उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले राजनीति में अंतर्धाराएं उभर रही हैं, जो पश्चिमी यूपी में राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों को उलट-पुलट सकती है। इसका ऐसा ही असर आसपास के ब्रज और रोहिलखंड में भी दिख सकता है। इस क्षेत्र को जाट बेल्ट के रूप में जाना जाता है, जो मथुरा-वृंदावन-गोवर्धन की “पवित्र भूमि” से लेकर मुरादाबाद, बरेली और सहारनपुर तक फैला हुआ है।
राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) ऐसी पार्टी है, जिसके वर्तमान नेता जयंत चौधरी को राजनीतिक विरासत दिवंगत पिता चौधरी अजीत सिंह से मिली है। जयंत ने उन दलितों तक पहुंचने के लिए एक गंभीर कदम उठाया है, जो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उदय के साथ अत्यधिक राजनीतिक हो गए हैं। शुरुआती दौर में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को इन भागों में खूब लाभ मिला था। हालांकि विशुद्ध रूप से चुनावी कारणों से रालोद की परियोजना “अतिवाद” से कम नहीं है। खासकर उसके इतिहास और विरासत को देखते हुए, जिसके यहां दशकों तक दलितों के लिए कोई स्थान नहीं था।
शायद 2019 में बसपा के साथ जयंत की संक्षिप्त गठजोड़ ने उन्हें चुनावी गणना में दलित वोटों के महत्व को समझने के लिए प्रेरित किया। पिछले लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी (सपा), बसपा और रालोद के बीच एक समझौता हुआ था जिसे “महागठबंधन” का नाम दिया गया था। इसके जरिये भाजपा को कड़ी चुनौती मिलने का अनुमान लगाया गया था। अंत में अमित शाह की कड़ी मेहनत के साथ नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अपील ने, विशेष रूप से गरीबों के लिए, “महागठबंधन” के गणित को पीछे छोड़ दिया।
फिर भी, भाजपा विरोधी विपक्ष ने अपने 2014 के प्रदर्शन में सुधार किया। मेरठ, मुरादाबाद और सहारनपुर डिवीजनों में लगभग आधी सीटें जीतीं। जबकि जाट क्षेत्र में सपा का ज्यादा आधार नहीं है। हालांकि ब्रज “भूमि” में उसके समर्थक हैं, लेकिन रोहिलखंड में तो विशाल मुस्लिम आबादी के कारण वह बहुत मजबूत स्थिति में है। बसपा के लिए भी ऐसी ही स्थिति है, जो मुख्य रूप से अपनी नेता मायावती की जाटव उप-जाति के कारण है, जो दलितों में क्रीमी लेयर की जाति है। इस तरह मायावती ने जाटव वोटों को अपने सहयोगियों को हस्तांतरित करने की अपनी क्षमता साबित कर दी थी, लेकिन रालोद जाट वोटों को उम्मीद के मुताबिक नहीं खींच सका, क्योंकि जाट हिंदुत्व से जुड़े रहे और उन्होंने भाजपा के साथ जाने का विकल्प चुना। 2013 की मुजफ्फरनगर हिंसा से छिटक गई हिंदू-मुस्लिम बंटवारा वहीं खड़ा हो गया, जहां वह था।
अब पत्रकार और “बहुजन पत्रिका” के संपादक प्रशांत कनौजिया के नेतृत्व में रालोद ने हाथरस बलात्कार पीड़िता के परिवार के लिए न्याय, स्थायी रोजगार की मांग के लिए 13 जिलों को कवर करते हुए दो महीने की लंबी “न्याय यात्रा” शुरू की है। उनकी मांग सफाई कर्मचारियों को स्थायी नौकरी देने और हाथ से मैला ढोने के खिलाफ कानून को सख्ती से लागू करने की भी है। कनौजिया को मुख्यमंत्री के बारे में कथित रूप से “अपमानजनक” ट्वीट पोस्ट करने और हिंदुओं का “अपमान” करने के लिए योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा दो बार गिरफ्तार भी किया जा चुका है। इसके बाद ही वह रालोद में शामिल हुए।
यह गत वर्षों में एक दलित नेतृत्व की पहचान करने और उसे बढ़ावा देने में रालोद की विफलता का ही प्रतिबिंब है, जिसके कारण उसने पार्टी में इस शून्य को भरने के लिए राजनीतिक नवगीत कनौजिया की ओर रुख किया। लेकिन अतीत को देखते हुए यह आश्चर्य की बात नहीं है। जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह- जो जनता पार्टी के अराजक शासन के दौरान एक महीने तक प्रधानमंत्री थे, जहां उन्होंने अपने पूर्ववर्ती मोरारजी देसाई को पीछे करने के लिए खुद को इंदिरा गांधी के हाथों का मोहरा बनने दिया था- उनके चुनावी ढांचे में दलितों के लिए कोई जगह नहीं थी।
चरण सिंह के पास उन दलितों के लिए सहानुभूति नहीं थी, जो ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित जातिगत भेदभाव के शिकार थे, जिन्होंने कभी जाट के घर में परोसा हुआ खाना नहीं खाया। दरअसल एक बार जब उन्होंने भूमि हदबंदी कानून को सख्ती से लागू करके जाटों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया और ब्राह्मणों और राजपूतों को विरासत में मिली बड़ी जोत को काट दिया, तो जाट पश्चिम यूपी में प्रमुख जाति बन गए। उन्होंने चुनावों में जोरदार प्रदर्शन किया और पिछड़ी जातियों को एक हद तक नीचे गिराने के लिए बाहुबल और धन का इस्तेमाल किया। उन्होंने दलितों को वोट देने से वंचित कर दिया। यह तो बसपा का उदय ही था, जिसने यह सुनिश्चित किया कि अधिकांश हिस्सों में दलित कम से कम पहली बार अपने मताधिकार का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करें। हालांकि जाटों ने पिछड़ी जातियों के साथ शांति कायम कर ली, फिर भी वे सशक्त दलितों के अस्तित्व के साथ तालमेल नहीं बिठा पाए। एक चुनावी समझौता किसी संदर्भ के बिना काम नहीं कर सकता। तो क्या रातों-रात खत्म हो जाएगी पारंपरिक जाट-दलित दुश्मनी?
कहना ही होगा कि इन हिस्सों में बसपा मायने रखेगी। चाहे मायावती पिछले चार साल से कितनी भी निष्क्रिय क्यों न हो गई हों। लेकिन यह भी कहना ही होगा कि वह योगी शासन की चूक और आयोगों के खिलाफ एक स्पष्ट रुख अपनाने में विफल रही, जो उन्हें भाजपा का आधा-अधूरा विरोधी बनाता है। ऐसे में पलड़ा भीम आर्मी के संस्थापक-अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद रावण का भारी लगता है, जिन्होंने हाल ही में अपनी आजाद समाज पार्टी बनाई है। मायावती की तरह वह भी जाटव हैं, जो युवा दलितों की आवाज बन चुके हैं, जो बसपा द्वारा सत्ता में बने रहने के लिए बार-बार किए गए समझौतों से तंग आ चुके हैं। सपा और रालोद को अपने गठबंधन में रावण को शामिल करने की उम्मीद है।