गुजरात के पूर्व नौकरशाह अरविंद कुमार शर्मा, जो गांधीनगर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की “आंख और कान” थे, उत्तर प्रदेश में मंत्री बनने से रह गए। जनवरी 2021 में सिविल सेवाओं से इस्तीफा देने के बाद अरविंद शर्मा को यूपी विधान परिषद का सदस्य बनाया गया था। लेकिन रविवार की शाम मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा किए गए अंतिम कैबिनेट विस्तार में उन्हें शामिल नहीं किया गया।जब शर्मा ने अपने गृह राज्य यूपी में पूर्णकालिक राजनेता बनने के लिए आईएएस की नौकरी छोड़ी थी, तब माना गया था कि वह जल्द ही आदित्यनाथ सरकार का हिस्सा बनेंगे और फरवरी-मार्च 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में लखनऊ में केंद्र के लिए प्रॉक्सी के रूप में कार्य करेंगे। इस्तीफा देकर राजनीतिक सफर शुरू करने से पहले उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में अतिरिक्त सचिव के अलावा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग के सचिव के रूप में कार्य किया था। तब उन्हें यूपी में उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की इत्तला तक दे दी गई थी। जबकि वहां केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा के रूप में पहले से ही दो डिप्टी सीएम हैं। लेकिन माना जाता है कि दोनों ही दिल्ली की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे।
हालांकि “आलाकमान” के रहमोकरम पर हैं रहने वाले भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों के विपरीत, अपनी चलाने वाले के तौर पर उभरे योगी आदित्यनाथ ने शर्मा को शामिल करने के लिए केंद्र के दबाव का लगातार विरोध किया। यूपी सरकार के सूत्रों ने कहा कि आदित्यनाथ को डर था कि अपनी सीमाओं में ही रहने वाले मौर्य और शर्मा के विपरीत शर्मा “सक्रिय” और “हस्तक्षेप करने वाले” साबित होंगे।
शर्मा भूमिहार जाति से ताल्लुक रखते हैं, जो सामाजिक-जातिगत क्रम में ब्राह्मणों के बाद आता है और पूर्व एवं पश्चिम यूपी के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण है। वह खुद आजमगढ़ जिले के पूर्व के खाजा कुर्द गांव से आते हैं। भाजपा को सरकार में उच्च जाति की उपस्थिति की आवश्यकता थी। इसलिए कि सात से आठ प्रतिशत वोट वाले ब्राह्मण कथित तौर पर आदित्यनाथ की “राजपूत समर्थक” छवि से परेशान हैं, जो नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों की उनकी पसंद में दिखता भी है। ऐसी भावना है कि न केवल ब्राह्मणों को आधिकारिक तौर पर “कम प्रतिनिधित्व” दिया गया, बल्कि उन्हें पुलिस द्वारा उत्पीड़न और डराने-धमकाने के लिए निशाना भी बनाया जा रहा। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलितों की तुलना में संख्या में बहुत कम होने के बावजूद ब्राह्मण अपने वजन से अधिक राय बनाने और सामाजिक प्रभावक के रूप में छाप छोड़ते हैं। मूल रूप से कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक रहे ब्राह्मणों ने 1989 के बाद लगभग हर चुनाव में, 2007 और 2012 को छोड़कर, जब वे क्रमशः बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए पक्षधर थे, भाजपा का साथ दिया है। इस समय भाजपा के ब्राह्मण समर्थन में दरार को भांपते हुए बसपा और सपा ने इस समुदाय का दिल जीतने के लिए अभियान शुरू कर दिया है।
ब्राह्मणों को शांत करने की कोशिश करने के लिए आदित्यनाथ कैबिनेट में उच्च जाति का कोटा पूर्व कांग्रेसी जितिन प्रसाद के पास चला गया, जो इस साल की शुरुआत में ही मूल पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं। प्रसाद को भी रविवार को ही तीन अन्य सदस्यों के साथ विधान परिषद के लिए नामित किया गया। सूत्रों के मुताबिक, ऐसे में अरविंद शर्मा ने मौका गंवा दिया है। क्योंकि, ब्राह्मण-भूमिहार के लाभ-हानि देखते हुए भाजपा के लिए ब्राह्मणों को खुश करना “अधिक महत्वपूर्ण” था। इसलिए पीवी नरसिम्हा राव के राजनीतिक सलाहकार रहे दिवंगत जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद को “अधिक उपयुक्त” माना गया। यूं तो प्रसाद 2014 के बाद से चुनाव हारते आ रहे हैं, लेकिन 2022 के चुनावों में भाजपा उम्मीदवार के रूप में किस्मत बदलने की उम्मीद में हैं।
दरअसल, रविवार की कवायद में जाति मुख्य निर्धारक थी। भाजपा मुख्य रूप से गैर-यादव ओबीसी से अपनी चुनावी ताकत हासिल करती है, जो राज्य भर में बड़ा समूह बनाते हैं। योगी सरकार में शामिल किए गए सात मंत्रियों में से तीन ओबीसी हैं, दो गैर-जाटव दलित हैं और एक अनुसूचित जनजाति से हैं। गैर-जाटवों को चुनने का कारण गैर-यादवों वाला ही है। यानी अगर यदि यादव कमोबेश सपा के साथ रहते हैं, तो जाटव भी काफी हद तक बसपा के समर्थक हैं।मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले प्रमुख लोगों में बरेली के बहेड़ी के विधायक छत्रपाल सिंह गंगवार हैं। केंद्र में मोदी द्वारा किए गए पिछले कैबिनेट विस्तार में बरेली से आठ बार सांसद रहे संतोष गंगवार को हटा दिया गया था। भाजपा ने तब शायद सोचा था कि जिस जाति से गंगवार हैं यानी ओबीसी-कुर्मी बहुल उस क्षेत्र में एक “नया” चेहरा लाने का समय आ गया है। इसलिए छत्रपाल सिंह को संतोष गंगवार के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है।
निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल (निषाद) के मुखिया संजय निषाद बीजेपी के सहयोगी हैं। पिछले हफ्ते निषाद ने यूपी के प्रभारी केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान की उपस्थिति में भाजपा के साथ गठबंधन पर मुहर लगाई थी। इसके बाद संजय निषाद को मंत्री बनने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि उन्हें रविवार को ही विधान परिषद के लिए नामित किया गया था, लेकिन निषाद जाति का कोटा भरने के लिए भाजपा अपनी ही विधायक संगीता बलवंत बिंद को ले आई।
वैसे योगी आदित्यनाथ ने यूपी में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है, लेकिन अंतिम परीक्षा तब होगी जब टिकटों का बंटवारा करना होगा। अरविंद शर्मा यूपी बीजेपी में उपाध्यक्ष हैं। हालांकि उपाध्यक्ष का पद नाममात्र का होता है। सूत्रों के मुताबिक, दरअसल पार्टी संगठन में केंद्र के “वास्तविक” प्रतिनिधि के रूप में उनसे इस मामले में दिल्ली के मन की बात और पसंद आदि को रखने की उम्मीद की गई है।