यह स्वतंत्रता दिवस है। इसे मनाने के लिए हम सभी भारतीय तिरंगा खरीद रहे हैं। जाहिर है, आपने झंडा बेचने वालों को भी खूब देखा होगा। छोटे बच्चे। फटे-पुराने कपड़ों को तन से चिपकाए हुए। जिनसे दिखती दिखती रहती हैं उनकी कमजोर हड्डियां। रुकते ही आपकी कार की तरफ दौड़ते आते हैं। खिड़की के बाहर तिरंगा लहराते हुए सटकर खड़े हो जाते हैं।
स्वतंत्रता दिवस की तरह यह भी लगभग सालाना रस्म है। लेकिन, क्या देश के रंग वाले कागज और कपड़े के टुकड़े ऐसे बच्चों की मदद करेंगे? क्या झंडा बेहद असहाय उन लोगों की मदद करेगा जो इसे सलाम करते हैं?
भारत में 18 वर्ष से कम आयु के लगभग 47.2 करोड़ बच्चे हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का 39 प्रतिशत है। उस आंकड़े का एक बड़ा हिस्सा, 29 प्रतिशत, 6 साल तक के बच्चों का है।
जो झंडे बेच रहे हैं, वे सपने देखने वाले बच्चे हैं, तो हम खरीदार युवा। उनसे पूछें कि वे क्या बनना चाहते हैं, तो कुछ कहेंगे स्कूली शिक्षक। अन्य अपने जैसे बच्चों के लिए मसीहा बनने की कसम खाएंगे।
दिन ढलने के बाद वे क्या करते हैं? यह जानने के लिए अहमदाबाद के विजय क्रॉस रोड पर हमारी टीम द्वारा रिकॉर्ड किए गए इन वीडियो को आप खुद देखें।
नैना
“दीदी प्लीज, झंडा लैलो।” दमकती मुस्कान और दोनों हाथों में झंडे लिए तीन साल की नैना ने विनती की।
नैना की मां और चाची हर साल स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर विजय क्रॉस रोड पर झंडे बेचने के लिए बैठती हैं। नैना की मां कहती हैं, “ज्यादातर लोग झंडे खरीदना पसंद नहीं करते हैं। हम केवल उस समय भाग्यशाली होते हैं जब माता-पिता अपने बच्चे के लिए झंडा खरीदने के लिए हमारे पास आते हैं।” नैना अभी तक स्कूल नहीं जाती है, लेकिन उसकी मां वादा करती है कि जब वह पांच साल की हो जाएगी, तो स्कूल में दाखिल करा देगी।
नैना एक कार तक जाती है। अंदर बैठी महिला खिड़की से झांकती है और अपने बच्चे के लिए एक झंडा खरीदती है। नैना हाथ में दस रुपये का नोट लेकर मां के पास लौटती है, उसका चेहरा खुशी से चमक रहा था।
भूमिका
ग्यारह वर्ष की भूमिका के पास बेचने के लिए झंडे नहीं हैं। वह भीख मांग रही है। मुस्कुराते हुए वह कहती है, “मेरे पास मुट्ठी भर झंडे थे, जिन्हें मैं सुबह बेच चुकी। अब मैं कुछ अतिरिक्त रुपये कमाने के लिए भीख मांग रही हूं।”
वह छठी कक्षा में पढ़ रही थी, जब उसके पिता का एक्सीडेंट हो गया था। उसके बाद पैसे की कमी के कारण उसे अपंगशाला स्कूल से निकाल दिया गया था।
भूमिका कहती है, “मैं भीख मांग रही हूं, क्योंकि मेरे पिता वर्तमान में इलाज के लिए क्लिनिक के चक्कर लगा रहे हैं। वह एक ऑटो-रिक्शा चालक थे और उन्होंने दाहिना पैर घुटने के नीचे खो दिया है। ऐसे मैं और मेरी दादी यहां भीख माँगती हैं। मां घर से भाग गई है। ” वह बड़ी होकर पुलिस अफसर बनना चाहती है।
राकेश
राकेश उर्फ लोकेश नौ साल का है। उसे स्वतंत्रता दिवस पर झंडे बेचने का चार साल का अनुभव है। वह दूसरी कक्षा में पढ़ता है। उसके परिवार के चारों सदस्य एक ही काम करते हैं। उससे पूछें कि वह ऐसा क्यों करता है, तो कहता है- क्योंकि माता-पिता के पास पैसे नहीं हैं। राकेश बड़ा होकर “अधिकारी” बनना चाहता है।
क्या वह ये झंडे बनाता है? यह पूछने पर कहता है- नहीं। उसके घरवाले इन्हें लाल दरवाजा से लाते हैं। वे जो लाते हैं और जो बेचते हैं वह ऋतुओं और त्योहारों के अनुसार बदलता रहता है।
अंकित
अंकित 12 साल का है और बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता है। वह पांच साल से झंडे बेच रहा है। मौसम और मांग के हिसाब से वह अन्य सामान भी बेचता है।
क्यों? उसका कहना है कि उसके परिवार में चार सदस्य हैं और सिर्फ दो वक्त की रोटी की खातिर उसे यह काम करना पड़ता है।
रंजीत
रंजीत की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है, लेकिन उसकी महत्वाकांक्षा अलग है। 11 वर्षीय किशोर सड़क-चौराहों पर तीन साल से झंडे और अन्य सामग्री बेच रहा है। उसके परिवार में तीन सदस्य हैं। जीवित रहने के लिए उसे यह काम करना पड़ता है।
हालांकि रंजीत बड़ा होकर बिजनेसमैन बनना चाहता है। वह अपने जैसे बच्चों की मदद करना चाहता है और गरीबों को दान देना चाहता है।
उसका कहना है कि एक तो बहुत कम लोग झंडे खरीदते हैं और जो लोग खरीदते भी हैं, तो कम भुगतान करने के लिए सौदेबाजी करते हैं।
इस तरह देशभक्ति के जोश से भरे दिल के साथ आप खिड़की को नीचे करते हैं। फिर वे जो बेच रहे हैं, उसे खरीदते हैं। ये भारत के बच्चे हैं।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।