सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को गुजरात हाई कोर्ट के 2013 वाले उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें सहकारी क्षेत्र से संबंधित 97 वें संवैधानिक संशोधन को रद्द कर दिया गया था। इसमें संसद को राज्य सूची के तहत आने वाले क्षेत्रों में राज्यों पर व्यापक नियंत्रण की अनुमति दी थी। तत्कालीन केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भास्कर भट्टाचार्य और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की बेंच के आदेश में कहा गया था कि “एक संवैधानिक प्राधिकरण परोक्ष रूप से वह नहीं कर सकता, जिसे उसे सीधे करने की अनुमति नहीं है।”
हालांकि शीर्ष अदालत ने तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ आठ साल पुराने आदेश को बरकरार रखा है, लेकिन यह जिस समय आया है, वह महत्वपूर्ण है। यह निर्णय नरेंद्र मोदी सरकार के पखवाड़े भर पुराने सहकारिता मंत्रालय के गठन को कानूनी रूप से चुनौती देने के लिए नजीर बना सकता है। यह मंत्रालय गृह मंत्री अमित शाह के पास है, जिसका मकसद राजनीतिक-रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सहकारी क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन करना है।
विपक्षी दल, विशेष रूप से महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र के दिग्गज शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा (एनसीपी) ने पहले ही बैंकिंग विनियमन अधिनियम में 2020 के संशोधनों पर अपनी आपत्तियां जाहिर कर दी हैं, जिसका तार्किक परिणाम या कालक्रम केंद्रीय सहकारिता मंत्रालय का गठन था।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि महाराष्ट्र में देश में सबसे अधिक 1,63,745 सहकारी समितियां हैं। इसके बाद गुजरात में 79,395 सहकारी समितियां हैं। वैसे देश में कुल 7.09 लाख सहकारी समितियां हैं। बता दें कि यूपीए के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा उस समय हुई छेड़छाड़ के प्रयासों को पहली चुनौती किसी और ने नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले तत्कालीन विपक्ष शासित राज्य ने दी थी।
अब वापस अदालती मामले पर आते हैं। गुजरात हाई कोर्ट ने कहा था कि संसद द्वारा किए गए संशोधनों के व्यापक प्रभाव से राज्य की विधानसभाओं के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण हुआ।
तकनीकी शब्दों में, सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसने संविधान (97वां संशोधन) अधिनियम-2011 के प्रावधानों को उस हद तक रद्द कर दिया, जिस हद तक इसने सहकारी समितियों से निपटने के लिए संविधान में भाग IX B को पेश किया था। इस तरह जस्टिस रोहिंटन नरीमन, केएम जोसेफ और बीआर गवई की तीन जजों की बेंच ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया।
हाई कोर्ट ने संशोधन को रद्द करने के लिए मजबूत आधार देखे थे, क्योंकि संसद से पास होने के बाद इस पर संविधान के अनुच्छेद 368 (2) के तहत अनिवार्य रूप से राज्य विधानसभाओं में से आधे की ओर से पुष्टि नहीं मिली थी। अनुच्छेद 368 (2) में कहा गया है कि राज्य सूची में परिवर्तन करने वाले संशोधन के लिए सभी राज्य विधानसभाओं में कम से कम आधे का अनुसमर्थन आवश्यक है। हाई कोर्ट ने कहा कि चूंकि सातवीं अनुसूची की सूची-II में प्रविष्टि 32 के अनुसार, सहकारी समितियां राज्य का विषय थीं, इसलिए भाग IX बी को पेश करने वाले संशोधन में अनुच्छेद 368 (2) के अनुसार अनुसमर्थन आवश्यक था। प्रमुख प्रावधानों का हवाला देते हुए अदालत ने बताया कि भाग IXB ने सहकारी समितियों से संबंधित पहलुओं पर राज्य विधानसभाओं के दायरे को सीमित करने वाली कई शर्तें रखीं। संशोधन चाहता था कि राज्य के कानून दरअसल भाग IXB की शर्तों के अधीन हो जाएं।
आम बोलचाल में संशोधन ने राज्य विधानमंडलों पर कुछ प्रतिबंध लगाने के लिए एक सहकारी समिति के निदेशकों की अधिकतम संख्या निर्धारित करने की मांग की, जो 21 से अधिक नहीं होनी चाहिए। बोर्ड के निर्वाचित सदस्यों और उसके पदाधिकारियों के कार्यकाल की अवधि पांच वर्ष के लिए निर्धारित की गई थी। चुनाव के संचालन, ऑडिट की समय-अवधि और वित्तीय खातों को दाखिल करने से संबंधित शर्तें भी पेश की गईं। वास्तव में संशोधन ने राज्य विधानसभाओं के लिए सख्त आदेश तय किए।
वर्तमान संदर्भ में, विपक्षी दल मोदी सरकार के नए सहकारिता मंत्रालय को सहकारी क्षेत्र, विशेष रूप से भारी मात्रा में नकदी रखने वाले सहकारी बैंकों के अपहरण के प्रयास के रूप में देखते हैं।
वे सितंबर 2020 में बैंकिंग विनियमन अधिनियम में संशोधन के समय संसद में दिए अपने तर्क को रखते हैं, जो सहकारी बैंकों को भारतीय रिजर्व बैंक की प्रत्यक्ष निगरानी में लाता है। वास्तव में इसका अर्थ है कि राज्य सरकार की सलाह पर आरबीआई सहकारी बैंकों के निदेशक मंडल का स्थान ले सकता है।
विपक्ष के विचारों को शरद पवार के दो बयानों में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है, जिन्होंने हाल ही में इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केरल के पूर्व वित्त मंत्री सीपीएम नेता थॉमस इसाक से मुलाकात की थी। नए मंत्रालय की घोषणा के बाद पवार ने कहा, “संविधान के अनुसार, एक राज्य में पंजीकृत सहकारी संस्थाएं उस राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। केंद्र सरकार की मंशा अभी साफ नहीं हुई है, लेकिन उनके मन में कुछ और हो सकता है। यह तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की तरह इस क्षेत्र के लिए नए कानून पेश किए जाने के बाद ही पता चलेगा, जिसका किसान पिछले आठ महीनों से विरोध कर रहे हैं।”
इसी तरह थॉमस इसाक ने टिप्पणी की, “नए सहकारिता मंत्रालय को गृह मंत्री के अधीन रखने से किस तरह के तालमेल की उम्मीद है? क्या इसके पीछे मकसद यह है कि अमित शाह ने गुजरात सहकारी क्षेत्र में जो किया, उसे पूरे देश में दोहराना चाहते हैं? मुश्किल है, क्योंकि यह राज्य का अधिकार क्षेत्र है। वह यह सब करने के लिए यकीनन आरबीआई से मदद की उम्मीद कर रहे होंगे।”
गौरतलब है कि 6 जुलाई को केंद्र सरकार की ओर से एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि सहकारिता मंत्रालय इस क्षेत्र के लिए एक अलग प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढांचा प्रदान करेगा, और बहु-राज्य सहकारी समितियों के विकास को सक्षम करेगा।
यह एक महत्वपूर्ण मोड़ है, क्योंकि महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों में सहकारी क्षेत्र काफी जीवंत है और कई विपक्षी दल इससे अपनी ताकत हासिल करते हैं, जबकि भाजपा का वहां उतनी पैठ नहीं है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस समय महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार में शामिल 16 कैबिनेट मंत्री इसी सहकारिता क्षेत्र से आए हुए हैं। और, पवार तो इन सबसे भी ऊपर हैं।
गुजरात एक उदाहरण है, बल्कि एक मॉडल है, जहां भाजपा को राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस को पछाड़ने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 80,000 सहकारी समितियों के बहुमत पर नियंत्रण के लिए दो दशकों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
वे अब इनमें से सबसे बड़े कायरा जिला दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ, या विश्व प्रसिद्ध अमूल ब्रांड के निर्माताओं को निशाना बना रहे हैं। गुजरात हाई कोर्ट में अमूल की प्रबंध समिति में तीन सदस्यों को नामित करने के लिए पिछले साल राज्य सरकार के प्रयास पर एक मामला पहले से ही लंबित है। इसके उपाध्यक्ष राजेंद्रसिंह परमार (बोरसाड से कांग्रेस विधायक) के शब्दों में, यह मसला सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए “एक नकली बहुमत” का है। अब तक अमूल बोर्ड पर भाजपा और कांग्रेस का एक असामान्य संयुक्त पैनल राज कर रहा है। मजे की बात यह कि इसके अध्यक्ष रामसिंह परमार एक पूर्व कांग्रेस विधायक हैं, जो भाजपा में शामिल हो गए और जीत भी गए।