आप देखो और इंतजार करो की नीति पर
डैमेज कंट्रोल में लगी भाजपा
सियासत का अपना नियम है , जब लगे की कोई मुद्दा नहीं है , अचानक कोई मुद्दा आ जाता है , पहले वह छोटा लगता है और फिर अचानक बड़ा हो जाता है , जिसे भाजपा बेहतर बेहतर जानती है। खासतौर से जब मामला आरक्षण से जुड़ा हो। पाटीदार आरक्षण आंदोलन के घाव अभी भरे नहीं है , भाजपा के लिए सब कुछ बेहतर चल रहा था , लेकिन अचानक राज्य चुनाव आयोग के आयुक्त संजय प्रसाद के जिला अधिकारियों को भेजी गयी एक अधिसूचना ने बरसात के इस मौसम में राज्य की सियासत में उबाल ला दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए पहले से गुजरात स्थानीय निकाय चुनाव में मौजूद 10 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को हटाकर चुनाव कराने के निर्देश दिए। फैसला चुनाव आयोग था इसलिए जिलाधिकारी को मानना मजबूरी थी , जनसंख्या के लिहाज से गुजरात में पिछड़ा वर्ग समाज सबसे बड़ा है , जिसकी जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या की 52 प्रतिशत के आसपास होने का दावा किया जा रहा है।
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश प्रमुख और विधायक अमित चावड़ा ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा
कांग्रेस की तरफ से कांग्रेस के पूर्व प्रदेश प्रमुख और विधायक अमित चावड़ा ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर ओबीसी आरक्षण बहाल करने की मांग करते हुए मांग की भाजपा शासित राज्य सरकार सरकार सदन का विशेष सत्र बुलाकर आरक्षण बिल पास करे , जवाब में भाजपा प्रदेश प्रमुख सी आर पाटिल ने पत्र जारी कर कहा कि चुनाव आयोग स्वतंत्र संस्था है , सरकार उसके काम में दखल नहीं देती , लेकिन भाजपा ओबीसी समाज के हाथ अन्याय नहीं होने देगी।
स्थानीय निकाय चुनाव में 10 प्रतिशत ओबीसी को टिकट दिया जायेगा। लेकिन दलीय आधार पर टिकट देना और आरक्षण होना दोनों में जमीन आसमान का अंतर विपक्ष उजागर करने की राह पर आगे बढ़ रहा है। गुजरात उच्च न्यायलय के अधिवक्ता ज़मीर शेख कहते है सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह कहा है आरक्षण का आधार होना चाहिए , जनसंख्या यह आधार है , मध्यप्रदेश सरकार ने इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को बदला है , जिसके आधार पर ही हाल में मध्यप्रदेश के स्थानीय निकाय के चुनाव हो रहे हैं , गुजरात सरकार के कानून विभाग , सामान्य प्रशासन विभाग और और जनसांख्यिकी विभाग ने समय पर समन्वय नहीं किया। इसलिए यह हालात बन गए है।
गुजरात की 3,253 ग्राम पंचायतों में ओबीसी समाज के साथ अन्याय होगा
गुजरात प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता डॉ. मनीष एम. दोशी ने कहा कि राज्य चुनाव आयोग के सचिव द्वारा सभी जिला कलेक्टरों को लिखे गए पत्र के अनुसार अब से गुजरात में ग्राम पंचायत चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित नहीं होंगी.जो की पंचायत अधिनियम 1993 से लागू है। ओबीसी को आम सभा में आरक्षित महिलाओं सहित सीटों की घोषणा कर चुनावी घोषणा पत्र के संबंध में तत्काल कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है.उन्होंने आगे कहा कि छह महीने बीत जाने के बावजूद, गुजरात सरकार ने स्थानीय निकायों में आरक्षण प्राप्त करने के लिए ओबीसी के लिए एक आयोग का गठन करके जनसंख्या के आधार पर मानदंड निर्धारित करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की है ताकि लगभग 10 प्रतिशत ओबीसी आरक्षित हो। गुजरात की 3,253 ग्राम पंचायतों में ओबीसी समाज के साथ अन्याय होगा।
कांग्रेस ने ओबीसी अग्रणियों के साथ बैठक की
भारी बरसात के बीच भी डॉ. मनीष एम. दोशी ओबीसी सेल ने राज्य के सभी जिला मुख्यालय में जिला अधिकारी को ज्ञापन दिया , साथ ही सर्किट हाउस में ओबीसी अग्रणियों के साथ बैठक की। 12 जुलाई को प्रदेश स्तर पर रणनीतिक बैठक होगी। कांग्रेस प्रदेश महामंत्री तथा सूरत शहर प्रमुख हसमुख देसाई कहते है की कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी ने 1985 में ओबीसी आरक्षण के लिए अपनी सरकार दाव पर लगा दी थी , लेकिन भाजपा ने जो किया है वह अचानक नहीं हुआ है ,यह संघ की आरक्षण को ख़त्म करने की पहली शुरुआत है , मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस के दबाव में ही शिवराज सरकार रिव्यू पीटीशन दायर की थी।
ओबीसी समुदाय राज्य की कुल आबादी का लगभग 52 % है। राज्य सरकार के इस फैसले से स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं से ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा. राज्य सरकार के इस तरह के दखल देने वाले फैसले का शिकार ओबीसी समुदाय होगा। आरक्षण खत्म करने की भाजपा की नीति के खिलाफ विपक्ष आक्रामक रूप से लड़ेगा।
ऐसा नहीं है की भाजपा को इसकी गंभीरता का पता नहीं है। मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने ईबीसी आरक्षण के लिए आयोजित बैठक को रद्द कर दिया है। साथ ही सरकार के संकट मोचक के कैलाशनाथन और राज्य चुनाव आयुक्त संजय प्रसाद के बीच लम्बी बैठक हुयी है , कोई बीच का रास्ता निकालने के विकल्पों पर चर्चा हो रही है।
भाजपा के ओबीसी नेता भी इस निर्णय से नाराज है
भाजपा के ओबीसी नेता भी इस निर्णय से नाराज है , सूरत कार्यकारिणी में इस मुद्दे के उठने की भी सम्भावना है। उत्तर और मध्य गुजरात तथा सौराष्ट्र में पिछड़ावर्ग समाज निर्णायक है। पिछड़ा वर्ग में 186 जातियों का समावेश है , जिसमे ठाकोर कोली और रबारी – भरवाड़ बहुमत में है। राजनीतिक तौर पर भी इस समाज की मजबूत पकड़ है। गुजरात विधानसभा में ओबीसी के 45 विधायक है। 1990 तक गुजरात की राजनीति ओबीसी -आदिवासी के वृत्त में घूमती थी।
स्वतंत्र आयोग बनाने का फैसला ,के. एस जावेरी इस स्वतंत्र आयोग के अध्यक्ष होंगे
मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने राज्य के स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व को निर्धारित करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने का फैसला किया है. गुजरात उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के. एस जावेरी इस स्वतंत्र आयोग के अध्यक्ष होंगे। मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में अन्य पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार कार्रवाई करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग के गठन का फैसला किया है।
इस स्वतंत्र आयोग का गठन स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में पिछड़ेपन के स्वरूपों और प्रभावों का गहन अध्ययन करने के लिए स्थानीय स्वशासन की इकाइयों में अन्य पिछड़े वर्गों की सीटों का निर्धारण करने से पूर्व अपने राजनीतिक आधार पर सांख्यिकी का संकलन एवं विश्लेषण करने के लिए किया गया है। ।
उल्लेखनीय है कि इस स्वतंत्र आयोग की सिफारिशों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थानीय स्वशासन के निकाय के अनुसार स्थानीय निकायवार आरक्षित अनुपात निर्धारित करने का निर्देश दिया है।
1990 के बाद पटेल दबदबा बढ़ा , जिसका खामियाजा ओबीसी को भुगतना पड़ा
1990 के बाद पटेल दबदबा बढ़ा , जिसका खामियाजा ओबीसी को भुगतना पड़ा , इसलिए उन्हें अपने स्वर्णिम दिन की कसक भी सता रही है। पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति के दिनेश बामणिया ने मुख्यमत्री को पत्र लिखकर ओबीसी के साथ इबीसी को भी 10 प्रतिशत स्थानीय निकाय में आरक्षण की मांग की है। सरकार अब उच्चतम न्यायलय में जाने की भी सम्भावना तलाश रही है। वही आम आदमी पार्टी अभी देखो और इंतजार करो की नीति पर है। जगदीश ठाकोर गुजरात कांग्रेस प्रमुख बनाने के बाद ओबीसी समाज को संगठित कर अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं। वह खुद भी इसी समाज से हैं। जबकि आप के पास ओबीसी का बड़ा चेहरा नहीं है।
क्या था मध्यप्रदेश का मामला
सुप्रीम कोर्ट (एससी) ने मध्य प्रदेश को स्थानीय निकाय चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण प्रदान करने की अनुमति दी , डेटा की कमी के कारण कोटा को निलंबित करने वाले पहले के आदेश को संशोधित किया।
वर्तमान में, मध्य प्रदेश में स्थानीय निकायों में केवल अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए कोटा है।
यह पहली बार है कि किसी राज्य सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी के लिए आरक्षण प्रदान करने के संदर्भ में शीर्ष अदालत द्वारा अनिवार्य ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले को मंजूरी देने में कामयाबी हासिल की है।
इससे पहले, SC ने महाराष्ट्र सरकार की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने दिसंबर 2021 के आदेश को वापस लेने का फैसला किया , जिसने स्थानीय निकाय चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए 27% आरक्षण पर रोक लगा दी थी।
स्थानीय निकाय में ओबीसी आरक्षण की क़ानूनी लड़ाई
2021 में, SC ने महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनावों में OBC कोटा समाप्त कर दिया, और ओडिशा उच्च न्यायालय ने राज्य में इसी तरह के एक कदम को रद्द कर दिया क्योंकि यह अभ्यास ट्रिपल टेस्ट पास नहीं करता था।
ट्रिपल-टेस्ट फॉर्मूला , 2010 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित और बाद में मार्च 2021 में दोहराया गया, राज्यों को एक आयोग नियुक्त करने, समुदाय का संख्यात्मक डेटा एकत्र करने और स्थानीय निकायों में उन्हें इस तरह से आरक्षण आवंटित करने की आवश्यकता थी कि प्रत्येक सीट पर कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं है।
क्या था फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में मध्य प्रदेश द्वारा गठित तीन सदस्यीय ओबीसी आयोग की एक रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए राज्य को ओबीसी सीटों को अधिसूचित करने का निर्देश दिया।
इस आयोग ने राज्य में ओबीसी की आबादी 48% निर्धारित की और प्रत्येक नगरपालिका सीट पर अलग-अलग मात्रा में आरक्षण की अनुमति दी, जिसे अधिकतम 35% तक बढ़ाया गया।
SC ने मध्य प्रदेश राज्य चुनाव आयोग को राज्य सरकार द्वारा पहले से जारी परिसीमन अधिसूचनाओं को ध्यान में रखते हुए संबंधित स्थानीय निकायों के लिए चुनाव कार्यक्रम को अधिसूचित करने की अनुमति दी।
यह आदेश दायर याचिका पर पारित किया गया था, जिसने अप्रैल 2022 में मध्य प्रदेश नगरपालिका अधिनियम, 1956, मध्य प्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम, 1993 और मध्य प्रदेश नगर पालिका अधिनियम, 1961 में संशोधन को चुनौती दी थी।
इन संशोधनों द्वारा, राज्य सरकार ने संबंधित स्थानीय निकायों में वार्डों की संख्या और सीमा निर्धारित करने के लिए खुद को अधिकृत किया।
सुप्रीम कोर्ट का 2010 का फैसला क्या है?
के कृष्णमूर्ति (डॉ.) बनाम भारत संघ (2010) में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ का निर्णय जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 243डी (6) और अनुच्छेद 243टी (6) की व्याख्या की थी , जो पिछड़े लोगों के लिए कानून बनाकर आरक्षण की अनुमति देता है। पंचायतों और नगर निकायों में क्रमशः यह मानने के लिए कि राजनीतिक भागीदारी की बाधाएं शिक्षा और रोजगार तक पहुंच को सीमित करने वाली बाधाओं के समान नहीं हैं।
हालांकि, एक समान खेल मैदान बनाने के लिए, आरक्षण वांछनीय हो सकता है जैसा कि उपरोक्त अनुच्छेदों द्वारा अनिवार्य है जो आरक्षण के लिए एक अलग संवैधानिक आधार प्रदान करते हैं, जैसा कि अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) के तहत कल्पना की गई है, जो आधार बनाते हैं। शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के लिए।
हालांकि स्थानीय निकायों को आरक्षण की अनुमति है, शीर्ष अदालत ने घोषित किया कि यह स्थानीय निकायों के संबंध में पिछड़ेपन के अनुभवजन्य खोज के अधीन है जैसा कि ट्रिपल परीक्षणों के माध्यम से पूरा किया गया है।
स्थानीय सरकार क्या है?
स्थानीय स्वशासन ऐसे स्थानीय निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन है जो स्थानीय लोगों द्वारा चुने गए हैं।स्थानीय स्वशासन में ग्रामीण और शहरी दोनों सरकारें शामिल हैं।यह सरकार का तीसरा स्तर है।स्थानीय सरकारें 2 प्रकार की होती हैं – ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें और शहरी क्षेत्रों में नगर पालिकाएँ।