बहु-पुरस्कार विजेता निर्देशक बिमल रॉय के जन्मदिन के मौके पर, जिनका जन्म 12 जुलाई, 1909 को हुआ था। आइए, हम उनकी फिल्म सुजाता पर फिर से नजर डालते हैं जो दुखदायी जाति-प्रथा पर थी।
बिमल रॉय की 1959 की फिल्म सुजाता आज भी दिल को छू जाती है। 60 से अधिक वर्षों के बाद भी एक ब्राह्मण पुरुष और ब्राह्मण परिवार में ही पली-बढ़ी निम्न जाति की एक लड़की सुजाता के बीच निषिद्ध प्रेम की यह कहानी किसी को भी रुला देती है।
सुजाता को यह नाम नाम एक खुले दिमाग वाले इंजीनियर से मिलता है, जिसके घर में उसे बच्ची के रूप में लाया जाता है। मजदूर और निम्न जाति के अपने माता-पिता के गुजर जाने के बाद सुजाता की परवरिश इंजीनियर की बेटी रमा के साथ समान स्तर पर होती है। वह इस बात से अनजान है कि वह रमा की सगी बहन नहीं है। इसलिए अपने बचपन की सारी मासूमियत के साथ वह हर उस चीज़ के लिए लालायित रहती है, जो रमा को दी जाती है। चाहे वे किताबें हों या जन्मदिन की खीर। लेकिन ये उपहार उसे कभी नहीं मिलते, क्योंकि उसे पालने वाली मां यानी अम्मी सामाजिक मानदंडों के अनुसार दोनों लड़कियों के बीच बारीक अंतर रखती है।
फिर भी सुजाता के लिए यह एक खुशहाल बचपन है। चूंकि इंजीनियर उपेंद्रनाथ चौधरी को अपने करियर के दौरान समय-समय पर देहरादून और रानीगंज जैसे विभिन्न शहरों में तैनात होना पड़ता है, इसलिए ब्राह्मण परिवार की सदस्य के रूप में एक अछूत लड़की की परवरिश पर न तो परिवार में दखल देने वाला कोई है और न ही सवाल उठाने वाला कोई दोस्त। वक्त बीतता जाता है। वर्ष बीतते हैं और सुजाता एक जिम्मेदार युवा महिला के रूप में निखरती है। वह जहां घर के रोजमर्रा के कामों में मदद करके संतुष्ट रहती है, वहीं मस्तमौला रमा बैडमिंटन और शौकिया कविता पसंद करती है।
बिमल रॉय ने चौधरी के घर को गर्मजोशी से भरा दिखाया है। सुजाता इसकी दिनचर्या में भली-भांति घुली-मिली होती है। सुबह रसोइया के लिए खरीदारी की सूची बनाना, छत से कपड़े उतारना, अपनी अम्मी और बापू के लिए पांच बजे चाय लाना, छह बजे पौधों की देखभाल करना उसका काम है। सुजाता घर में अपनी इस भूमिका का पूरा आनंद लेती है। रोजमर्रा में घरेलूपन के ऐसे दृश्य, घड़ी की टिक-टिक और क्रिकेट की आवाज़ आदि फिल्म में सब कुछ ठीक होने का भ्रम देते हैं। तभी तक, जब तक उपेंद्रनाथ चौधरी रिटायर नहीं हो जाते और पारिवारिक मित्र के रूप में बुआजी उसी शहर में नहीं बस जाती हैं। सुजाता को स्वीकार करने से रूढ़िवादी बूढ़ी औरत बुआजी दृढ़ता से मना कर देती है, और चौधरी परिवार के शांत वातावरण को छुआछूत का मसला उठाकर भंग कर देती है। स्थिति तब और गंभीर हो जाती है, जब वह अपने नवासा अधीर के साथ रमा की मंगनी करा देती है, जो सुजाता से प्यार करता है। इससे घर में माहौल बहुत ही खराब हो जाता है। आगे क्या होता है, यह बता देने फिल्म का मजा किरकिरा हो जाएगा। कुछ बातें परिचित लग सकती हैं, क्योंकि पिछले छह दशकों में कई फिल्मों में यह सब देखने को मिलता रहा है। लेकिन रॉय ने सुजाता की लाचारी भरी भावनाओं को दिखाने के लिए प्रकृति का बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रयोग किया है। जब वह खुश होती है, तो छायाकार कमल बोस उसके मूड को प्रतिबिंबित करने के लिए फड़फड़ाते पत्तों, खिले हुए फूलों और ताजा बारिश की सुंदरता को कैद करते हैं। सुजाता की भूमिका नूतन ने निभाई है। सुजाता प्रकृति के निर्मल उत्पाद पौधों की तरह है, जो बारिश से भरे बादलों से प्रेरित होकर अपनी इच्छाओं को जोर से गाती है- काली घटा छाये, मोरा जिया तरसाये। मजरूह सुल्तानपुरी का कभी न भूलने वाला गीत, जो एस.डी. बर्मन के संगीत से युगांतकारी बन गया है।
पढ़े- लिखे अधीर की भूमिका सुनील दत्त ने निभाई है, जो नूतन की समझदार शैली से पूरी तरह मेल खाता है। वह सुजाता की जाति को अपने प्यार के रास्ते में आने से रोकता है। तब रोमांस का एक अलग ही स्तर देखने को मिलता है, जब वह सुजाता को फोन पर प्यार से गाते हुए कहता है- जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दिए।
फिल्म में एक चिंतनशील गति है, जो जीवंतता के क्षणों (शशिकला के रूप में लापरवाह रमा, कथानक में एक प्यारी चंचलता लाती है) और बहुत ही प्यारे गीतों से सराबोर है। हालांकि रॉय कठोर जाति व्यवस्था के बारे में गंभीर सवाल उठाते हैं, लेकिन वह एक पल के लिए भी पांडित्यपूर्ण या उपदेशात्मक नहीं लगते। यह भावनात्मक रूप और वैचारिक तरीके से आता है, जो गैरबराबरी को उजागर करता है।यह बताता है कि कैसे जाति व्यवस्था को दूर करने के लिए गांधी के ठोस प्रयास ने भी रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत कम परिणाम दिए थे।
सुजाता 1959 में रिलीज़ हुई थी। लेकिन 2021 में भी देश को जाति के आधार पर लोगों को अलग करने की अप्रचलित प्रथा से छुटकारा नहीं नहीं मिला है। यहां तक कि जब मैं इसे लिख रही हूं, तो सुबह के अखबार में मणिपुर में एक अंतर्जातीय जोड़े की निर्मम हत्या पर हाई कोर्ट के फैसले की खबर है, जो लड़की के घरवालों ने की थी। अन्य सुर्खियों में पिछड़ी जाति के नेताओं को केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाने की है। बाबा साहेब अम्बेडकर और उनकी टीम द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान को लिखने के सात दशक बाद भी हमारे चुने हुए प्रतिनिधि इस अमानवीय जाति व्यवस्था रूपी कैंसर के समाधान के रूप में महज प्रतीकवाद ही पेश कर पाते हैं। सुजाता को शायद उन लोगों को अनिवार्य रूप से देखना चाहिए, जिन्हें हम देश चलाने के लिए चुनते हैं। इस हानिकारक व्यवस्था को पूरी तरह और स्थायी रूप से खत्म करने के लिए वोट बैंक की ठंडी गणना के बजाय शायद हमें मिलकर एक लंबा रास्ता तय करना है।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के अपने हैं। इनका वाईब्स ऑफ इंडिया के विचारों से कोई सरोकार नहीं है।)