर होना पड़ा। बेशक, उन्हें पीआरसी के बिना किसी वादे के अगले पांच साल की विस्तारित अवधि के लिए सेवा जारी रखने का विकल्प दिया गया था – जो सेना में अधिकारियों की कमी को पूरा करने के लिए उनकी दुर्दशा का स्पष्ट शोषण था।
सेना को यह समझाने में मुश्किल होगी कि उसने ऐसे अधिकारियों की सेवाओं को स्थायी प्रतिधारण के लिए अनुपयुक्त क्यों पाया, जबकि यह पांच और वर्षों के लिए पर्याप्त था।
युद्ध के इन दिग्गजों के साथ किए गए अनुचित व्यवहार ने कभी भी जनता का ध्यान आकर्षित नहीं किया, क्योंकि वे ऐसे सम्मानित व्यक्ति थे, जिन्होंने मुकदमेबाजी का सहारा लेने या अपनी शिकायतों को मीडिया तक ले जाने के बजाय अपनी लड़ाई खुद लड़ने और चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी खुद खड़े होने का विकल्प चुना। यह श्रेय उनको ही जाता है कि उनमें से कई ने अपने नए करियर में खुद को अच्छी तरह से खपा लिया और अपने दम पर समृद्ध हुए। हालांकि, उनमें से हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं था।
उनमें से बहुत से ऐसे वरिष्ठ नागरिक हैं जो बहुत खुश नहीं हैं, जो अक्सर अपने बच्चों या भाई-बहनों पर निर्भर रहते हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट में केस
इंडियन शॉर्ट सर्विस कमीशन ऑफिसर्स एसोसिएशन (ISSCOA) ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर कर रखी है। इमें एसएससीओ को आनुपातिक रूप से उचित आधार पर पेंशन देने की मांग की गई है, लेकिन यह मामला वर्षों से खींच रहा है।
न्यायपालिका, जो सेवाओं में महिला अधिकारियों जैसे लोकप्रिय मुद्दों को उठाकर सुर्खियों में है, अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में ‘आ चुके और धूल-धूसरित दिग्गजों’ के समूह के बारे में शायद ही परेशान है।
जख्म पर नमक छिड़कने के लिए वर्तमान सरकार ने एक साल या उससे भी पहले स्वेच्छा से घोषणा की कि वह भारतीय सेना से रिलीज हुए सभी आपातकालीन/शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों को मासिक अनुग्रह भत्ता के माध्यम से सम्मानित करेगी, जिन्होंने 1965 और 1971 के युद्धों में भाग लिया था।
बाद में, जैसा लगता है कि उस योजना को छोड़ दिया गया। यह स्पष्ट था कि कुछ हलचल चल रही थी, क्योंकि सेना मुख्यालय ने प्रभावित अधिकारियों को लेकर डेटा संकलित करना भी शुरू कर दिया था। बाद में नौकरशाहों ने आदतन इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
यह अकल्पनीय है कि एक सरकार जो नई दिल्ली में सेंट्रल विस्टा परियोजना जैसे बड़े उपक्रमों के लिए पर्याप्त धन प्राप्त कर सकती है, वह मामूली बजट को पूरा नहीं कर सकती है, जो कि युद्ध के दिग्गजों को बहुत बड़ी संख्या में भुगतान करने के लिए आवश्यक नहीं है।
कोई भी देश, जो वास्तव में अपने सैनिकों का सम्मान करता है, उनके साथ ऐसा कठोर व्यवहार नहीं करता है। ऐसे में ऐतिहासिक जीत का जश्न मनाने का उन्हें क्या नैतिक अधिकार है, जब वे उन लोगों का सम्मान नहीं कर सकते जिन्होंने इसे हासिल करने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी?
(लेखक डीपी रामचंद्रन भारतीय सेना के पूर्व अधिकारी और 1971 युद्ध के अनुभवी हैं। वह कलर्स ऑफ ग्लोरी फाउंडेशन के संस्थापक भी हैं- जो भारत की सैन्य विरासत को बढ़ावा देने के लिए काम करता है।)
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