चुनाव से ऐन पहले दल-बदल और पाला बदल आम बात होती है। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां बड़े पैमाने पर राजनीति वजूद बचाने के लिए आवश्यक प्राणवायु के समान है। ऐसे में इधर या उधर होना स्वाभाविक है। वैसे पाला बदल ने शायद ही कभी बगावत रूप लिया। लोगों ने उन पार्टियों को छोड़ दिया, जिनके टिकट पर वे चुने गए थे। इसलिए कि उन्हें इस बार टिकट कटने का डर था। इसलिए वह टिकट के लिए सुरक्षित जगह की तलाश में थे। ऐसे मामलों में उनके मतदाताओं द्वारा उन पर विकल्प की तलाश करने के लिए दबाव भी डाला गया था। वहां, जहां मौजूदा सत्ताधारी पार्टी अलोकप्रिय हो गई थी और शायद हार की आहट सुनाई पड़ रही थी।
पिछले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने फरवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले अपने कई मंत्री और विधायक उस समाजवादी पार्टी के हाथों गंवा चुकी है, जो उसके लिए प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरी है। इस्तीफा देने वालों में दो वरिष्ठ मंत्री- स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान भी हैं। मौर्य के जाने से भाजपा को वास्तव में करारी चोट लगी है, क्योंकि वह अपने साथ आधा दर्जन वफादारों को भी ले गए हैं।
कुछ रुझान सामने आए हैं। जो लोग चले गए, उनमें से ज्यादातर अन्य पिछड़ा वर्ग या पिछड़ी जातियों से थे, जो यूपी में भाजपा के समर्थन की रीढ़ हैं। कुछ ब्राह्मणों और दलितों ने भी इसका अनुसरण किया। उनका रुझान सपा की ओर था, न कि बहुजन समाज पार्टी या कांग्रेस की ओर। मौर्य और चौहान मूल रूप से बसपा के साथ होते थे, लेकिन छोड़ दिया क्योंकि वे कथित रूप से बसपा प्रमुख मायावती की राजनीति के “व्यापारिक” दृष्टिकोण से परेशान थे, जिसे उन्होंने महसूस किया। उन्होंने बहुजन राजनीति के मूल धारणा और बसपा संस्थापक कांशी राम के प्रति प्रतिबद्धता को खारिज कर दिया। उनमें से चौहान कुछ समय के लिए सपा में भी थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि सपा यादवों के पक्ष में बहुत ज्यादा झुकी हुई है और अति पिछड़ी जातियों के लिए कम मौके मिल रहे हैं, तो उन्होंने उससे भी पल्ला झाड़ लिया। इसलिए कि उन्होंने उनका ही प्रतिनिधित्व किया था। दलबदलुओं में से कई पूर्वांचल से हैं, जो अधिकांश विधायकों और सांसदों को दोबारा मौका देता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वाराणसी निर्वाचन क्षेत्र यूपी के पूर्व में ही स्थित है, जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर गृह क्षेत्र और राजनीतिक “कर्मभूमि” भी पूर्व में ही है।
सवाल स्वाभाविक रूप से उठे रहे हैं कि अगर टिकट कटने का ही डर था तो यूपी में चुनाव से एक महीने से भी कम समय पहले चौहान और मौर्य ने इस्तीफा क्यों दिया? दरअसल सोशल मीडिया पर बीजेपी के लिए चिल्ल-पों करने वाले तर्क दे रहे हैं कि इनमें से ज्यादातर पाला बदलने वालों को “पता था” कि उन्हें खारिज किया जा रहा है। यह भी तर्क दिया गया कि पश्चिम बंगाल में भाजपा ने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी के दलबदलुओं को अपनाया था, उन्हें टिकटों से “पुरस्कृत” किया था, उनके अवसरों को बढ़ाया था, लेकिन प्रयोग ने मदद नहीं की, क्योंकि कई टीएमसी से हार गए। अब बड़े पैमाने पर इस टीएमसी “आयात” को अचानक एक कारण के रूप में उद्धृत किया जा रहा कि पश्चिम बंगाल में भाजपा क्यों हार गई। यानी दलबदलुओं के कारण। सोशल मीडिया पर भाजपाइयों ने आगाह किया कि एसपी का भी यही हश्र होगा।
लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि गृह मंत्री अमित शाह, जो बारीकी से यूपी की निगरानी करते हैं, ने राज्य के महासचिव सुनील बंसल और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को आसानी से छोड़कर जाने देने के बजाय उनसे बात करने के लिए कहा, जैसा कि कांग्रेस करती रही है। दरअसल आज सुबह एक नई खबर मिली कि मौर्य की बीजेपी में वापसी हो सकती है। वैसे उन्होंने खुद सामने आकर इस खबर का खंडन कर दिया। कहा कि वह एसपी में ही जा रहे हैं, जिसके कारण 2014 के एक पुराने मामले में अदालत ने उनके खिलाफ कथित अभद्र भाषा के इस्तेमाल के लिए अब गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है।
केशव मौर्य, जिन्होंने 2017 में खुद को सीएम के रूप में देखा था, को भगोड़े विधायकों से बात करने के लिए क्यों नियुक्त किया गया? इस काम के लिए उनके चुनाव ने भाजपा की ओर से देर से सही, लेकिन सतर्कता दिखाई गई। यह समझाना कि उसका दुर्जेय पिछड़ी जाति का जनाधार नहीं टूटा, बल्कि केवल एक ओबीसी नेता ने पाला बदला है। भाजपा के एक अंदरूनी सूत्र ने कहा, ‘यह स्पष्ट है कि हमारी पार्टी के ओबीसी असंतुष्ट हैं। उन्हें उम्मीद थी कि नेता आदित्यनाथ को फिर से सीएम चेहरे के रूप में पेश नहीं करेंगे और मौर्य को मौका देंगे। ऐसा नहीं हुआ और यह ओबीसी के लिए आखिरी उम्मीद थी।
आदित्यनाथ राजपूत हैं, जो मूल रूप से उत्तराखंड के हैं, जिन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु महंत अवैद्यनाथ के संरक्षण में गोरखपुर को अपने घर के रूप में अपनाया, जो रामजन्म भूमि आंदोलन के प्रमुख नेता थे। साथ ही रामजन्मभूमि न्यास या ट्रस्ट के प्रमुख थे, जिसे अयोध्या में मंदिर निर्माण का कार्य सौंपा गया। मुख्यमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण करने के पहले दिन से आदित्यनाथ के खिलाफ मुख्य शिकायत यह थी कि उन्होंने राजनीति और संस्थागत, विशेषकर प्रशासन और पुलिस में राजपूत को खुले तौर पर संरक्षण दिया। यह आरोप लगाया गया कि गैर-राजपूतों, विशेषकर ब्राह्मणों को “निशाना” बनाया गया। उधर, अन्य जातियों के लोगों की उपेक्षा की गई या उनके साथ भेदभाव किया गया।
दबाव के तहत 2018 में आदित्यनाथ ने एक पिछड़ी जाति सामाजिक न्याय समिति बनाई, जिसे अधिक पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का एक उप कोटा तय करने का काम सौंपा गया था। इस गठन ने इस धारणा की पुष्टि की कि छोटी और सीमांत पिछड़ी जातियां, जो पूरे यूपी में वोटों का बड़ा हिस्सा हैं, आरक्षण लाभ से चूक गई हैं, क्योंकि अधिकांश लाभ यादवों, कुर्मियों और लोध-राजपूतों द्वारा प्राप्त कर लिए गए थे। समिति के अध्यक्ष उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार थे। हालांकि पैनल ने 300 पन्नों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें मोटे तौर पर सुझाव दिया गया था कि ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत कोटा को और अधिक न्यायसंगत बनाया जाना चाहिए। लेकिन विशिष्ट सिफारिशों का खुलासा नहीं किया गया। लेकिन आदित्यनाथ सरकार रिपोर्ट पर बैठी रही, क्योंकि कुर्मी और लोध-राजपूत भाजपा की चुनावी योजना में उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी छोटी और सीमांत जातियां। इसलिए उनका विरोध नहीं किया जा सकता था।
बीजेपी ने उस चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया, जो पहली बार आदित्यनाथ कैबिनेट में एक पूर्व मंत्री ओम प्रकाश राजभर द्वारा दी गई थी। मौर्य और चौहान की तरह वह भी बसपा से ही आए थे। 2017 के चुनावों से पहले उन्हें शाह ने बुलाया, बीजेपी के साथ गठबंधन किया और बीजेपी को वाराणसी और गोरखपुर से परे पूर्वी यूपी में प्रभाव बढ़ाने में मदद की। राघवेंद्र कुमार की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने में विफल रहने के विरोध में राजभर ने सरकार छोड़ दी। अपनी पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को जीवित रखा और अब सपा के साथ समझौता किया है।
सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सत्ता में आने पर रिपोर्ट को लागू करने का वादा किया है। हालांकि भाजपा की तरह उन्हें भी यादवों को थामे रखने के लिए आरक्षण की रेवड़ियां कम संपन्न जातियों में बांटने के मुश्किल मुद्दे का सामना करना पड़ा था। यह बहुत सारे किंतु-परतुओं में से कुछ हैं, जिनसे भाजपा को जूझना पड़ रहा है।
ओबीसी सदस्यों द्वारा निकट विद्रोह के लिए महत्वपूर्ण एक और मामला है। 2017 में जब आदित्यनाथ को मनोज सिन्हा और मौर्य के स्थान पर आरएसएस द्वारा यूपी में अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने और गुजरात जैसी दूसरी सामाजिक प्रयोगशाला में बदलने के लिए चुना गया था, तो क्या संघ राज्य की जातीय जटिलताओं से अनजान था कि किसी भी पार्टी ने कभी भी एकीकृत तौर पर सामंजस्य नहीं बैठाया?
आदित्यनाथ ने हिंदुत्व कार्यक्रमों को अंत तक लागू किया, लेकिन उन्होंने अपने जातिगत के झुकाव को अखिल हिंदू पहचान को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया। विधायकों ने अक्सर कहा कि यूपी में तबाही मचाने वाली महामारी के दौरान भी वह पहुंच से दूर थे। संघ, भाजपा और आदित्यनाथ के सामने मुश्किलात खड़ी हो गई हैं। क्या एक शक्तिशाली “पीठ” का महंत, जो अधिपति की तरह काम करता था, राजनीति के लिए सबसे उपयुक्त है?