बिहार में राजनीति उतनी ही बहुस्तरीय और जटिल है, जितने खिलाड़ी हैं। छोटे-बड़े येखिलाड़ी विधानसभा और संसद में भाग्य बनाने और बिगाड़ने वाले हैं। जाति-आधारित जनगणना कराने को लेकर हाल ही में मची घमासान ने बिहार की राजनीति में अंतर्विरोध को उजागर कर दिया है। खासकर सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और बीजेपी में। जाति-आधारित जनगणना के मुद्दे के राष्ट्रीय प्रभाव हैं, क्योंकि इस मांग को मुख्य रूप से हिंदी भाषी क्षेत्र के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नेताओं ने ही हरी झंडी दिखाई थी। उन्होंने एक पारदर्शी और सटीक गणना की मांग की थी, ताकि शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में वैधानिक आरक्षण का लाभ उनके वास्तविक हकदारों तक पहुंचे। यह मांग पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा ऐतिहासिक रूप से मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने नतीजा है, जिसका बाद में जल्द से जल्द उठना तय था।
ओबीसी वर्तमान में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में निर्णायक हैं। उत्तर प्रदेश में जनाधार बढ़ाने के लिए बीजेपी राजपूतों और बनियों के साथ ओबीसी वोटों को अपनी ओर खींचने का जोर-शोर से प्रयास कर रही है, क्योंकि ब्राह्मण योगी आदित्यनाथ की सरकार से नाराज हैं, जिससे उलटफेर भी हो सकता है। ऐसे में अगर बीजेपी 50 से 60 प्रतिशत ओबीसी वोटों को खींच लेती है, तो वह अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है। इसलिए जाति जनगणना का विषय महत्वपूर्ण हो जाता है।
यूपी और बिहार पड़ोसी हैं। आम तौर पर उनकी राजनीति एक-दूसरे को नहीं काटती है। फिर भी, भारत के सबसे अधिक राजनीतिक रूप से जागरूक राज्यों में होते हुए भी यूपी और बिहार एक-दूसरे के यहां के रूझानों और विकास में समानता नहीं रखते।
यूपी में विपक्ष कभी भी जाति-आधारित जनगणना के लिए विशेष रूप से मुखर नहीं रहा है, क्योंकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों ही ब्राह्मणों को लुभाने में जुटी हैं। इसलिए वे ओबीसी और दलित समर्थक छवियों पर अधिक जोर नहीं दे रही हैं। इसके विपरीत, बिहार में इस मुद्दे को उठाने के लिए सभी दलों ने एकजुटता दिखाते हुए चर्चा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की।
दिलचस्प बात यह है कि इसकी पहल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने की, लेकिन मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार ने स्वेच्छा से तेजस्वी के साथ हाथ मिला लिया। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री से मिलने वाले 11 दलों में एनडीए से जदयू के साथ-साथ जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) और मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) भी थी। इनके अलावा विपक्ष से राजद, कांग्रेस, वाम मोर्चा, भाकपा (माले) और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम भी शामिल थी।
नीतीश-तेजस्वी का रिश्ता स्पष्ट रूप से इस आयोजन का मुख्य आकर्षण था। नीतीश ने नेतृत्व करने के लिए युवा राजद नेता की सराहना की। दोनों एक साथ चले और एक जोड़ी के रूप में उभरे। बाद में दोनों के बीच आपस में भी बातचीत हुई। पीएम से बातचीत के बाद प्रतिनिधिमंडल ने कहा कि उसे केंद्र से “सकारात्मक परिणाम” की उम्मीद है।
बिहार में बीजेपी जाति के आधार पर बंटी हुई थी। पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी सहित इसके कई ओबीसी नेताओं ने जाति-आधारित जनगणना की वकालत की, जबकि उच्च जातियों के साथ-साथ दलित भी इसे लेकर अनिच्छुक लग रहे थे। दरअसल, मोदी से मिलने वाले राज्य प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने को लेकर शुरू में बीजेपी अनिर्णीत थी। सुशील मोदी के हस्तक्षेप पर राज्य के एक मंत्री जनक राम इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल हो गए।
बड़े मुद्दे की तह में छिपे हुए स्पष्ट संदेश थे। इनमें से प्रमुख बीजेपी के लिए नीतीश का संकेत था, जो राजनीतिक और व्यक्तिगत था। वह यह कि चाहे उनकी सरकार बीजेपी के साथ गठबंधन में हो और अस्तित्व के लिए बीजेपी के समर्थन पर गंभीर रूप से निर्भर हो, ओबीसी उनका मूल आधार है। इसलिए नीतीश के सामने जाति-आधारित जनगणना की जरूरत से खुद को दूर रखने की कोई वजह नहीं थी। हालांकि, नीतीश भी कथित तौर पर नाराज हैं कि उनके एक सांसद रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) को केंद्र में हाल में हुए विस्तार के दौरान कैबिनेट में शामिल कर लिया गया। नीतीश चाहते थे कि उनके सबसे करीबी राजनीतिक सहयोगियों में से एक लल्लन सिंह भी मंत्री बनें। लेकिन बहुत चतुराई के साथ यह कहते हुए उनका पत्ता काट दिया गया कि वजह बाद में बता दी जाएगी।
पटना के एक राजनीतिक पर्यवेक्षक के अनुसार, आरसीपी सिंह – जिसे अभी भी नीतीश की “आंख और कान” में से एक माना जाता है- को जुलाई 2017 में “महागठबंधन” से नीतीश को बीजेपी में वापस लाने के लिए “पुरस्कृत” किया गया।हालांकि नीतीश को कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव के साथ भी उन्होंने ही जोड़ा था। महागठबंधन ने 2015 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी। इसके बाद जद (यू) के भीतर एक धारणा थी कि आरसीपी सिंह दरअसल मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ खेला कर सकते हैं। यूपी कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी आरसीपी सिंह तब असहज हो गए थे, जब नीतीश ने एक स्वतंत्र राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर (पीके) को जद (यू) में शामिल कर उपाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। किशोर जद (यू) में लंबे समय तक नहीं रहे, लेकिन पार्टी सूत्रों ने कहा कि इस प्रकरण ने आरसीपी सिंह का मन खट्टा कर दिया।
बीजेपी-जद (यू) के समीकरण को बिगाड़ देने का एक और कारण बना। वह था लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) में मंथन, जिसका नेतृत्व दिवंगत रामविलास पासवान कर रहे थे। रामविलास की मृत्यु के बाद उनके बेटे और राजनीतिक उत्तराधिकारीचिराग ने नीतीश का विरोध करने के लिए बिहार चुनाव से पहले मोर्चा संभाला और एनडीए से बाहर हो गए। हालांकि राजनीतिक चाल के रूप में चिराग ने मोदी और बीजेपी का समर्थन किया। इससे बीजेपी को नीतीश का कद छोटा करने और जद (यू) पर अंकुश लगाने में मदद मिली। चिराग ने कई सीटों पर नीतीश के उम्मीदवारों को हराने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने विधानसभा में नीतीश से ज्यादा सीटें हासिल करने के लक्ष्य को हासिल करने में बीजेपी की मदद की।
प्रतिक्रिया में चिराग से भी भिड़ने के लिए नीतीश तैयार हो गए। उन्होंने लल्लन सिंह को संसद में लोजपा को विभाजित करने और उसके छह सांसदों (चिराग को छोड़) को जद (यू) में लाने के काम पर लगा दिया। इसके पीछे नीतीश का मकसद एनडीए में बड़ा भाई बनने के खेल में बीजेपी को संसद में पछाड़ना था। गौरतलब है कि बीजेपी के पास राज्य से 17 और जद (यू) के 16 सांसद हैं। अगर नीतीश को लोजपा के पांच सांसद मिल गए होते, तो उनके पास 21 सांसद हो जाते। यानी बीजेपी से चार अधिक।
बीजेपी ने इस खेल को समझा और उसे खत्म कर दिया। लोकसभा अध्यक्ष ने रामविलास के छोटे भाई पशुपति नाथ पारस को चिराग के बजाय संसद में लोजपा के नेता के रूप में मान्यता दे दी और निचले सदन में तदनुसार सीटें भी आवंटित कर दीं। जद (यू) असहाय होकर देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था।
बहरहाल, बिहार में उथल-पुथल की अटकलें लगाना अभी जल्दबाजी होगी। तेजस्वी ने अपने राजद सहयोगियों को स्पष्ट कर दिया कि उन्हें एनडीए सरकार को अस्थिर करने की कोई जल्दबाजी नहीं है। हालांकि बताया जाता है कि उनके पिता लालू प्रसाद अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं। लेकिन तेजस्वी एक परिपक्व राजनेता बन चुके हैं। ऐसे में वह नीतीश को बीजेपी के साथ तालमेल बिठाने में मदद करने के लिए “पलटू चाचा” (नीतीश के लिए उनका उपनाम) के हाथों का मोहरा नहीं बनना चाहेंगे। इस तरह तय है कि बीजेपी और जद (यू) को आपसी अविश्वास को दूर करने के लिए काफी काम करना होगा।