विक्की कौशल की फिल्म ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के घावों को एक बार फिर हरा कर दिया है। काल चक्र की गर्त में हम सभी की स्मृतियों से गुम हो चुके इसी तरह के अंग्रेजी के एक अन्य लोमहर्षक सामूहिक हत्या को याद करने का शायद यह सही समय है।
औपनिवेशिक शासकों ने इस नरसंहार को गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में फैले एक आदिवासी क्षेत्र मानगढ़ के पास 19 नवंबर, 1918 को अंजाम दिया था।
मानगढ़ हत्याकांड में मरने वालों की संख्या विवादित रही है। गोधरा के संतरामपुर तालुका की एक किताब के अनुसार, उस लोमहर्षक सामूहिक हत्याकांड में 1,507 भील आदिवासी मारे गए थे। हालांकि, लोककथाओं में कहा गया है कि जब ब्रिटिश सैनिकों ने गोलियां चलाई थीं, उस समय लगभग डेढ़ लाख भील मानगढ़ पहाड़ी पर जमा हुए थे।
मानगढ़ पहाड़ी भीलों के लिए एक खास महत्व रखती है, जिन्हें दमनकारी ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ उठने के खिलाफ एक समाज सुधारक संत, गुरु गोविंद ने प्रेरित किया था।
क्रांति के मशाल उन्होंने संभाली थी।
वंजारा (जिप्सी) परिवार में जन्मे गुरु गोविंद विनम्र पृष्ठभूमि के थे। उनका परिवार बैलगाड़ियों और अन्य जानवरों पर सामान लाने-ले जाने का काम करता था। एक किशोर के रूप में गुरु गोविंद को मंदिर के पुजारी ने आध्यात्मिकता और शास्त्रों के बारे परिचित कराया था। वे रामचरितमानस और कबीर के दोहे सुनाते थे। भील बच्चों के प्रति उनके लगाव और आध्यात्मिक शिक्षा के लिए उनके प्रयासों के लिए गुरु गोविंद का आदिवासी समाज में अत्यधिक सम्मान किया जाता था।
गुरु गोविंद ने देखा कि उच्च जाति के सामंती राजाओं जमींदारों द्वारा भीलों का कैसे अपमान और शोषण किया जाता था। उन्होंने भीलों को इससे मुक्ति दिलाने के लिए समाज के इन ताकतवर लोगों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया।
आदिवासी समुदाय के सामाजिक उत्थान में गुरु गोविंद के कार्यों के बारे में जानकर उस समय के एक और उत्साही समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुरु गोविंद से मिलने के लिए उदयपुर के महाराणा के सामने अपनी इच्छा व्यक्त की।
आदिवासियों के लिए गुरु गोविंद के प्रेम और करुणा को देखकर दयानंद सरस्वती ने उन्हें आशीर्वाद देने के साथ पवित्र धार्मिक ज्ञान भी दिया। कहा जाता है कि सरस्वती जी ने ही गुरु गोविंद को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।
मानगढ़ आंदोलन
स्थानीय राजाओं, ब्रिटिश सरकार के सामंतों के द्वारा उत्पीड़ित, अपमानित और शोषित होने से तंग आकर, गरीब भीलों के मन में गुरु गोविंद के शब्दों और शिक्षा में मुक्ति की भावना जागृति हुई। उन्होंने भीलों के असंतोष को सुलगते अंगारों में बदल दिया। क्रांति की आग प्रांत के राजा, रियासतों, सामंतों और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भड़क उठी।
मध्य प्रदेश के थंडला गांव में एक फ्रांसीसी मिशनरी, जो लोगों को ईसाई धर्म में परिवर्तित कर रहा था, ने ब्रिटिश शासकों को एक लिखित चेतावनी भेजी कि गुरु गोविंद धर्मांतरण के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे। दरअसल, गुरु गोविंद द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से क्षेत्र के सभी राज्य भयभीत थे।
गुरु गोविंद के शिष्य इदर राज्य के बहेड़ा-रोजदा गांव से निकलकर मानगढ़ के पास कहोड़ा गांव पहुंचे, जहां उन्होंने एक पवित्र अग्नि स्थापित की और सात चिन्ह बनाकर उसका नाम नानकशाह रखा। गुरु गोविंद ने संतरामपुर, कदना, वंशवाड़ा, डूंगरपुर और पंचमहल जिलों के भीलों को इकट्ठा किया और मानगढ़ पहाड़ी के चारों ओर एक सशस्त्र चौकी स्थापित की।
जब अंग्रेजों को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने इसे अपने शासन के खिलाफ एक आंदोलन के रूप में देखा। 18 अक्टूबर, 1913 को, वांसवाड़ा के राजनीतिक एजेंट ने रेवकांठा के राजनीतिक एजेंट को बुलाया और गुरु गोविंद और उनके सहयोगी पंजाबभाई परगी को गिरफ्तार करने का संदेश दिया।
स्थानीय राजाओं ने यह अफवाह फैलाकर अंग्रेजों के लिए अपना काम किया कि गुरु गोविंद वास्तव में राज्य को हड़पना चाहते थे और संतरामपुर राज्य के खजाने को लूटना चाहते थे, इसलिए अंग्रेज उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के लिए दृढ़ थे। भीलों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिए, अंग्रेजों और उनकी सहयोगी रियासतों ने मानगढ़ पहाड़ी को चारों तरफ से घेर लिया।
सदियों से सामंतों के दमन, अत्याचार, शोषण और घृणा के शिकार हुए भीलों ने पीछे हटने से मना कर दिया। उन्होंने अपने नेता की रक्षा करने की कसम खाई।
भजन और मशीनगन
पहाड़ की चोटी पर एकत्र हुए सभी लोगों ने मनोबल बढ़ाने के लिए भजन गाए। 6 नवंबर, 1913 को 5वीं माही डिवीजन के जनरल ऑफिसर कमांड ने चीफ जनरल स्टाफ को सूचित किया कि संतरामपुर के भील बड़ी संख्या में विद्रोह करने के मूड में हैं। राजनीतिक विभाग ने अनुरोध किया कि सरकार को 104 राइफल कंपनी के साथ मशीन गन कंपनी तैनात की जाए।
उच्च अधिकारियों को यह भी बताया गया कि चूंकि स्थिति गंभीर है, इसलिए भीड़ को मानगढ़ से शांतिपूर्वक हटाना मुश्किल है। अधिकारियों ने जानबूझकर और खास इरादे से स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर अत्यंत गंभीर बताया। इसके बाद मशीनगनों को खच्चरों और गंधों पर लादकर दो कंपनियों को वांसवाड़ा भेज दिया गया। गुजरात के माही, वडोदरा, अहमदाबाद और खेरवाड़ा के सैनिक युद्ध के लिए तैयार थे।
मानगढ़ से दक्षिण-पश्चिम घाटी में, 20 सशस्त्र पुलिसकर्मियों की एक टुकड़ी जिला पुलिस अधीक्षक के साथ निकली। बरिया राज्य को अंग्रेजी घुड़सवार सेना के साथ उत्तर-पश्चिमी घाटों पर तैनात किया गया था। संतरामपुर में अंग्रेजी सेना मानगढ़ के पश्चिम में हमला करने के लिए तैयार थी।
रणनीति के अनुसार, हमलावर सैनिकों को दो डिवीजनों में विभाजित किया गया था। पहले डिवीजन को बाईं ओर से हमला करना था और बाकी सैनिकों को मुख्य हमले के अंजाम देना था। मेवाड़ के कमांडर कैप्टन स्टोनली ने पश्चिम की तरफ से मानगढ़ डूंगर की ओर कूच किया, जहां 200-300 भील तैनात थे।
ठीक 8:30 बजे सुबह ब्रिटिश सैनिकों ने फायरिंग शुरू कर दी। मशीनगनों ने भीलों को दक्षिण-पश्चिम के ऊपर की सड़क से हटा दिया। चारों ओर से लगातार गोलियों की बौछार के साथ, अंग्रेज आगे बढ़े और भीलों को घेर लिया जो पहाड़ों की चोटियों पर मुश्किल से देशी हथियारों के सहारे अपना बचाव कर रहे थे।
ब्रिटिश कमिश्नर ने तब सभी सैनिकों को इच्छानुसार गोली चलाने का आदेश दिया। इसके बाद भील टूट गए। कहानी यह भी है कि फायरिंग में मारी गई एक महिला के शव के पास तड़पते बच्चे को देखकर युद्धविराम का आदेश देने वाले ब्रिटिश कमिश्नर में मानवता जाग गई।
12 नवंबर, 1913 को मेजर बेली के नेतृत्व में 104 राइफल्स की एक कंपनी वडोदरा से रवाना हुई जो अगली सुबह सैंटारोड पहुंची। इसके अलावा 7वीं जाट कंपनी और मेवाड़ की दो कंपनियों को मानगढ़ की पहाड़ियों में अलग-अलग रणनीतिक स्थानों पर तैनात किया गया। मानगढ़ से दक्षिण-पश्चिमी घाटी में जिला पुलिस अधीक्षक के साथ 30 सशस्त्र पुलिस कर्मियों को भी भेजा गया।
अंततः इस क्रांति में बहुत रक्त बह गया। इसके बाद गुरु गोविंद ने अपने शिष्यों की रक्षा के लिए आत्मसमर्पण कर दिया।