देश के बड़े मीडिया संस्थान में काम करने वाले एक मित्र और वरिष्ठ पत्रकार का फ़ोन आया। मेरे इस मित्र ने कहा- एक खबर है, जिसे तुम इस्तेमाल कर सकते हो। मैंने पूछा- खबर तो अच्छी है, आप क्यों नहीं चलाते? और, अगर चलाना नहीं है तो कम से कम ट्वीट ही कर दीजिए, आपके तो वैसे भी ट्विटर पर लाखों फ़ॉलोवर्स हैं और आपका तो ट्विटर हैंडल भी वेरिफाइड है। उन्होंने कहा- मैं नहीं कर सकता, इसलिए आपको बता रहा हूं। पहले तो मुझे हैरानी हुई, लेकिन थोड़ी देर बाद समझा कि इनके हाथ उनके मीडिया संस्थान की सोशल मीडिया गाइडलाइन्स ने बांध दिए हैं। दरअसल एक तरफ सोशल मीडिया ने मुझ जैसे कई लोगों को एक आवाज दी है, वहीं दूसरी ओर बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकारों को उनके संस्थानों ने सोशल मीडिया गाइडलाइन्स के तहत बांध दिया है। सोशल मीडिया पर अपने विचार रखने की जिस स्वतंत्रता को हम और आप एक गारंटी की तरह लेते हैं, वहीं बड़े मीडिया संस्थानों के सोशल मीडिया गाइडलाइन्स ने उनकी कलम को जकड़ रखा है। हालांकि इन गाइडलाइन्स की जानकारी तो पहले से थी, पर उस दिन मुझे इनके दुष्परिणामों का सही पता चला।
बात सिर्फ़ मेरे मित्र और मेरी नहीं है। हालत ही ऐसे हो गए हैं। आज ऐसे बहुत सारे छोटे और बड़े पत्रकार, जो देश के बड़े अख़बार, न्यूज़ चैनल में काम करते हैं लेकिन चाहकर भी सरकार या किसी खास पार्टी के ख़िलाफ़ खुलकर नहीं लिख सकते। इसलिए कि ऐसी एक पोस्ट बेरोज़गार बना सकती है। ज़्यादातर पत्रकार, जो बड़े संस्थान में काम करते हैं, उन्हें चैनल पर या अखबार में तो वही लिखना पड़ता है जो वहां की एडिटोरियल लाइन है। लेकिन, उन्हें व्यक्तिगत हैंडल से ट्वीट करने से पहले भी हज़ार बार सोचना पड़ता है।
कैसे कमजोर हुई कलम की धार –
सोशल मीडिया गाइडलाइन्स को समझने के लिए पहले मीडिया के बिजनेस को समझना होगा-
आज से लगभग चार-पांच साल पहले मीडिया संस्थान साल में एक बार बड़ा कार्यक्रम करते थे। इसमें देश के बड़े नेता,फ़िल्मी दुनिया के बड़े चेहरे, साहित्य से जुड़े लोग शिरकत करते थे। अक्सर किसी फाइव स्टार्स होटल या बड़ी जगह पर होने वाले इन इवेंट्स या खास कार्यक्रमों के ज़रिए मीडिया कंपनियों को विज्ञापन से अच्छा मुनाफा भी होता था। लेकिन, यही मुनाफा आज पत्रकारों की कलम की ताक़त को कमजोर करने का जिम्मेदार बनता जा रहा है। दरअसल, इन सालाना इवेंट्स से होने वाली कमाई के लालच में कई अखबारों और टीवी चैनलों ने ऐसे इवेंट्स की संख्या बढ़ा दी। पहले छह महीने, फिर तीन महीने और अब तो हर महीने ही कोई न कोई बड़ा इवेंट होने लगा है। बाज़ार और मुनाफ़े के साथ बड़े मीडिया संस्थान धीरे धीरे बहते चले गए।
जब तक ऐसे इवेंट्स साल में सिर्फ़ एक या दो बार होते रहे, तब तक इन इवेंट्स की भी गरिमा रही और बड़ी शख्सियतें भी इन इवेंट्स में आने को तैयार रहते। लेकिन जैसे ही स्पेशल इवेंट्स के नाम पर हर महीन ऐसे कार्यक्रम शुरू हुए, तो नेताओं के भाव बढ़ने लगे। जब तक ऐसे इवेंट साल में एक बार होते थे, तो नेता भी लाइन लगाकर खड़े रहते थे। कहते थे कि हमें बुलाइए। लेकिन अब सब बदलने लगा। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि बड़े नेताओं की समझ में भी आ चुका था कि उनके बिना ऐसे कार्यक्रम नहीं हो सकते। सितारों ने ऐसे इवेंट्स के लिए ज्यादा पैसों की मांग कर दी, तो नेता मंत्री भाव खाने लगे। हालत यह हो गई की अगर कोई नेता या मंत्री इवेंट में आने से मना कर दे तो बीट रिपोर्टर की नौकरी पर खतरा मंडराने लगता है। बात यहां तक भी रुक जाती तो शायद उतना बुरा न होता। हालत तो ये हो गई है कि अगर नेताजी को किसी पत्रकार का कोई ट्वीट पसंद न आए तो जनवरी में किए गए ट्वीट को बहाना बना कर फरवरी में इवेंट से नाम वापस ले लेते हैं। और ऐसा किसी एक अखबार, मैगजीन, या चैनल के साथ नहीं है, बल्कि कई संस्थानों के साथ हो चुका है। चूंकि ये इवेंट्स पहले से तय होते हैं, इनके विज्ञापन भी पहले से तय होते हैं, साथ ही कौन-कौन मुख्य वक्ता होंगे इसका प्रचार प्रसार भी पहले से खूब किया जाता है। लेकिन अंत समय पर नेता जी को कोई पुराना ट्वीट मिल जाता है और वे आने से मना कर देते हैं। नतीजा यह कि मीडिया संस्थान का नुकसान होता है। और, आज के समय में ऐसे नेताओं की भरमार है। यही कारण है कि ज्यादातर बड़े संस्थानों ने अपने यहां कठोर सोशल मीडिया गाइडलाइन्स लागू कर दिया है।
बिग बॉस सब देखते हैं
दरअसल सोशल मीडिया के इस ज़माने में और ख़ासतौर पर अभी की सरकार में तो बड़े हो या छोटे, कई पत्रकारों के ट्विटर हैंडल पर नज़र रखी जाती है। अगर आप ध्यान दें तो पाएंगे कि आज की तारीख में छोटे मीडिया संस्थानों के संपादक और रिपोर्टर अपनी बात रखने में ज़्यादा मुखर हैं। एक वजह तो यह कि नए और छोटे प्लेटफॉर्म इस तरह के इवेंट्स का आयोजन कम ही करते हैं। दूसरी तरफ बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकारों के ट्वीट्स पर राज्य, केंद्र सरकारों के अलावा पार्टियों की भी नजर रहती है। जैसे ही इवेंट का समय आता है, तो सत्ता में बैठे लोग वही सूची सामने रख कर कहते है कि हम आपके कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते हैं,क्योंकि आपके रिपोर्टर तो हमारे बारे में ऐसा लिखते हैं। जरा सोचिए, कोई कंपनी रिपोर्टर के ट्वीट या उसकी कलम की धार देखेगी या फिर करोड़ों का मुनाफ़ा।
इलाज क्या है?
इवेंटस के इस ट्रेंड ने देश के बड़े मीडिया संस्थानों की धार को कमजोर कर दिया है। आज किसी भी बड़े संस्थान में नौकरी करने से पहले आपको सोशल मीडिया गाइडलाइन्स पर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां आपने ट्वीट किया और वह किसी को चुभ गई तो उसे सोशल मीडिया गाइडलाइन्स का उल्लंघन माना गया। फिर ईएमआई के बोझ तले दबा हुआ क्रांति लाने वाला पत्रकार बेरोज़गार हो गया। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि मीडिया कंपनियां इसे समझें कि उनकी इस नीति की वजह से उनका खुद का नुकसान ज्यादा हो रहा है। ऐसे इवेंट्स की संख्या या तो कम की जाए या इस प्रकार किए जाएं, जिससे इवेंट्स सिर्फ नेता और मंत्रियों का प्लेटफार्म न रह जाए। अगर कोई नेता कार्यक्रम में आने का वादा कर आखिरी मौके पर ट्वीट का बहाना बनाए, तो इस बात को पाठकों और दर्शकों को बताना चाहिए। और सबसे खास बात, आपकी ताकत आपके पत्रकारों के कलम से है। अगर उनकी कलम कमजोर होती है तो आप भी उतने ही कमजोर होते हैं। सोशल मीडिया पर बेशक कुछ गाइडलाइन्स हो सकती हैं, लेकिन सभ्य भाषा में आलोचना किसी भी गाइडलाइन्स का उल्लंघन नहीं हो सकता।
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