एक महीने पहले दो महत्वपूर्ण राज्यों में नई सरकारों ने सत्ता संभाली- पंजाब और गुजरात में। पंजाब में कांग्रेस का टीवी धारावाहिक जैसा नाटक चला तो गुजरात में रहस्यमयी समीकरणों का बोलबाला रहा, जहां भाजपा के विधायक मूक फिल्मों के स्टार बना दिए गए थे। उनके पहले हफ्ते के कार्यकाल को देखें तो देश में संघवाद के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं।
लेकिन पहले घटनाक्रम-
गुजरात में विजय रूपाणी की साढ़े चार साल पुरानी सरकार केंद्रीय नेतृत्व की अस्वीकृति के बाद विदा कर दी गई। अशुभ माने जाने वाले श्राद्ध काल की शुरुआत से पहले मुख्यमंत्री ने 11 सितंबर को इस्तीफा दे दिया। यह कहते हुए कि भाजपा की परंपरा के अनुसार वह अब पार्टी के सहयोगी भूपेंद्र पटेल को कमान सौंप रहे हैं, जिन्होंने पहले किसी राज्य स्तरीय मंत्रिमंडल में जूनियर मंत्री के रूप में भी काम नहीं किया था। 13 सितंबर को भूपेंद्र पटेल ने गुजरात के दूसरे सबसे बड़े नेता अमित शाह की मुस्कुराते हुए उपस्थिति में नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। और कुछ दिनों बाद 23 भाजपा विधायकों ने मंत्री के रूप में शपथ ली; उनमें से किसी ने भी पहले कभी मंत्री पद नहीं संभाला था। राजभवन में हुए शपथ ग्रहण समारोह में पुराने मंत्रिमंडल के हरेक सदस्य ने अर्थपूर्ण खामोशी ओढ़ ली थी। यहां तक कि तत्कालीन उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल भी सिर्फ आह भरकर रह गए।
लेकिन यहां एक पेचीदा सवाल है: 13 सितंबर को भूपेंद्र पटेल के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण के साथ ही 2013 में ही जिनकी सेवानिवृत्ति हो चुकी थी, उन्हें उल्लेखनीय रूप से सातवां विस्तार क्यों दिया गया? यह सौभाग्यशाली हैं प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी के कैलाशनाथन यानी ‘केके’, जो 2013 से 2014 तक मुख्यमंत्री मोदी के प्रधान सचिव थे, और अब आज प्रधान सचिव के रूप में कार्यरत हैं। इस तरह वह चौथे मुख्यमंत्री यानी मोदी, आनंदीबेन, रूपाणी और पटेल के साथ कार्यरत रहे।
यह केके पर पीएम मोदी का ही भरोसा था कि वह उन अधिकारियों की सूची में नहीं रखे गए, जिन्हें पीएम बनते समय मोदी अपने साथ 2014 में दिल्ली लाए थे, क्योंकि केके ने पाटीदार आंदोलन के मद्देनजर नई मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तब पीएम बनने वाले मोदी ने यह भी सुनिश्चित किया कि एक और विशेष रूप से प्रतिबद्ध अधिकारी सूरत के पुलिस आयुक्त के ‘प्रहरी’ पद पर रहे। यह सज्जन थे आईपीएस अफसर राकेश अस्थाना, जिन्होंने सबसे पहले 2002 के गोधरा ट्रेन अग्निकांड की घटना को साजिश बताकर सुर्खियां बटोरी थीं।
सितंबर में केके को मिला सातवां सेवा विस्तार नौकरशाही के इतिहास में अभूतपूर्व हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन पूरे गुजरात मंत्रिपरिषद के ‘शांतिपूर्ण’ सामूहिक तख्तापलट के संदर्भ में देखा गया यह शासन के कुशल समीकरणों पर चलने की ओर इशारा करता अब देश में संघवाद का यही चेहरा है: राज्यों की राजधानियों में राज्य-संरक्षित नौकरशाह, जो केंद्र के एजेंडे को लागू करते हैं।
गुजरात में मौजूद राज्य-संरक्षित नौकरशाही को एक प्रमाण की तरह देखें। जहां नई गुजरात सरकार का गठन जाति, ओबीसी, क्षेत्र, विपक्ष के ताकत-कमजोरी आदि के मद्देनजर किया गया था, वहीं ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहीं और था। वह था नई कैबिनेट में शामिल 24 मंत्रियों की शैक्षिक योग्यता। क्या यह सुनिश्चित करता है कि विभाग वितरण के बाद मंत्रियों की चुप्पी का अध्ययन किया गया, क्योंकि शासन किसी भी तरह केके के बाबुओं के माध्यम से ही चलेगा? निम्नलिखित मंत्रिस्तरीय शैक्षिक उपलब्धियों की व्याख्या क्या कहती है?
गुजरात के 24 नए मंत्रियों में से तीन ने कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड़ दिया, एक मंत्री ने कक्षा 4 में स्कूल छोड़ दिया, चार मंत्रियों ने कक्षा 10 के बाद स्कूल छोड़ दिया, और चार मंत्रियों ने कक्षा 12 के बाद शिक्षा छोड़ दी। चुनावी डेटा पोर्टल MyNeta से पता चलता है कि गुजरात के 50% मंत्री विश्वविद्यालय की शिक्षा तक नहीं पहुंचे हैं। गौरतलब है कि गरीबी और ‘पिछड़ेपन’ का शैक्षिक योग्यता से खास सरोकार नहीं होता है।
हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क थ्योरी को लागू किए बिना कुछ सवालों के जवाब दिए जाने चाहिए: गुजरात में भाजपा के 25 साल के शासन में अपने ही राजनीतिक अभिजात वर्ग का इतना बड़ा हिस्सा स्कूल कैसे छोड़ गया? आवश्यक ज्ञान के भंडार में स्पष्ट विषमता के साथ क्या जनप्रतिनिधि ” केके के कठपुतली” हैं? और क्या शिक्षा की कमी ने सुपर-नौकरशाह की ताकत के प्रति डर को जन्म दिया है?
जवाब के लिए पंजाब कैबिनेट की ओर मुड़ें, जिसने 15 सितंबर को हास्यास्पद हालात में शपथ ली थी। बिना किसी प्रदर्शन के छोटे-छोटे पांच विद्रोह हुए। मुख्यमंत्री पद की आशा करने वाले और उनके वफादारों द्वारा वॉक-आउट, कारों का घेराव, पंजाब कांग्रेस के वरिष्ठ किशोरों द्वारा आपस में बदजुबानी करना और हाईकमान के प्रतिनिधियों द्वारा बयानों को बार-बार वापस लेना।
कांग्रेस के भीतर के झगड़ों और भितरघातों के बीच मुख्यमंत्री चन्नी (बीए एलएलबी) ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को डराने या पैर खींचने की संस्कृति को उजागर किए बिना दृढ़ता के साथ अपनी मंत्रिपरिषद बना ली। कुछ चतुर राजनीतिक कदमों का प्रदर्शन करते हुए चन्नी ने पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और नए एनडीए नेता एवं कांग्रेस के नाराज पूर्व नेता अमरिंदर सिंह से मुलाकात भी कर ली, जिनकी अंतरंग साथी पाकिस्तानी पत्रकार अरूसा आलम नए कांग्रेस नेताओं को “लोमड़ियों का झुंड” कहती हैं।
अब चन्नी की मंत्रिपरिषद पर विचार करें, जो MyNeta द्वारा उनके आधिकारिक हलफनामों पर आधारित है। पंजाब में 14 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में (सिद्धू की वफादार रजिया सुल्तान के इस्तीफे के बाद) 10 स्नातक हैं (विज्ञान स्नातक या कानून या इंजीनियरिंग डिग्री सहित)। चार मंत्रियों ने या तो कक्षा 10 या कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड़ दिया। इसलिए चन्नी की मंत्रिपरिषद में 70% या उससे अधिक स्नातक हैं, और 30% जिन्होंने हाई स्कूल पूरा नहीं किया है। मूल रूप से करोड़पति राणा गुरजीत सिंह, जिनकी नियुक्ति का सिद्धू ने विरोध किया है, उन लोगों में से हैं जिन्होंने 10 वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की है। पंजाब मंत्रिमंडल में जहां लगभग तीन-चौथाई स्नातक या उससे ऊपर हैं, क्या हम उनसे दृढ़ता की उम्मीद कर सकते हैं या केके जैसे देश में केंद्रीकृत संघवाद की उभरती प्रवृत्ति को निर्णायक होते देखेंगे?
मैंने यह सवाल गुजरात बीजेपी के एक विधायक से किया, जिन्होंने 2017 में कांग्रेस के कड़े उम्मीदवार के खिलाफ बेहद कड़े मुकाबले के बाद विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीता था। उनका जवाब था, “जिस तरह से हमारी सरकार को डूबने लायक बनाया गया है, उससे हमारा दम घुट रहा है। हम जानते हैं कि हमें अपनी राय रखने का अधिकार नहीं है। लेकिन कई विधायक अब केके के पैर छूने के लिए लाइन में लग गए हैं, क्योंकि उनका तार सीधे पीएमओ और पीएम से जुड़ा है। और, चूंकि हमें 2022 के चुनावों के लिए बीजेपी का टिकट चाहिए, इसलिए हमारे पास मुंह बंद रखने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। हमने अपनी कमर केके के पैरों की तरफ झुका लिया है। हमारे लिए यही विकास का वास्तविक गुजरात मॉडल है।”
(लेखिका नलिनी सिंह वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं।)