पिछले बुधवार को अजमेर की एक अदालत ने अजमेर शरीफ दरगाह (Ajmer Sharif Dargah) के सर्वे की मांग वाली याचिका स्वीकार की। इस याचिका में दावा किया गया है कि यह दरगाह उस स्थान पर बने हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई थी।
अजमेर का इतिहास और दरगाह की पृष्ठभूमि
अजमेर, जिसे ऐतिहासिक रूप से अजयमेरु कहा जाता था, 7वीं से 12वीं शताब्दी के बीच राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों पर शासन करने वाले चौहान राजवंश की राजधानी थी। 12वीं शताब्दी के मध्य में अजयराज चौहान द्वारा इस शहर की स्थापना की गई थी।
1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद मोहम्मद गोरी की सेना ने अजयमेरु पर कब्जा कर लिया और मंदिरों को तोड़कर शहर को लूटा। अजमेर के इतिहासकार हर बिलास सरदा की पुस्तक अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव (1911) में इस घटना का उल्लेख है, जिसे याचिका में उद्धृत किया गया है।
इसके बाद, यह शहर कई शताब्दियों तक उपेक्षित रहा और 16वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में पुनर्जीवित हुआ। 15वीं शताब्दी में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का निर्माण हुआ। हालांकि, ऐतिहासिक विवरण स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते कि दरगाह किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की कथा और विरासत
1141 में सिस्तान (आधुनिक ईरान) में जन्मे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने धर्मशास्त्र, दर्शन और स्थानीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया। 1191 में अजमेर आने के बाद उन्होंने समर्पण और सेवा का जीवन जिया, जिससे उन्हें “गरीब नवाज” (गरीबों के दोस्त) की उपाधि मिली।
चिश्ती सूफी परंपरा का हिस्सा होने के नाते, ख्वाजा ने स्थानीय परंपराओं को अपने संदेश में समाहित किया। अजमेर शरीफ दरगाह को आज भी सभी धर्मों और वर्गों के लोग श्रद्धा के साथ देखते हैं। कुछ ऐतिहासिक कथाओं में ख्वाजा की शिवलिंग से जुड़ी घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है, जो उनकी शिक्षाओं की समरसता को दर्शाती हैं।
दरगाह का विकास
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की 1236 में मृत्यु के बाद उनकी समाधि को पहले मिट्टी का ही स्थान बना रहने दिया गया। 15वीं शताब्दी में मालवा के खिलजी शासकों ने दरगाह के मुख्य प्रवेश द्वार बुलंद दरवाजा का निर्माण किया।
1532 में मुगल सम्राट हुमायूं के शासनकाल में दरगाह पर संगमरमर का गुंबद बनाया गया। इसके बाद अकबर, जहांगीर और शाहजहां जैसे मुगल शासकों ने दरगाह के निर्माण और विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
याचिका में दावा किया गया है कि बुलंद दरवाजा और दरगाह की अन्य संरचनाओं में हिंदू और जैन मंदिरों के अवशेष शामिल हैं।
याचिका के प्रभाव
इस याचिका ने भारत में धार्मिक स्थलों के इतिहास और सांस्कृतिक परतों को लेकर बहस को फिर से जन्म दिया है। जहां दरगाह सूफी समावेशिता का प्रतीक है, वहीं इस याचिका के जरिए संभावित सर्वेक्षण ऐतिहासिक और पुरातात्विक तथ्यों को उजागर कर सकता है। अदालत का फैसला आने वाले दिनों में जनमानस और विद्वानों के बीच व्यापक चर्चा का विषय बनेगा।
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