त्रिपुरा पुलिस ने विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर राज्य के उत्तरी जिलों में हुए हाल के सांप्रदायिक हिंसा का विरोध करने, या केवल उल्लेख करने तक के लिए कड़े गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत 102 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। यह हालिया कदम भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों द्वारा विरोध प्रदर्शनों का अपराधीकरण करने के प्रयास की प्रवृत्ति को दिखाता है।
त्रिपुरा पुलिस के सूत्रों के मुताबिक, ट्विटर पर 68 खाताधारकों के खिलाफ, फेसबुक पर 32 और यूट्यूब पर दो के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं। पश्चिम अगरतला पुलिस स्टेशन द्वारा पहले दर्ज किए गए मामलों को अब राज्य की अपराध शाखा में स्थानांतरित कर दिया गया है। ये मामले तब सामने आए हैं, जब राज्य पुलिस ने पहली बार दिल्ली के दो वकीलों – अंसार इंदौरी और मुकेश- को सांप्रदायिक हिंसा की एक स्वतंत्र तथ्यपरक जांच में भाग लेने के लिए यूएपीए आरोपों के तहत आरोपी बनाया। इस मामले में धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्व समूहों द्वारा मुसलमानों और मस्जिदों के स्वामित्व वाली संपत्तियों पर विशेष रूप से कथित तौर पर हमला किया गया था।
3 नवंबर, 2021 को लिखे पत्र में पश्चिम अगरतला पुलिस स्टेशन ने शुरू में ट्विटर को पत्र लिखकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से कम से कम 68 खातों को ब्लॉक करने और उनके बारे में व्यक्तिगत जानकारी देने का अनुरोध किया। उक्त खाताधारकों के विरुद्ध यूएपीए की धारा 13 के तहत मामला दर्ज किया गया है।
ट्विटर को भेजे नोटिस में त्रिपुरा पुलिस ने कहा है, “पोस्ट में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच राज्य में सांप्रदायिक तनाव भड़काने की क्षमता है, जिसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं।” इसमें राज्य में मुस्लिम समुदायों की मस्जिदों पर हालिया झड़प और कथित हमले की एकतरफा और तोड़-मरोड़ कर खबर और सूचना देने के आरोप लगाए गए हैं।
नोटिस में कहा गया है, “इन समाचारों/पोस्टों को प्रकाशित करने में, व्यक्तियों/संगठनों को कुछ अन्य घटनाओं के फोटो/वीडियो, मनगढ़ंत बयान/टिप्पणी का उपयोग करते हुए धार्मिक समूहों/समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए आपराधिक साजिश में शामिल पाया गया है।” यूएपीए की धारा 13, जो एक गैरकानूनी गतिविधि को उकसाने से संबंधित है और जिसमें सात साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है, उक्त मामलों में लागू की गई है।
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस द्वारा फेसबुक पर कौन से 32 अकाउंट और दो यूट्यूब अकाउंट को निशाना बनाया गया है, लेकिन 68 में से कई ट्विटर अकाउंट केवल सांप्रदायिक हिंसा की निंदा करते हैं। 68 में से भी कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट से हिंसा की सूचना दी। स्पष्ट रूप से, इनमें से अधिकांश मुसलमानों के हैं, जबकि अन्य समुदायों से कुछ ही हैं।
हम संबंधित खातों से ट्वीट किए गए पोस्ट की सामग्री को स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं कर सके हैं, न ही यह पता लगा सके कि राज्य पुलिस के अनुसार “आपत्तिजनक” या “मनगढ़ंत बयान/टिप्पणी” क्या थी जो राज्य में सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ा सकती थी।
मामले में जिन प्रमुख ट्विटर खातों के नाम लिए गए हैं, उनमें इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जयपुर के प्रोफेसर सलीम इंजीनियर, सीजे वेरलेमैन, जो ब्रिटिश अखबार बायलाइन टाइम्स के वैश्विक संवाददाता हैं, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष जफरुल इस्लाम खान, पंजाब प्रदेश कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग, छात्र कार्यकर्ता शरजील उस्मानी, और भारतीय पत्रकार श्याम मीरा सिंह, जहांगीर अली और सरताज आलम सहित अन्य हैं।
आरोप के जवाब में पत्रकार श्याम मीरा सिंह ने ट्वीट कर कहा कि उनके ट्विटर हैंडल पर “त्रिपुरा जल रहा है” कहने के लिए यूएपीए लगाया गया।
त्रिपुरा पुलिस के पीआरओ और सहायक महानिरीक्षक (कानून व्यवस्था) सुब्रत चक्रवर्ती ने द वायर से कहा है कि इस मुद्दे की संवेदनशील प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ही यूएपीए लगाया गया है। उन्होंने कहा, “मामले में अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है। हमने सोशल मीडिया पोस्ट का संज्ञान लिया है और मामला दर्ज किया गया है। मैं और कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।”
हालांकि विपक्षी दल राज्य पुलिस की मनमानी की निंदा करने के लिए आगे आए हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पूर्व सांसद जितेंद्र चौधरी ने कहा कि पुलिस कार्रवाई “असंवैधानिक और अनैतिक” थी और नागरिक अधिकारों के सिद्धांत के खिलाफ जाती है, जिसकी गारंटी भारत के लोगों को भारतीय संविधान द्वारा दी गई है।
उन्होंने कहा, “यह एक तथ्य है कि संघ परिवार के कार्यकर्ता हिंसा में शामिल थे। राज्य में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। संवेदनशील लोगों का इस पर प्रतिक्रिया देना स्वाभाविक है। कठोर यूएपीए लगा कर दबाव बनाना बिल्कुल हास्यास्पद है।” उन्होंने कहा कि पुलिस कार्रवाई दरअसल त्रिपुरा में शांति बनाए रखने में भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार की अपनी विफलताओं को छिपाने का एक प्रयास है।
उन्होंने कहा कि असंतुष्टों के खिलाफ यूएपीए का इस्तेमाल करने से राज्य में पहले से ही अस्थिर स्थिति और बढ़ जाएगी। फिर राज्य पुलिस ने जो किया है वह “उलटा” साबित होगा, क्योंकि कार्रवाई से और उत्तेजना बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि तथ्य-खोजी दल के सदस्य, जो वर्तमान में यूएपीए के तहत आरोपों का सामना कर रहे हैं, राज्य की वास्तविकता के बारे में जानने के लिए आए थे, न कि “शांति और सद्भाव को बाधित करने” के लिए, जैसा कि राज्य पुलिस ने दावा किया है।
उन्होंने कहा, “राज्य पुलिस ने जो किया है, वह मुझे ब्रिटिश शासन की याद दिलाता है। अगर राज्य पुलिस इन लोगों को चुनौती देना चाहती थी, तो वह आईपीसी की विभिन्न धाराओं को लागू करके ऐसा कर सकती थी। हम इस तरह की पुलिस कार्रवाई की निंदा करते हैं और मांग करते हैं कि इस तरह के आरोप तुरंत वापस लिए जाएं।”
इसी तरह, द इंडिजिनस प्रोग्रेसिव रीजनल अलायंस (टीआईपीआरए) के प्रमुख प्रद्योत देब बर्मा ने बताया कि पुलिस कार्रवाई से “औपनिवेशिक मानसिकता” की बू आती है और यह “लोकतंत्र की भावना के साथ मेल नहीं खाती।” उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्ण नहीं हो सकती है, यह किसी के राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप नहीं हो सकती है। मुझे लगता है कि सरकार को परिपक्व होना चाहिए और कुछ टिप्पणियों को नजरअंदाज करना चाहिए।”
उन्होंने यह भी कहा कि, “राज्य सरकार को इस मामले में विश्व हिंदू परिषद और अन्य उन्मादी कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए, जो एक विशेष धर्म के खिलाफ सांप्रदायिक नारे लगाने के लिए रैलियों में निकले। अगर वह इस तरह के उकसावे का जवाब देने वालों के खिलाफ मामला दर्ज कर रहे हैं तो ऐसा करना ही चाहिए। कानून सबके लिए निष्पक्ष होना चाहिए।”
गौरतलब है कि कथित वीएचपी सदस्यों द्वारा बर्बरता दिखाने वाले वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए थे। जो लोग ऐसी रैलियों का हिस्सा थे, उन्हें “त्रिपुरा में मुल्लागिरी नहीं चलेगा, नहीं चलेगा” और “ओह मोहम्मद तेरा बाप, हरे कृष्णा हरे राम” जैसे मुस्लिम विरोधी नारे लगाते हुए सुना जा सकता है।
तृणमूल कांग्रेस की राज्य प्रभारी सुष्मिता देव ने कहा कि खोजी समिति और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने वालों के खिलाफ कार्रवाई भाजपा के ‘गुजरात मॉडल’ से मिलती-जुलती है। उन्होंने कहा, “यह बहुत ही सरल है। दरअसल असलियत की जांच करने वाली जिन समितियों को विभिन्न संगठन की ओर से भेजा जाता है, जिनमें राजनीतिक भी शामिल हैं, और यह एक लोकतांत्रिक अधिकार है। प्रभावित लोग कह रहे हैं कि हिंसा हुई है, तो त्रिपुरा पुलिस लगातार कह रही है कि यह झूठी खबर है। जिस क्षण किसी चीज के बारे में विरोधाभास होता है, तो वह तथ्य की पड़ताल का सवाल है, बशर्ते आप शांति भंग न करें, सभी को प्रभावित क्षेत्रों में जाने का अधिकार है। अगर त्रिपुरा पुलिस को भरोसा है कि सब कुछ ठीक है, तो उन्हें लोगों को प्रभावित इलाकों में जाने देना चाहिए। ”
उन्होंने कहा कि अगर कोई गलत सूचना दे रहा है तो यूएपीए लगाया जा सकता है, लेकिन तथ्यान्वेषी समितियां कड़े कानून के तहत नहीं आ सकतीं। उन्होंने कहा, “मैं (प्रभावित क्षेत्रों का) दौरा भी नहीं कर सकती। अगर मैं अगरतला से बाहर निकलती हूं, तो वे (पुलिस) मुझे पीटने को तैयार हैं। मैंने सरकार को लिखा कि मुझे सुरक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि मैं वहां जाने को तैयार हूं। यहां तक कि कांग्रेस की एक टीम भी वहां गई थी। फिर उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ मामला क्यों नहीं दर्ज कराया?
यह लेख सौप्रथम ‘ध वायर’ में प्रकाशित किया गया था