इस बार के बजट में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए आवंटित 60,000 करोड़ रुपये 2016-17 के बाद से सबसे कम आवंटन है। यह इस योजना के सरकारी आकलन के बावजूद है कि इसे “ग्रामीण भारत में समावेशी विकास (inclusive growth) के लिए एक शक्तिशाली साधन” कहा गया है। बता दें कि मनरेगा ने अपने 17 वर्ष पूरे कर लिए हैं।
इस वर्ष के 60,000 करोड़ रुपये के आवंटन की वर्तमान वर्ष के संशोधित परिव्यय (outlay) 89,400 करोड़ रुपये की सीधी तुलना में 33% की गिरावट दिखाई देती है। वास्तव में आवंटन में सबसे ज्यादा उछाल 2020-21 यानी कोविड वर्ष में देखना आश्चर्यजनक नहीं था। उसके बाद से लगातार तीन वर्षों से आवंटन में लगातार कमी की जा रही है, जिससे इस वर्ष का बजट परिव्यय (budget outlay) कोविड वर्ष में आवंटन का मात्र 44% रह गया है। अप्रैल 2008 में सभी ग्रामीण क्षेत्रों को कवर करने के लिए योजना के विस्तार के बाद से यह सबसे बड़ी कटौती है।
पिछले साल अगस्त में लोकसभा में मनरेगा के कामकाज पर संसदीय स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि डेटा “काम की मांग में वृद्धि स्पष्ट रूप से लगातार वित्तीय वर्षों के लिए बढ़ते बजटीय आवंटन को दिखाता है।”
मनरेगा वेबसाइट के अनुसार, 2022-23 में अब तक प्रति परिवार दिए गए रोजगार के दिनों की औसत संख्या लगभग 43 है। एक ग्रामीण परिवार, जिसके वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हैं, को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी रोजगार की गारंटी देकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आजीविका सुरक्षा (livelihood security) को बढ़ाना है।
यदि हम यह मान लें कि 2022-23 में 229 रुपये की मजदूरी दर पर घरों की समान संख्या (5.8 करोड़) को काम उपलब्ध कराया गया है, तो 60,0000 करोड़ रुपये का मौजूदा आवंटन प्रति परिवार औसतन केवल 32 दिनों के लिए काम देगा।
इसके उलट अगर औसतन 48 दिन काम मिलता तो करीब 2 करोड़ कम परिवारों को काम मिलता। किसी भी तरह से केवल वर्तमान आवंटन के साथ परिवारों की संख्या या दिनों की औसत संख्या अब तक की सबसे कम होगी। हालांकि, 2015-16 के बाद से सरकार ने नियमित रूप से पूरक बजट के माध्यम से बजटीय आवंटन में वृद्धि की है।
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