पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद ममता बनर्जी देशभर में अपनी राजनीति को विस्तार देने में जुट गई हैं। पूरब से दूर पश्चिम में गोवा जैसे राज्यों में जाने से यह धारणा बनी है कि तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री अब अपना राजनीतिक कद बढ़ाना चाहती हैं। इससे ममता के पक्ष में और उनके खिलाफ तर्कों का ढेर लग गया है। इसलिए कि विपक्ष विभाजित है और शायद उसे सबको साथ लेकर चलने वाले एक शख्स की तलाश है।
60 और 70 के दशक के विपरीत, जब कांग्रेस का शासन था, “राष्ट्रीय” और “क्षेत्रीय” पार्टियों के बीच सीमाएं साफ और निर्विवाद थीं। यकीनन आज की तारीख में भाजपा उस केंद्रीय धुरी की स्थिति में है। लेकिन कांग्रेस के विपरीत, जो स्वतंत्रता के ठीक बाद केंद्र में अपनी जड़ें जमा चुकी थी, भाजपा अपनी सफलता का श्रेय अपने क्षेत्रीय नेताओं को देती है, जिनकी अपने-अपने राज्यों में जीत ने पार्टी और उसके राष्ट्रीय नेताओं को केंद्रीय सत्ता में बैठा रखा है। यही कारण है कि नरेंद्र मोदी भाजपा द्वारा अपने क्षत्रपों को दिए गए आशीर्वाद की देन साबित हुए हैं। उस विशेषाधिकार के साथ-साथ मोदी की कड़ी मेहनत और उनके द्वारा प्राप्त लाभ को जमकर भुना लेने की क्षमता ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया है। वैसे एक राज्य से केंद्र तक की उनकी यात्रा अपेक्षाकृत आसान रही। एचडी देवेगौड़ा भी कर्नाटक के एक क्षेत्र से निकले और आगे चलकर पीएम बने, लेकिन आज तक उनकी पहचान एक क्षत्रप के रूप में ही है। इसलिए यह तर्क देना कि ममता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं को भूगोल द्वारा सीमित किया गया है, एक क्षत्रप होने के कारण सही नहीं है। यकीनन एक मुख्यमंत्री काम कर सकता है और पीएम बनने की उम्मीद भी कर सकता है।
यह तर्क सिद्धांत और संभावना के दायरे में है। ममता जैसी मुख्यमंत्री की इच्छा और ऊर्जा को उत्प्रेरित करने वाला एक और अधिक यथार्थवादी कारण कांग्रेस की गिरावट है। 2019 तक कांग्रेस के इर्द-गिर्द एक गैर-भाजपा मोर्चे के गठन की अटकलें लगाई गईं। इसे इस तरह के प्रयास का “आधार” माना जाता था, क्योंकि वह एकमात्र अन्य पार्टी थी जिसकी अखिल भारतीय उपस्थिति और मान्यता थी। अतीत में यह लगभग अकल्पनीय था कि ममता को विपक्षी राजनीति का मुख्य केंद्र मान लिया जाए। लेकिन लोकसभा की दो क्रमिक हार, बिहार और उत्तर प्रदेश में सफाए के अलावा अन्य राज्यों में लगे झटके, जो कभी इसके जागीर हुआ करते थे, कांग्रेस ने विपक्ष की धुरी के रूप में अपनी जगह खो दी है। इसकी कमी ने क्षेत्रीय दावेदारों के लिए जगह खोल दी है और ममता ने इस समझ और वास्तविकता के आधार पर इस दिशा में पहला कदम रख दिया है।
हालांकि, पहले उन्हें अकेले या किसी सहयोगी के साथ पश्चिम बंगाल के बाहर के राज्यों में सीटें जीतकर प्रतिष्ठा हासिल करना होगा। करने से कहना ज्यादा आसान है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में केंद्र की नजर में मोदी ममता की तुलना में अधिक लाभप्रद स्थिति में थे, क्योंकि भाजपा पहले से ही एक स्थापित राष्ट्रीय पार्टी थी और एक बड़े गठबंधन, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा थी। मोदी को केवल यह साबित करना था कि वह भाजपा के प्रमुख राष्ट्रीय नेता बनने के योग्य हैं। ममता की टीएमसी का एक अन्य पूर्वी राज्य त्रिपुरा में ही एक तरह का संगठन है। इसलिए, ऐसा लगता है कि उन्होंने दूसरी पार्टी से मजबूत गठबंधन की तलाश में ही यह रास्ता अपनाया है।
ममता का दिल्ली का दौरा उस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए था, न कि संसद के शीतकालीन सत्र से पहले विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश करने के लिए, जैसा कि कुछ लोगों का मानना था। उन्होंने पहले असम में एक पूर्व कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव, उसके बाद गोवा में लुइजिन्हो फलेरियो को अपनी पार्टी में लाकर अपने कौशल का प्रदर्शन किया। ममता के विस्तारवादी खाके की दृष्टि से सुष्मिता को तृणमूल में शामिल करना समझ में आता है। निचले असम के सिलचर से सांसद रहीं सुष्मिता मुख्य रूप से बंगाली भाषी बराक घाटी का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसे ममता को शेष असम को देखने से पहले काटना होगा। इस तरह सुष्मिता टीएमसी की असम में प्रवेश का जरिया हैं। लेकिन पूर्व सीएम फलेरियो को गोवा की राजनीति में “महत्वपूर्ण” माना जाता है। सुष्मिता की तरह फलेरियो को भी राज्यसभा की सीट दी गई, जिससे टीएमसी के पक्ष में एक और बात मजबूत हुई। एक राजनीतिक दल की नेता को चुनावी राजनीति में बने रहने और फलने-फूलने के लिए एहसान करने की स्थिति में रहना ही चाहिए। पार्टी में नए आने वालों को पुरस्कृत करने के लिए टीएमसी के पास संख्या बल है, जो कांग्रेस के पास नहीं है। लेकिन गोवा में जहां टीएमसी सभी 40 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रही है, वहां इसकी संभावना कम ही है कि फलेरियो के नाप ममता दांव खेलेगी। टीएमसी भाजपा और कांग्रेस से बागियों को खींचने और दोनों पार्टियों को नुकसान पहुंचाने की जगह बन सकती है। गोवा की अहस्तक्षेप वाली राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, टीएमसी की उपस्थिति ने मौजूदा विधायकों की अपनी-अपनी पार्टियों के साथ सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ा दिया है।
टीएमसी की पहली परीक्षा पश्चिम बंगाल के बाहर त्रिपुरा में होगी, जहां 25 नवंबर को निकाय चुनाव होंगे और परिणाम 28 नवंबर को घोषित किए जाएंगे। सत्तारूढ़ भाजपा ने 334 सीटों में से 112 पर निर्विरोध जीत हासिल की है, वहीं भाजपा के खिलाफ अलग-अलग चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस, टीएमसी और वाम मोर्चा ने 222 सीटों पर जीत हासिल की है।
टीएमसी ने 2017 में त्रिपुरा में अपना संगठनात्मक आधार खो दिया था, जब सुदीप रॉय बर्मन के नेतृत्व में उसके सभी छह विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे। लेकिन बर्मन, जिन्हें मुख्यमंत्री बिप्लब देब ने कैबिनेट से हटा दिया था, कुछ अन्य के साथ विद्रोही हो गए हैं। टीएमसी ने अपने ट्रेडमार्क पश्चिम बंगाल के नारे, "खेला होबे" को यहां भी धार दे दिया है। यह भाजपा सरकार के लिए सायोनी घोष जैसी नेता को गिरफ्तार करने और समय-समय पर अभिषेक बनर्जी, डोला सेन और अपरूपा पोद्दार जैसे टीएमसी नेताओं के काफिले पर हमला करने के लिए पर्याप्त कारण साबित हुआ।
इस तरह पूरब के कुछ हिस्सों में मुख्य दावेदार के रूप में उभरने की अपनी क्षमता का आकलन करने के लिए टीएमसी के लिए खूब मौके हैं।
बहरहाल, राष्ट्रीय स्तर पर ममता को अभी लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन उन्होंने विपक्ष के केंद्र के रूप में उभरने की अपनी योजनाओं को नहीं छोड़ा है। दिसंबर की शुरुआत में वह कांग्रेस नेता संजय निरुपम के परिवार में एक शादी में शामिल होने के लिए मुंबई जाने की योजना बना रही हैं। वह सीएम उद्धव ठाकरे से मिलेंगी और जनसभाओं को संबोधित करेंगी। वास्तव में उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं जनभागीदारी बढ़ाए बिना आगे नहीं बढ़ सकती हैं।