पिछले साल 8 अक्टूबर को 84 वर्षीय आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी को एल्गार परिषद मामले में उनकी कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया गया था। मई में वह कोविड-19 से संक्रमित हो गए। बुजुर्ग अब वेंटिलेटर पर हैं। गिरफ्तारी के समय स्वामी में पार्किंसन रोग चरम पर पाया गया था। इसके बावजूद, जेल में एक साधारण बिस्तर के लिए उन्हें लगभग एक महीने का इंतजार करना पड़ा। इस सब के बीच स्वामी को अभी भी किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया जाना बाकी है। भारत में कई विचाराधीन कैदियों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है।
आम तौर पर भारत में 10 में से केवल तीन कैदियों पर ही अपराध साबित हो पाता है। 2020 की भारत सरकार की न्याय रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 70 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। यह संख्या केवल पिछले 20 वर्षों में बढ़ी है। वैश्विक स्तर पर केवल 14 देशों में ही जांच से पहले या रिमांड में कुल कैदियों का अनुपात इससे अधिक है।
गुजरात में 44 वर्षीय श्रीनगर निवासी बशीर अहमद बाबा को 30 जून, 2021 को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था। गैरकानूनी गतिविधियों के आरोप में आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) द्वारा पहली बार हिरासत में लेने से लेकर बरी होने के बीच 12 साल लग गए थे। बता दें कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून यानी यूएपीए एक ऐसा कानून है, जिसमें जमानत मिलना असंभव हो जाता है।
स्वामी और बाबा अपवाद नहीं हैं। अध्ययनों से पता चला है कि जेल की आबादी भारत में हाशिए पर रहने वाली जातियों और धर्मों से संबंधित है – जो भारत की सामाजिक असमानताओं को दर्शाती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2019 वाली प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, तीन में से दो विचाराधीन कैदी सीमांत यानी निम्न जातियों से थे। विचाराधीन कैदियों के रूप में जेल में बंद मुसलमानों की हिस्सेदारी भी भारत में उनकी 18.7 प्रतिशत की आबादी की तुलना में अधिक है।
21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की जेलों में रहने वालों की संख्या सौ प्रतिशत से अधिक है। जेलों में भीड़भाड़ 19 प्रतिशत है, जो 2016 के आंकड़ों से 5 प्रतिशत अधिक है। गुजरात की जेलों में तो यह दर 109.6 प्रतिशत है। गुजरात में जेलों के लिए बजट उपयोग 94 प्रतिशत से घटकर 80 प्रतिशत हो गया है, जिससे जेलों में भीड़भाड़ और बढ़ गई है।
टाटा ट्रस्ट की 2020 में आई इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार, "अनावश्यक गिरफ्तारी, जमानत देने के लिए रूढ़िवादी दृष्टिकोण, कानूनी सहायता तक अनिश्चित पहुंच, जांच में देरी, साथ ही अंडर ट्रायल रिव्यू कमेटी जैसे निगरानी तंत्र की अक्षमता से जेलों में भीड़ बढ़ती ही जाती है।" न केवल सीमांत समुदायों के विचाराधीन कैदी हैं, बल्कि 3 में से लगभग 1 निरक्षर भी हैं। जाहिर है, उनके पास न्याय पाने के लिए जरूरी धन की भी कमी है। विडंबना देखिए कि देश की 80 प्रतिशत आबादी भले इसकी हकदार हो, लेकिन पिछले 25 वर्षों में केवल डेढ़ करोड़ लोगों को ही कानूनी सहायता मिल सकी है।