अहमदाबाद के ओढव इलाके में रहने वाले 45 वर्षीय दीपक परमार ने अपने जीवन का लगभग आधा हिस्सा दर्द में बिताया है। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान लगी एक गोली का जख्म आज भी भर नहीं सका है, 23 साल बाद भी वह घाव रिसता रहता है।
एक गोली जिसने सब कुछ बदल दिया
परमार याद करते हुए कहते हैं, “यह 1 मार्च 2002 था। मैं काम से लौट रहा था जब अचानक मुझे पीठ में कुछ गर्म सा चुभता हुआ महसूस हुआ। यह जलती हुई छड़ जैसा था। मैं गिर पड़ा, खून से लथपथ। फिर सब कुछ अंधेरा हो गया।”
उस दिन के बाद से, उनका जख्म कभी पूरी तरह से नहीं भरा। खून, मवाद और तरल आज भी कभी-कभी बहते रहते हैं, जो उनके बर्बाद हुए जीवन की स्थायी याद दिलाते हैं। लेकिन शारीरिक पीड़ा के अलावा, परमार ने एक और बड़ा दुख झेला—गलत पहचान, कानूनी लड़ाई और खोए हुए अवसरों का।
एक प्रशासनिक गलती जिसने जिंदगी बर्बाद कर दी
22 वर्षीय राजमिस्त्री दशरथ परमार को शारदाबेन अस्पताल में अचेत अवस्था में भर्ती किया गया था, लेकिन गलती से उनके नाम को “दीपक” दर्ज कर दिया गया।
वे कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि यह गलती किसने की, लेकिन इसने मेरी जिंदगी तबाह कर दी।”
यह गलती उनकी मुसीबतों की शुरुआत थी। जब परमार जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे, तभी उन्हें झूठे हत्या के मामले में फंसा दिया गया। पुलिस ने उन पर दंगा करने और एक अज्ञात व्यक्ति की हत्या का आरोप लगा दिया, जिसका शव उस स्थान से दो किलोमीटर दूर मिला था जहां परमार को गोली लगी थी।
वे दुख से कहते हैं “मैं अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा था, और मुझे हत्यारा बना दिया गया।”
न्याय और जीविका की लड़ाई
तीन साल तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद, परमार ने अपनी बेगुनाही साबित करने की कोशिश की, लेकिन दर्द से राहत नहीं मिली। एक एनजीओ ने उन्हें एक छोटा सा पान स्टॉल खोलने में मदद की, जिसे उन्होंने ‘गोधराकांड पान पार्लर’ नाम दिया। लेकिन यहां भी मुश्किलें खत्म नहीं हुईं।
वे कहते हैं, “स्थानीय लोगों ने नाम को लेकर आपत्ति जताई, और जल्द ही नगर निगम ने मेरी दुकान हटा दी। मेरी जीविका का एकमात्र सहारा छिन गया।”
कानूनी लड़ाई सात साल तक चली, 2009 में अदालत ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
वे बताते हैं, “14 साल तक मेरा घाव लगातार रिसता रहा। कुछ दोस्तों ने पैसे इकट्ठे कर सर्जरी करवाई, लेकिन अब भी दर्द खत्म नहीं हुआ है।”
दो दशकों की जद्दोजहद
आज भी अविवाहित और स्थायी रोजगार के बिना, परमार दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं। वह गोली न सिर्फ उनकी जवानी और ताकत छीन ले गई बल्कि उनकी गरिमा भी छीन ली।
वे कहते हैं, “मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, लेकिन यह जख्म मुझे भूलने नहीं देता। मैं 23 साल से खून बहा रहा हूं।”
परमार का संघर्ष अब भी जारी है, और वे गुजरात दंगों के उन गहरे घावों के जीवित प्रतीक हैं जो आज भी नहीं भरे हैं।
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