याचिकाएं 1949 के कानून पर सवाल उठाने के लिए निजता के अधिकार का हवाला देती हैं; जबकि राज्य का कहना है कि कानूनों को फिर से परिभाषित करने का मतलब होगा भानुमति का पिटारा खोलना।
गुजरात हाई कोर्ट ने सोमवार को गुजरात मद्यनिषेध कानून, 1949 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं को विचार के लिए स्वीकार कर लिया है, जो राज्य में शराब के निर्माण, बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है। बता दें कि याचिकाएं शराबबंदी नीति को चुनौती नहीं दे रही हैं, बल्कि स्वतंत्रता पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं जो एक व्यक्ति को भारत का संविधान देता है।
याचिकाओं में मुख्य रूप से निजता के अधिकार के आधार पर इस कानून के कुछ हिस्सों की वैधता को चुनौती दी गई है, कि क्या इसका मतलब निजी स्थानों पर शराब पीने की अनुमति निकाला जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति बीरेन वैष्णव की पीठ ने राज्य सरकार के आवेदन और महाधिवक्ता द्वारा उठाई गई प्रारंभिक आपत्ति को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि हाई कोर्ट के समक्ष याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 1951 में संपूर्ण शराबबंदी कानून की वैधता को बरकरार रखा था। महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी ने कहा था कि हाई कोर्ट को न तो इस मुद्दे को सुनने का अधिकार है और न ही उसे इसकी अनुमति ही है।
सरकारी वकील के मुताबिक, यदि कोई निजता के अधिकार के आलोक में कानून में सुधार चाहता है, तो उसके पास 2017 में शीर्ष अदालत द्वारा प्रदत्त अधिकार है, लेकिन उसे इसके लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाना होगा। उन्होंने कहा कि निजता के अधिकार का हवाला देकर कानून को परिभाषित और पुन: व्याख्या नहीं की जा सकती है, क्योंकि इससे कानूनों के संदर्भ में भानुमति का पिटारा खुल सकता है।
दूसरी ओर, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि इस मामले को गुण-दोष के आधार पर लिया जाना चाहिए, क्योंकि दलीलों में जिन प्रावधानों को चुनौती दी गई है, वे भौतिक रूप से 1951 में किए गए प्रावधानों से अलग हैं, क्योंकि उन्हें वर्षों से संशोधित किया जाता रहा है।
महिला अधिकार समूह AWAG के वरिष्ठ वकील प्रकाश जानी ने गुजरात सरकार के रुख से सहमति व्यक्त की। उन्होंने यहां तक कहा कि पददलितों के लिए काम करने वाले शराबबंदी नीति की अवश्य ही सराहना करेंगे। उन्होंने कहा कि शराबबंदी नीति के कारण ही गुजरात प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में शीर्ष पर है।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील देवेन पारिख, मिहिर ठाकोर, मिहिर जोशी और सौरभ सोपारकर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कानून की मुख्य धारा 12 और 13 की वैधता पर फैसला नहीं दिया था, जो उपभोग को प्रतिबंधित करता है और जो कानून की आत्मा है। एक वरिष्ठ वकील ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इन धाराओं की वैधता के संबंध में सवाल नहीं उठाया गया था। इसलिए चुनौती पूरी तरह से नई है और हाई कोर्ट मामले की सुनवाई कर सकता है।
याचिका पर सुनवाई के लिए अदालत का राजी होना याचिकाकर्ताओं के लिए राहत है, जो कहते हैं कि सरकार लोगों की पसंद को प्रतिबंधित नहीं कर सकती है, कि वे अपने निजी स्थानों में क्या खा सकते हैं या पी सकते हैं। मामले की सुनवाई अब 12 अक्टूबर को होगी।
महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी ने बताया कि सरकार हाई कोर्ट के आदेश को ‘उच्च मंच’ (सुप्रीम कोर्ट) में चुनौती देने की योजना बना रही है।
ऐसे में वाइब्स ऑफ इंडिया ने गुजरात की शराबबंदी नीति और उसे लेकर दायर की गई याचिका की पड़ताल की एक कोशिश की है। आइये, जानते हैं इस बारे में।
किस बारे में है याचिका?
याचिका में गुजरात शराबबंदी कानून, 1949 की कुछ धाराओं को लेकर हाई कोर्ट में चुनौती दी गई है।
गुजरात में कब लागू की गई थी शराबबंदी?
गुजरात में शराब पर अंकुश लगाने वाला पहला कानून दिलचस्प रूप से 1878 में बना था। तब गुजरात और बॉम्बे एक ही राज्य थे और बॉम्बे आबकारी कानून में शराब पर भारी कर लगाने का प्रावधान था। लेकिन यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अस्करी, जिसका अर्थ राजस्व बढ़ाने के उद्देश्य से पेश किए गए करों से था, वे कानून के लिए कोई वैध आधार नहीं थे।
1939 और 1947 में इस कानून में संशोधन किए गए और गुजरात और बॉम्बे में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा की गई। लेकिन 28 दिसंबर, 1948 से मौजूदा नीति निष्क्रिय हो गई, जिसका अर्थ है कि कोई निषेध नहीं था और नागरिक वास्तव में गुजरात और बॉम्बे में शराब पी सकते थे।
ऐसे में सरकार ने शराबबंदी के सवाल पर पुनर्विचार किया और चार साल की योजना के आधार पर पूरे बॉम्बे प्रांत में “पूर्ण शराबबंदी” की नीति को लागू करने का निर्णय लिया गया। मद्यनिषेध अधिनियम-1949 में कहा गया है कि शराब के सेवन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि इससे स्वास्थ्य बिगड़ता है। शराबबंदी स्वास्थ्य के लिए ठीक है, इसे कानून को लागून करने का आधार बनाया गया।
दिलचस्प बात यह है कि तब संविधान सभा को लगा था कि “निषेध नहीं होना चाहिए और इस प्रकार कानून” का कोई संवैधानिक इतिहास नहीं है।
1960 के बाद
1960 में बॉम्बे प्रांत के महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में पुनर्गठन के बाद गुजरात ने पूर्ण शराबबंदी नीति पर आगे बढ़ने का रास्ता चुना। इस आधार पर कि महात्मा गांधी का जन्म चूंकि गुजरात में ही हुआ था और यह उनके सम्मान का प्रतीक था। उधर, महाराष्ट्र ने इस नीति को हटा दिया और तदनुसार अपने कानून में संशोधन किया।
गुजरात में 1960 से 2011 तक
गुजरात में शराबबंदी नीति को मजाक में बदल दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि शराबबंदी नीति के बचाव में पहले जो कहा गया था, वह जवाबी बचाव बन गया। गुजरात के कानूनों में कहा गया है कि शराब के सेवन की अनुमति केवल एक पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टर की अनुमति के आधार पर ही दी जा सकती है, जिसमें कहा गया हो कि शराब सेहत के लिए अच्छी है! अभी भी गुजरात में लोगों स्वास्थ्य के आधार पर ही परमिट दिए जा सकते हैं।
2000 के दशक से पहले की शराबबंदी नीति इतनी विषम थी कि गुजरात में शराब पीने की अनुमति लेने वाले सभी लोगों को एक अजीब फॉर्म भरना पड़ता था। इसमें पूछा जाता था, “शराबी का नाम” और उस रूप में शराबी के पिता का नाम, जो मजाक का विषय बन जाता।
2011 के बाद
गुजरात सरकार ने 2011 में कानून का नाम बदलकर गुजरात निषेध अधिनियम कर दिया। शराबी संदर्भ हटा दिए गए थे।
हालांकि अब भी गुजरात के निवासी पीने के लिए “परमिट” के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं, जब वह/ अन्य की आयु न्यूनतम 40 वर्ष हो और डॉक्टरों द्वारा सिफारिश की गई हो कि उन्हें स्वास्थ्य के मद्देनजर शराब का सेवन करने की आवश्यकता है।
यकीनन इस दौरान साबरमती से बहुत पानी बह चुका है, लेकिन महात्मा गांधी के नाम पर शराबबंदी नीति पर गुजरात लटका ही हुआ है। जैसा कि एक युवा व्यवसायी अमल शाह बताते हैं, “यह बहुत बड़ा पाखंड है। शराब की तस्करी जोरों पर है। गुजरात में सभी ब्रांड उपलब्ध हैं, फिर भी हम एक पुरातन निषेध नीति से बंधे हुए हैं। गुजरातियों को प्रगतिशील माना जाता है, लेकिन वास्तव में हम भी पाखंडी हैं।”
शराबबंदी नीति से गुजरात को क्या नुकसान?
बिक्री कर, जीएसटी और अन्य करों के रूप में लाखों का राजस्व नुकसान, जो बिना परमिट के भी शराब मिलने पर लगाया जाएगा। कहना ही होगा कि गुजरात में पुलिस भ्रष्टाचार और शराब की तस्करी का एक साथ चलने का इतिहास रहा है।
शराबबंदी नीति से गुजरात को क्या हासिल हुआ?
सख्त शराबबंदी नीति की वकालत करने वालों का कहना है कि गुजरात इस वजह से महिलाओं के लिए सुरक्षित है। साथ ही, नीति के लागू होने के कारण कुल मिलाकर अपराध दर कम है।
वाइब्स ऑफ इंडिया का इन पर कोई व्यक्तिगत विचार नहीं है, लेकिन उसका मानना है कि कई राज्यों के विपरीत, जहां शराबबंदी नहीं है, समाज के वंचित और विवाहित वर्गों में महिलाओं की स्थिति अत्यधिक शराब की उपलब्धता और खपत के कारण बदतर है। नाम न छापने की शर्तों पर गुजरात कैडर के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी स्वीकार करते हैं कि सस्ती और नकली शराब वास्तव में सरकार द्वारा अनुमोदित दुकानों द्वारा बेची जाने वाली शराब की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाती है। उनका यह भी कहना है कि अगर शराबबंदी नीति में ढील दी जाए तो पुलिस भ्रष्टाचार पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। अभी गुजरात के हर वंचित क्षेत्र में स्थानीय तस्कर हैं जो पुलिस को एक निश्चित मासिक राशि देते हैं, जिसे हैप्पी कहा जाता है। सरकार को करों के रूप में तो घाटा होता ही है, ऊपर से नकली शराब को गलत तरीके से बढ़ावा भी दिया जाता है।
गुजरात में शराबबंदी पर पाखंड की मिसाल
- भारत में कहीं और से यात्रा करने वाला कोई भी व्यक्ति अपना आवासीय प्रमाण दिखाकर हवाई अड्डे से ही पीने का परमिट प्राप्त कर सकता है और दर्जनों फाइव स्टार होटलों से शराब खरीद सकता है, लेकिन एक गुजराती ऐसा नहीं कर सकता।
- महात्मा गांधी एक गुजराती थे, जिनका बहुत सम्मान है। लेकिन वह राष्ट्रपिता भी हैं। अगर हम एक राष्ट्र, एक चुनाव की बात करते हैं तो मद्यनिषेध पर एक राष्ट्र का तर्क होना चाहिए। लेकिन यह संभव नहीं है, क्योंकि शराबबंदी राज्य का विषय है, जो और अब तक केंद्रीय विषय नहीं है।
- यदि आप महात्मा गांधी के जन्मस्थान पोरबंदर से हैं, लेकिन वर्तमान में मुंबई में रहते हैं, तो आप अपने निवास का प्रमाण दिखाकर पोरबंदर में शराब पी सकते हैं।
- कोई भी पर्यटक किसी भी शहर में गुजरात सरकार के तत्वावधान में आयोजित सभा या अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन के लिए सामूहिक परमिट का आवेदन कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक गुजराती उद्योगपति एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी कर सकता है और उन्हें सामूहिक परमिट के साथ किसी भी फाइव स्टार होटल में भव्य पार्टी दे सकता है। एक शर्त के साथ। मेजबान भले ही परमिट धारक हो, लेकिन वह अपने मेहमानों के साथ आनंद उठाने के लिए उस ओर नहीं जा सकता।
- अगर तीन बहनें या भाई या दोस्त हैं और उन सभी के पास पीने के लिए आधिकारिक परमिट हैं, लेकिन अगर वे अलग-अलग रहते हैं, यहां तक कि एक ही समाज में अलग-अलग घरों में भी, तब भी शराब पीने के लिए वे एक स्थान पर नहीं मिल सकते हैं। पीने का परमिट निर्दिष्ट करता है कि आप अकेले या किसी ऐसे व्यक्ति के साथ पी सकते हैं, जो आपके आवासीय परिसर में रह रहा हो, जिसकी उम्र 40 वर्ष से अधिक हो और जिसके पास एक अलग स्वास्थ्य परमिट हो। कोई दोस्त या सहकर्मी एक साथ नहीं पी सकते।