बघेल को राहत की सांस - Vibes Of India

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बघेल को राहत की सांस

| Updated: August 29, 2021 10:13

राजनीति की अनिवार्यताएं तय करती हैं कि कौन से वादे किए जाएंगे और कब। किसी सज्जन व्यक्ति की तरह छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव ने इसे कुछ कठिनाई के साथ सीख लिया है। राहुल गांधी ने दूसरी बार राज्य के नेतृत्व को लेकर अपने वादे को नहीं निभाने का फैसला है, जिससे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को राहत मिली है और कम से कम निकट भविष्य में वह अपने पद पर बने रहेंगे। राहुल के वादे के भरोसे रहने वाले सिंहदेव पीतल का कटोरा पकड़े ही रह गए हैं।

आइए वहां से शुरू करते हैं, जहां से यह सब शुरू हुआ। 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत के बाद, जिसमें उसने 90 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा को 68-15 से हराया, कांग्रेस के पास पीसीसी अध्यक्ष भूपेश बघेल, विपक्ष के नेता सिंहदेव और राहुल की निजी पसंद तत्कालीन लोकसभा सांसद ताम्रध्वज साहू के रूप में मुख्यमंत्री पद के तीन गंभीर दावेदार थे। 10-जनपथ में पारंपरिक अभिनंदन के बाद साहू के नाम की घोषणा की गई और वह तुरंत हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गए। सिंहदेव और बघेल ने एक साथ आकर राहुल से कहा कि यह उन्हें मंजूर नहीं है, क्योंकि साहू को विधायक दल में कोई समर्थन नहीं है और वे इस्तीफा दे देंगे और साधारण कांग्रेसी के रूप में बने रहेंगे। राहुल दबाव में आ गए और साहू को हवाई अड्डे से वापस बुला लिया गया, जबकि उनके गांव में पटाखे फोड़े जा रहे थे।

राहुल को यह स्पष्ट हो गया कि साहू के पास विधायकों में पर्याप्त समर्थन नहीं है। इसके विपरीत सिंहदेव के समर्थक 42 विधायक थे, जबकि बाकी बघेल के समर्थन में थे। इसलिए राहुल ने अपना पहला वादा तोड़ा। यह काफी आसान था, क्योंकि साहू ने इसे खामोशी से स्वीकार कर लिया और वह गृह मंत्रालय में चुपचाप लौट भी आए। इसके बाद राहुल ने स्पष्ट रूप से बाकी दोनों दावेदारों के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ढाई-ढाई साल के बंटवारे का फॉर्मूला तैयार किया। इसे मानते हुए बघेल ने पहले ढाई साल का कार्यकाल लेने पर जोर दिया। सिंहदेव ने कहा कि अगर उन्हें दो साल के लिए भी पहली बारी दी जाती है तो खुशी होगी। लेकिन जीत बघेल की हुई और इस तरह उन्होंने हफ्ते भर बाद 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली।

“जय और बीरू” की जोड़ी के रूप में पिछले ढाई साल से भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ साथ रहने वाले बघेल और सिंहदेव के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बिगड़ गए हैं। बघेल ने उन्हें बागी बनाने या इस्तीफे के लिए दबाव डालने का कोई मौका नहीं छोड़ा है, ताकि पांच साल के पूरे कार्यकाल के लिए उनका रास्ता साफ हो जाए। इस खातिर उन्हें कैबिनेट की बैठकों में बुलाना छोड़ दिया। अगर वे पहुंचे भी तो उनकी अनदेखी कर रहे थे और प्रॉक्सी के माध्यम से उनका विभाग चला रहे थे। उन्होंने कोविड प्रबंधन के लिए वेबसाइट पर भी हंगामा किया, इसलिए राज्य में दो वेबसाइट हैं। एक स्वास्थ्य विभाग से तो दूसरा सीएमओ से संचालित होता है।

पिछले महीने चीजें उस समय और खराब हो गईं, जब अंबिकापुर के कांग्रेस विधायक बृहस्पत सिंह ने सिंहदेव पर उनकी हत्या की साजिश का आरोप लगा दिया। इससे विधानसभा में हंगामा हुआ और सिंहदेव ने वाकआउट करने का फैसला किया। उन्होंने बृहस्पत के माफी मांगने तक सदन में वापस नहीं आने का फैसला किया। जैसा कि इस तरह के सियासी कदमों में चलन है, बृहस्पत ने माफी मांग ली। लेकिन मंत्री के खिलाफ इस तरह के गंभीर और निराधार आरोप लगाने के लिए उनके खिलाफ पार्टी या पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

सिंहदेव ने जुलाई के पहले सप्ताह में राहुल का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिशें तेज कर दीं। उन्होंने सभी संबंधित महासचिवों के अलावा राहुल और प्रियंका के साथ कई दौर की बैठक की। बघेल को भी बुलाया गया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सिंहदेव को 15 अगस्त तक इंतजार करने के लिए कहा गया, क्योंकि पंजाब के मुद्दे सुलझाए जा रहे थे। 15 अगस्त आया और चला गया। इस बीच सिंहदेव दिल्ली और भोपाल में डेरा डालते रहे। बघेल को दो बार फिर बुलाया गया और कई लंबी बैठकों के बाद भी यह मुद्दा अनसुलझा ही लगता है।

सिंहदेव के प्रयासों को नाकाम करने के लिए बघेल ने अपने पत्ते सोचकर चले हैं। एक सुनियोजित अभियान के तहत दिल्ली में कई मीडिया कर्मियों ने लगातार ट्वीट करना शुरू कर दिया कि एक “शाही लॉबी” छत्तीसगढ़ को अस्थिर करने की कोशिश में है। यह शाही लॉबी सिंधिया के लिए एक सीधा संदर्भ थी, जिन्होंने मध्य प्रदेश में कमलनाथ के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया और अब केंद्रीय मंत्री हैं। गौरतलब है कि सिंहदेव सरगुजा स्टेट के वंशज हैं।

सत्ता के अन्य दलालों ने अफवाहों का ऐसा अभियान भी शुरू कर दिया कि सत्ता के लिए सिंहदेव के ताजा प्रयासों के पीछे एक “बड़ी खनन कंपनी” है। अदानी छत्तीसगढ़ में एकमात्र प्रमुख खनन कंपनी है। बघेल समर्थकों का एक और गुट अधिक राजनीतिक है, क्योंकि बघेल को हटा दिए जाने पर ओबीसी कैसे नाखुश हो जाएंगे, इस पर पेड संपादकों ने प्रचुर मात्रा में लिखना शुरू कर दिया। यह इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि ओबीसी अपने आप में एक नहीं हैं। राज्य में ओबीसी के तहत तेली, अघरिया, कुर्मी, देवांगन और सिन्हा जैसी कई शक्तिशाली जातियां शामिल हैं। बघेल कुर्मी जाति के हैं, जबकि साहू उन सभी में प्रमुख जाति तेली के सबसे बड़े नेता हैं। संयोग से तेली प्रधानमंत्री की भी जाति है।

आधिकारिक तौर पर कथित बदलाव की तारीख 17 जुलाई ’21 थी, लेकिन कांग्रेस महासचिव और बघेल के प्रवक्ता बने पीएल पुनिया ने घोषणा की कि ढाई-ढाई साल वाला कोई फॉर्मूला नहीं था। बघेल ने इस पर राहुल के बजाय पुनिया को उद्धृत करने का विकल्प भी चुना। अगर ऐसा कोई फॉर्मूला नहीं था तो राहुल और प्रियंका के आवास पर दिल्ली में तमाम दौर की बैठकें क्यों हुईं? दोनों नेताओं को केसी वेणुगोपाल से मिलने के लिए क्यों कहे गए? सिंहदेव को दिल्ली में ही क्यों घूमने दिया? इस सबके लिए जिम्मेदार शख्स ने अभी तक कुछ नहीं कहा है। अगर उसने कोई वादा किया है, तो उसे निभाना चाहिए, क्योंकि दोनों आदमी उसकी बात सुनेंगे। छत्तीसगढ़ की राजनीति का निर्विवाद सत्य यह है कि सिंहदेव और बघेल दोनों ही इतने बड़े नहीं हैं कि पार्टी छोड़ने का साहस दिखा सकें। दूसरे, ऑपरेशन कमल के लिए उनमें से किसी के भी साथ बीजेपी जा नहीं सकती, क्योंकि उसके पास संख्या बल ही नहीं है।

फिर भी जैसे-जैसे दिल्ली में खेल आगे बढ़ा, कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के भीतर भ्रम सिद्धू-पटियाला प्रतिद्वंद्विता की याद दिलाता है। कई दौर की बैठकों और मशविरे के बाद सिद्धू को आखिरकार पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया और वह अभी भी पटियाला की कुर्सी के लिए लगातार ताबड़तोड़ फायरिंग करते दिख रहे हैं। अविश्वसनीय रूप से अपने वादे नहीं निभाते हुए राहुल छत्तीसगढ़ में भी जब-तब इसी तरह के एक और परिदृश्य को बनाने में मदद कर रहे हैं।

Neeraj Mishra is a senior journalist and practising lawyer. He has written extensively on central India over past three decades for India Today, Indian Express, Outlook and Sunday Times, London.

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