भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एनवी रमण ( NV Raman )ने 4 अगस्त को अपने उत्तराधिकारी के रूप में न्यायमूर्ति यूयू ललित ( Justice Uday Umesh Lalit) के नाम की सिफारिश की, जिस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (President Draupadi Murmu) ने 10 अगस्त को मुहर लगा दी। सीजेआई रमण (CJI Raman) 26 अगस्त को रिटायर होने वाले हैं। न्यायमूर्ति ललित 27 अगस्त को पदभार ग्रहण करेंगे। .
संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश (Supreme Court Judge ) 65 वर्ष की आयु में रिटायर ( Retire) होते हैं। न्यायमूर्ति ललित का कार्यकाल तीन महीने से कम का होगा। चूंकि वह इसी साल नवंबर में 65 साल के हो जाएंगे, इसलिए उन्हें पद छोड़ना होगा।
महाराष्ट्र ( Maharashtra )के रहने वाले जस्टिस ललित का जन्म 9 नवंबर, 1957 को हुआ था। जून 1983 में बॉम्बे हाईकोर्ट (Bombay high Court )में प्रैक्टिस करने के लिए वह बार में शामिल हुए थे। बाद में उन्होंने 1986 से सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court )में वकालत की। शीर्ष अदालत ने उन्हें 2004 में वरिष्ठ अधिवक्ता (Senior Counsel) के रूप में नामित किया।
ललित के पिता यूआर ललित ( UR Lalit )वरिष्ठ अधिवक्ता थे। उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में भी कार्य किया। पिता और पुत्र दोनों ने मुख्य रूप से आपराधिक कानून के क्षेत्र में महारत हासिल की और। ललित को सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न बेंचों के तहत न्याय मित्र (Amicus curie ) के रूप में भी नियुक्त किया गया था।
अगस्त 2014 में न्यायाधीश के रूप में अपनी पदोन्नति से पहले न्यायमूर्ति ललित के वकील के रूप में करियर में कई हाई-प्रोफाइल और विवादास्पद मामले भी शामिल थे। जैसे सोहराबुद्दीन शेख और तुलसीराम प्रजापति की कथित फर्जी मुठभेड़ में वह अमित शाह के वकील थे। शेख, उनकी पत्नी कौसरबी और सहयोगी तुलसीराम प्रजापति की हत्याएं कथित कवर-अप की एक श्रृंखला का हिस्सा थीं, जिसने गुजरात के तत्कालीन गृह मंत्री अमित शाह के साथ-साथ राज्य की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार को कानूनी जांच के दायरे में ला दिया था। यही मामला केंद्र में पहली बार बनी मोदी सरकार द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमणियम की जजशिप के लिए सिफारिश लौटाने के विवाद से भी जुड़ा था। बार एंड बेंच ने बताया कि ललित की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति सुब्रमणियम की जगह ही हुई।
सुब्रमणियम को पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के तहत सॉलिसिटर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने लिखा है कि सोहराबुद्दीन शेख की कथित हत्या से जुड़े 2005 के मामले में अदालत की सहायता करने में उनकी भूमिका के लिए उन्हें खास तौर पर निशाना बनाया गया।
इस बीच, फ़र्स्टपोस्ट ने बताया कि सुब्रमणियम की अस्वीकृति केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की एक रिपोर्ट पर आधारित थी, जिसमें दावा किया गया था कि वह 2जी स्पेक्ट्रम मामले के दौरान ए राजा के वकील से निजी तौर पर मिले थे। हालांकि इस आरोप से उन्होंने इनकार किया था।
एक अभूतपूर्व कदम में तत्कालीन सीजेआई आरएम लोढ़ा ने ऑन रिकॉर्ड कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेतृत्व वाली सरकार ने सुब्रमणियम की फाइल को “एकतरफा” और सीजेआई की जानकारी और सहमति के बिना “अलग” कर दिया था।
एक वकील के रूप में ललित 2जी स्पेक्ट्रम मुकदमे में विशेष वकील और अभिनेता सलमान खान के वकील के रूप में भी पेश हुए थे, जो काला हिरण शिकार मामले में आरोपी थे। वह एक गैर इरादतन हत्या के मामले में कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू और भ्रष्टाचार के एक मामले में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की ओर से भी पेश हुए।
इतना ही नहीं, न्यायमूर्ति ललित बाबरी मस्जिद के विध्वंस से संबंधित 1994 की अवमानना मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के दिवंगत नेता कल्याण सिंह के भी वकील रहे। इसलिए एक न्यायाधीश के रूप में ललित ने 2019 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था। तब वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने सुनवाई के दौरान इसका जिक्र कर दिया था।
अंग्रेजी अखबार डीएनए ने तो यह भी बताया कि एक वकील के रूप में ललित ने डॉ. बिनायक सेन की जमानत याचिका का विरोध करते हुए राजद्रोह के मामले में सरकार का प्रतिनिधित्व किया।
ललित 2017 में शायरा बानो बनाम भारत संघ के ‘तीन तालक’ फैसले में पांच जजों की संविधान पीठ का भी हिस्सा थे, जहां 3:2 बहुमत ने तत्काल ट्रिपल तालक या ‘तलाक-ए-बिद्दत’ की प्रथा को ” असंवैधानिक” और “स्पष्ट रूप से मनमाना” करार दिया।
जुलाई 2020 में ललित ने दो जजों की उस पीठ का नेतृत्व किया, जिसने तिरुवनंतपुरम के श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर, दुनिया के सबसे अमीर मंदिरों में से एक, के मामलों का प्रबंधन और प्रशासन का तत्कालीन त्रावणकोर राजघरानों के अधिकारों को बरकरार रखा।
बाद में 2021 में उन्होंने तीन जजों की उस पीठ का भी नेतृत्व किया, जिसने बॉम्बे हाई कोर्ट के व्यापक रूप से आलोचना के शिकार हुए “त्वचा से त्वचा” वाले फैसले को उलट दिया। इससे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ के दो फैसलों में कहा गया था कि बच्चे और आरोपी के बीच “त्वचा से त्वचा का संपर्क” यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO कानून) के तहत मामला बनाने के लिए जरूरी था। न्यायमूर्ति ललित की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि यह पॉक्सो कानून के प्रासंगिक प्रावधानों की यह एक गलत व्याख्या थी।
ललित उस पीठ का भी हिस्सा थे, जिसने महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव के एल्गार परिषद-माओवादी लिंक मामले में सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा को जमानत देने से इनकार कर दिया था।
इससे पहले 2017 में वह घरेलू हिंसा से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए पर विवादास्पद फैसले देने वाली दो जजों की पीठ का भी हिस्सा थे। राजेश शर्मा और अन्य बनाम यूपी और अन्य राज्य के मामले में जस्टिस ललित और एके गोयल ने देखा कि पति और उनके रिश्तेदारों को फंसाने के लिए कानूनी प्रावधान का दुरुपयोग करने वाली महिलाएं बढ़ रही हैं।
बाद में मार्च 2018 में, उसी पीठ ने एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर करते हुए एक और विवादास्पद आदेश पारित किया था। इसमें कहा गया था कि एक आरोपी की गिरफ्तारी कानून के तहत अनिवार्य नहीं थी, और ऐसा केवल प्रारंभिक जांच और संबंधित अधिकारियों द्वारा मंजूरी के बाद ही होनी चाहिए। बाद में व्यापक विरोध के बाद इस आदेश को वापस ले लिया गया।
इस साल मार्च में न्यायमूर्ति ललित ने मौत की सजा पाने वाले दोषियों के मामलों की सुनवाई करने वाली पीठ की अध्यक्षता की, और मौत की सजा के दोषियों के संबंध में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। पीठ ने मामले की अपीलों की एक श्रृंखला की सुनवाई करते हुए कहा कि मौत की सजा पर कैदी का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन अनिवार्य था, और कैदी के आचरण पर एक रिपोर्ट की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया, यह जांच करते हुए कि क्या मृत्युदंड ही एकमात्र सहारा है। जुलाई तक ललित ने उस पीठ का भी नेतृत्व किया, जिसने भगोड़े व्यवसायी विजय माल्या को चार महीने की कैद और 2,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। इससे पहले 2017 में ललित ने माल्या को अवमानना का दोषी ठहराने वाली बेंच की भी अध्यक्षता की थी।
नालसा या राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में वरिष्ठ न्यायाधीश को कानूनी सहायता आंदोलन का एक गंभीर प्रस्तावक भी कहा जाता है।